"श्रीमद्भगवद्गीता" की प्रामाणिकता तर्कानुतर्क अकाट्य है

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श्रीमद्भगवद्गीता की प्रामाणिकता तर्कानुतर्क अकाट्य है

"श्रीमद्भगवद्गीता एक साहित्यिक चोरी है!" — प्रेमकुमार मणि !
आज (17/05/18) दोपहर श्रीयुत गोविंद पुरोहित जी से फोन पर वार्ता हुयी। उन्होंने इस पंक्ति के साथ बताया कि महोदय "प्रेम" ने ग्यारह सौ शब्द की विवेचना लिखी है। उनकी विवेचना कहती है : "गीता एक साहित्यिक चोरी है, इसका मूल ग्रंथ बौद्ध कवि अश्वघोष का 'सौन्दरनन्द' है।" विवेचना में बौद्ध जातक कथाओं व महाकवि कालिदास के काल का आश्रय भी लिया गया है। इस विवेचना को हज़ारों लोगों ने पढ़ा है।
ज्ञात रहे 'अश्वघोष' एक बौद्ध दार्शनिक विद्वान एवं कवि थे। उनका काल ईसा की प्रथम शताब्दी में कुषाण राजा कनिष्क के समकालीन रहा। महोदय ने उन्हें "कालिदास" का पूर्ववर्ती बताया है, जिसके विषय में लेख के अंत में तर्कों से सिद्ध किया गया है कि वे "कालिदास" के परवर्ती थे।
वास्तव में "गीता" को साहित्यिक चोरी कह कर उन्होंने अपना उपहास स्वयं किया है। वे स्वयं में सोचें कि बौद्ध धर्म का मूल "अनात्मवाद है, प्रतीत्यसमुत्पाद है" और गीता का मूल "आत्मवाद" है। तिस पर भी वे दोनों का साम्य देख लेते हैं। इसे हास्यास्पद कहें, या सनातन का अंध विरोध कहें।
अब मुख्य विषय "गीता" पर चर्चा होगी :
"शतपथ ब्राह्मण" कहता है : "भरतवंशियों जैसी महत्ता भूतोनभविष्यति है।" (तेरहवाँ अध्याय, चौथा पाँचवा श्लोक) : अतः जहाँ भी आदर्शों की चर्चा आएगी, वहाँ महाभारत व गीता का उल्लेख होना अवश्यभांवी है।
महोदय जिस शैली को "गीता" के समकक्ष समझ रहे हैं, उसके विषय में "सौन्दरनन्द" के ही अठारहवें सर्ग के सोलहवें श्लोक में "अश्वघोष" कहते हैं : "इत्येषा व्युपशान्तये न रयते!" अर्थात् "शुष्क व नीरस दार्शनिक तत्त्वों का प्रचार सरलता से हो सके, अतएव काव्य शैली का सहारा लिया गया है।"
भगिनी निवेदिता ने समस्त विद्वानों को संबोधित कर कहा था : "विधर्मी पाठक इसे विद्वान के भाव से न पढ़ें, बल्कि शरणागत भाव से पढ़ें।" तिस पर भी कुछ मनुज उसे "विद्वान" भाव से ही पढ़ते हैं और ऊटपटाँग विवेचनाएँ प्रस्तुत करते हैं।
"सांख्यकारिका" में लिखा है : "मानाधीना मेयसिद्धि:" अर्थात् प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के अधीन होती है। अतः आलेख में पूर्णतया प्रमाण और प्रमेयसिद्धि होगी, कि गीता का काल सैकड़ों वर्ष ईसा पूर्व का है।
आइए, अब हम श्री प्रेमकुमार को उनके रुचि अनुसार उत्तर दें :
प्रथम तो ये सत्य स्वतः सिद्ध है कि 'गीता' महाभारत का ही भाग है। इस सत्य को निम्नलिखित बिंदु अकाट्य बनाते हैं :
महाभारत में स्थान स्थान पर 'गीता' का उल्लेख है। ( आदिपर्व 2, 69 ; 1, 247 | 1, 179 )
गीता और महाभारत की शैली में ऐक्यता है, उल्लेख तिलक की "गीतारहस्य" के परिशिष्ट में लिखित है। साथ ही ऑक्स्फ़र्ड वि॰वि॰ द्वारा 1879 से 1910 के मध्य प्रकाशित "सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट" के खंड आठ की भूमिका भी यही स्पष्ट करती है। अन्यान्य दर्शन पद्धतियों एवं धर्मों के विषय में गीता व महाभारत की सहमति है। दोनों ही कर्म को अकर्म से श्रेष्ठ मानते हैं। गीता के अध्याय तीन व महाभारत वनपर्व के अध्याय 32 में इस प्रकार के उल्लेख हैं।
महाभारत के शांतिपर्व अध्याय 267 व गीता के तीसरे अध्याय में वैदिक यज्ञों के प्रति विचार में समानता है।
सृष्टि की व्यवस्था संबंधी समान स्थापनाएँ गीता के अध्याय सात-आठ व शांतिपर्व के अध्याय 231 में स्पष्ट उद्धृत है।
