ओह्ह दीवाली !! हाय पर्यावरण, हाय प्रदूषण

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दिल्ली की हवा में इतने सारे स्तरों पर और इतने अधिक कारणों से साल के 12 महीने, दिन के चौबीस घंटे इतना अधिक ज़हर घुल रहा है कि जिनके अंदर सोचने वाली नसें ज़िंदा हैं उनकी रूह अगली पीढ़ियों के भविष्य के बारे में सोच कर ही काँप जाती है। सबसे ज़्यादा आक्रोश जगाने वाली बात यह है कि हर साल, पूरे साल भर के 364 दिन इन सभी कारणों में से एक पर भी ज़रा सी भी रोक लगाने की कोई कोशिश नहीं की जाती, न ही साल भर होती इस खुल्लमखुल्ला कमीनगी पर एक भी सुपरसयानी बुद्धिजीवी ज़बान से ज़रा सी भी फ़िक्र टपकती है - यह सारी टुच्ची ज़बानें हर साल इतने वक़्त तक बेईमानी और नीचता का तेज़ाब पी कर चुपचाप मरी हुई पड़ी रहती हैं।

हर साल पंजाब, हरियाणा और पंजाब के किसान अपनी फसलों की सूखी पराली जलाने से एक प्रतिशत भी बाज़ नहीं आते हैं - लगातार हर वर्ष नियम-क़ानूनों की छाती पर पैर रख कर यह गुंडई की जाती है, लेकिन अपनी-अपनी क़ब्रों में दफ़न पड़े सभी सुपरसयाने पर्यावरणविदों को यह मंज़र कतई दिखाई नहीं देता है। हर साल, साल भर दिल्ली के वायु प्रदूषण के सबसे बड़े कारण अर्थात धूल के बारीक कणों की रोकथाम करने के लिए निर्माण गतिविधियों को नियंत्रित या समुचित उपायों से लैस नहीं किया जाता है, और बुद्धिजीविता की शुद्ध कुत्तई के घी में पका हलवा खाए सुपरसयाने पर्यावरणविदों की मक्कारी से अन्धी हुई आँखों को यह भी कभी दिखाई नहीं देता है।

बाक़ी निजी गाड़ियों की संख्या सीमित करने के बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ है क्यूँकि दिल्ली में भौंकने वाले एक भी सुपरसयाने बुद्धिजीवी पर्यावरणविद का नर्म-नाज़ुक पिछवाड़ा इतना मज़बूत नहीं है कि महज़ हफ़्ता भर भी डीटीसी की बसों और ई-रिक्शा की सख़्त सीटों पर बैठ कर बुरी तरह छिले बिना रह सके, इसलिए 8 लाख की गाड़ी में 500 रुपए का पैट्रोल फूँके बिना उनकी भेड़ियानुमा आँत में से दिल्ली के पर्यावरण के लिए सड़ांध भरी पाखण्डी चिंता का 10 ग्राम मल भी उत्सर्जित नहीं होता।

इसीलिए, और ठीक इसीलिए, हर साल दीपावली नज़दीक आते ही इन सुपरसयाने बुद्धिजीवी पर्यावरणविद भेड़ियों द्वारा समवेत स्वर में जैसे ही "हा दिल्ली! हा पर्यावरण! हा वायु! हा प्रदूषण!" का गगनभेदी चीत्कारयुक्त सामूहिक छातीपीट विलाप शुरू किया जाता है, यह सारी हरमज़दगी पूरे साल भर से देख रही आम जनता इनसे भी चार गुने ऊँचे स्वर में इन्हें भयंकर मोटी-मोटी गालियों से नवाज़ती है और पिछले साल से भी दोगुने पटाखे छोड़ती है।

दरअसल इन सारी गालियों और पटाखों की गरजती हुई आवाज़ से दिल्ली और देश भर की आम जनता इन सुपरसयाने बुद्धिजीवी पर्यावरणविदों को यह साफ़-साफ़ बता देना चाहती है कि दिल्ली और देश के पर्यावरण की तबाही का अकेला ज़िम्मा दीवाली की रात का नहीं है, इसलिए उस पर्यावरण को बचाने का उत्तरदायित्व भी दीवाली की रात अकेली नहीं उठाएगी - हरगिज़ नहीं उठाएगी - कतई नहीं उठाएगी। तब तो और भी नहीं जब अपने बेडरूम, लिविंग रूम, ड्राइंग रूम, ऑफ़िस केबिन और गाड़ी के साथ-साथ पाखाने में भी एसी घुसेड़ने को तैयार बैठे महाबेईमान बौद्धिक चोट्टे पाखण्डी सुपरसयाने बुद्धिजीवी पर्यावरणविद इस आम जनता पर अपने ऐलीटत्व का रौब झाड़ते हुए उसे बताना चाहेंगे कि उसे अपने त्यौहार सिर्फ़ इसलिए बर्बाद कर लेने चाहिए क्यूँकि बाक़ी और किसी हरामख़ोर को पर्यावरण की रक्षा करने के लिए अपनी सुविधाओं या गुंडई का त्याग करने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

इसीलिए दिल्ली और देश की आम जनता भी हर साल इन महाबेईमान बौद्धिक चोट्टे पाखण्डी सुपरसयाने बुद्धिजीवी पर्यावरणविदों के भौंके हुए सारे ज्ञान और पर्यावरण के लिए बहाए हुए घड़ियाली आँसुओं पर थूकते हुए दोगुने जोश से चार गुना ज़्यादा आतिशबाज़ी करती है।

अब जितना चाहें रोते-बिलखते रहें दीवाली की अगली सुबह महाबेईमान बौद्धिक चोट्टे पाखण्डी सुपरसयाने बुद्धिजीवी पर्यावरणविद और साथ में उनकी चप्पलों को चाटते उनके जूनियर बुद्धिजीवी, कि "हाय दिल्ली की आबोहवा लुट गई बर्बाद हो गई दीवाली की रात"। भद्दे स्वर में रोते-बिलखते कुत्तों के झुंड के मनहूस स्वर को सुन कर तो आम आदमी के मन में भी करुणा नहीं, तेज़ ग़ुस्सा ही उपजता है; और ऐसे समय में उसका हाथ भी उन कुत्तों की पीठ और कमर तोड़ कर भगाने के लिए अपने लट्ठ की तरफ़ ही बढ़ता है, उन कुक्कुरों को पुचकारने के लिए नहीं। बचा लें अपनी पीठ और कमर यह महाबेईमान बौद्धिक चोट्टे पाखण्डी सुपरसयाने बुद्धिजीवी पर्यावरणविद जब तक बचा सकते हैं, देश की जनता का हाथ उसके लट्ठ के और क़रीब पहुँचता जा रहा है - दीवाली दर दीवाली !!!

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