गुण-संबंधी सांख्य का समान प्रतिपादन गीता के चौदह-पंद्रह, अश्वमेधपर्व के 36 से 39, शांतिपर्व के 285, 300 से 311वें अध्यायों में स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है।
पतंजलि योग के संबंध में गीता के अध्याय छः व शांतिपर्व के अध्याय 239 व 300 में समान विचार हैं।
विश्वरूप का उल्लेख न केवल गीता में है बल्कि उद्योगपर्व के 170, अश्वमेधपर्व के 55, शांतिपर्व के 339 व वनपर्व के 99वें अध्यायों में भी प्राप्य है।
अतः, गीता और महाभारत एक इकाई हैं व समकालीन हैं।
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अब "महाभारत" के काल के विषय में चर्चा करें :
मैकडालन की "संस्कृत लिटरेचर" नामक प्रसिद्ध पुस्तक के पृष्ठ 284-85 पर स्पष्ट लिखा है : "महाभारत महाकाव्य ईसा से दसवीं सदी के इधर का नहीं हो सकता!"
पश्चिम के ही विद्वान "कोलब्रुक", विल्सन, एलफ़िनस्टन, विलफ़ोर्ड आदि ने एकमत से इसे चौदहवीं शताब्दी पुरातन माना है। पुस्तक "ऐंशियंट हिन्दू सिविलिज़ेशन" में आर॰सी॰ दत्त व प्रैट जैसे विद्वानों ने महाभारत को ईसा से बारहवीं शताब्दी पूर्व का माना है।
श्री वैद्य महाभारत के प्रथम संस्करण को लगभग 3100 वर्ष ईसा पूर्व का मानते हैं, सनातन की अवधारणा के सर्वाधिक निकट यही है।
महाभारत के पात्रों से पाणिनि परिचित थे। उनकी सूक्तियों में मिलता है : "गविंयुधिभ्यां स्थिर:"(8:3:95) व "वासुदेवार्जुनाभ्यां वुण" (4:3:98)।
महाकवि भास ने अपने नाट्यों में अनेक कथानक महाभारत से लिए गये हैं। "अश्वघोष" ने स्वयं अपने "बुद्धचरित" एवं "सौन्दरनन्द" में महाभारत के एक संस्करण "भारत" का स्पष्ट उल्लेख किया है।
बौद्धायन ने अपने धर्मसूत्रों में एक ऐसा श्लोक उद्धृत किया है, जो महाभारत के ययाति उपाख्यान में उल्लिखित है और एक श्लोक भगवद्गीता से भी उद्धृत है।
"बुहलर" व "किर्सटे" के लोकप्रिय शोध "कंट्रिब्यूशन टू द स्टडी ऑफ़ द महाभारत" में स्पष्टतया लिखा है : "जैसा महाभारत आज आपके हाथों में है, पाँच सौ वर्ष ईसा पूर्व से इसी रूप में है।"
आश्वलायन गृहसूत्रों में भी महाभारत का उल्लेख है। (गृहसूत्र 3:4:4) व गुप्तवंशीय शिलालेखों में बहुतायत में महाभारत का प्रभाव स्पष्ट है।
अंततः यह स्पष्ट है कि महाभारत इन सभी से अतिप्राचीन है और "गीता" भी।
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गीता पर "तेलंग" टीका सर्वप्राचीन है। इसका काल तीन सौ वर्ष ईसा पूर्व है। सर आर॰जी॰ भण्डारकर के अनुसार गीता का काल ईसा से चार सौ वर्ष पूर्व का है। गार्ब ने बहुत अन्वेषणों के पश्चात् गीता को कम से कम दो सौ वर्ष ईसा पूर्व का माना है।
"कालिदास" के "रघुवंशम्" में गीता के समान एक श्लोक है : दशम सर्ग का इकतीसवाँ श्लोक। आश्चर्यजनकरूप से गीता के तीसरे अध्याय के बाइसवें श्लोक के समान है।
महाकवि भास के "कर्णभार" में एक वाक्य है : "हतोऽपि लभते स्वर्ग जित्वा तु लभते यश:!" — गीता के दूसरे अध्याय के सैंतीसवें श्लोक से लिया गया है।
पुराणों में भी भगवद्गीता के समान कई गीताएँ प्राप्त होती हैं। बोधायन ने गृह्यसूत्रों में वासुदेव पूजा का उल्लेख मिलता है। इसमें एक वाक्य है(2, 22, 9 सूत्र) जो भगवान का कहा गया बताया गया है। उसका मूल गीता, नवें अध्याय का छब्बीसवाँ श्लोक, में ही है।
पितृमेधसूत्र का उदय भी गीता से ही है। "सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट", खंड दो की भूमिका का पृष्ठ 43 व खंड चौदह की भूमिका पृष्ठ का 43 इसकी पुष्टि करते हैं।
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अब प्रश्न ये है कि "अश्वघोष" के "सौन्दरनन्द" में गीता का इतना प्रभाव आया कैसे?
बौद्ध धर्म में गीता से लिए गये सिद्धांत हैं :
1. वेदों के स्वतः प्रमाण होने से असहमति।
2. वर्ण व्यवस्था का शैथिल्य।
3. कर्मकांडप्रधान धर्म की चूलें हिला देने वाली धार्मिक उथल पुथल की अभिव्यक्ति।
4. निर्वाण शब्द गीता से है, अध्याय छः का पंद्रहवाँ श्लोक।
5. आदर्श व्यक्ति के लक्षण प्रकट करने में अध्याय दो में 55 से 72, अध्याय चार में 16 से 23, अध्याय पाँच में 18 से 28, अध्याय बारह में 13 से 16 और ये सब श्लोक आश्चर्यजनक रूप से साम्य रखते हैं, धम्मपद से 360 से 423, सुत्तनिपात, मुनिसुत्त एक-सात और चौदह से।
स्पष्ट है कि बौद्धधर्म पर गीता का प्रभाव है और गीता की व्याख्या ही "सौन्दरनन्द" है। चूँकि "सौन्दरनन्द" में गीता से लगभग चार सौ अधिक श्लोक हैं।
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डॉक्टर राजबली पाण्डेय कृत "विक्रमादित्य" ग्रंथ का अध्ययन कीजिए उससे स्पष्ट हो जाएगा कि कालिदास का काल ईसा से एक सदी पूर्व का है।
"मालविकाग्निमित्रम्" की भूमिका में कालिदास लिखते हैं : "प्रथितयशसां भाससौमिल्लकविपुत्रमिश्रादीनां प्रबन्धानतिक्रम्य वर्तमानकवे: कालिदासस्य!" अर्थात् "भास, सौमिल्ल, कविपुत्रमिश्र आदि की कृतियों के रहते कालिदास के नाट्य का इतना आदर क्यों?"
उल्लेखनीय है, यहाँ महाकवि "अश्वघोष" का उल्लेख नहीं किया गया है। चूँकि उनका काल ईसा की प्रथम शताब्दी में कुषाण राजा कनिष्क के समकालीन रहा। और कहा भी जाता है : "यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:" — बड़ों का अनुकरण छोटे करते हैं!
आचार्य बलदेव उपाध्याय एवं वाचस्पति गैरोला ने अपने-अपने "संस्कृत साहित्य का इतिहास" ग्रंथों में "अश्वघोष" को "कालिदास" का परवर्ती घोषित किया है। क्षेमेशचंद्र चट्टोपाध्याय ने "डेट ऑफ़ कालिदास" में अत्यंत सूक्ष्म अन्वेषणा के पश्चात् "अश्वघोष" को परवर्ती माना।
ए॰ए॰ मेक्डोनल ने "अ हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिटरेचर" में महाकवि "कालिदास" की त्रिकाल सत्य विरुदावली लिखी है, "अश्वघोष" की नहीं।
"नृत्यति पिनाकपाणौ नृत्यन्त्यन्येऽपि भूतवेतला:" — तांडव शिव का प्रसिद्ध नृत्य है, भूतों का नहीं, अतः ये कहना उचित न होगा कि भूतों को नाचता देख शिव नाचने लगे बल्कि शिव को नाचता देख ही भूत नाचते हैं।
अस्तु।
[पुनश्च : उक्त विवेचना में कोई बिंदु छूट गया हो तो उस प्रश्न की प्रतीक्षा है अनुराग को और यदि उक्त विवेचना के सभी बिंदु अभिहित हो गये हों तो श्री प्रेमकुमार मणि के स्पष्टीकरण की प्रतीक्षा में हैं अनुराग!]

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