भारत का आखिरी विभाजन और रक्तचरित्रों की रक्तरेखा! रक्तरंजित विभाजन के कौन थे पेरोकार ?
इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सर सिरिल जॉन रेडक्लिफ को हिन्दुस्तान के भूगोल की जानकारी बहुत कम थी। वे तो पहले कभी हिन्दुस्तान भी नहीं आये थे। 8 जुलाई 1947 को हिंदुस्तान पहुंचने के बाद उन्हें बताया गया कि उन्हें क्या करना है। यही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने महत्वपूर्ण काम के लिए रेडक्लिफ को मात्र 5 सप्ताह ही दिये। यही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें क्षेत्रीय जानकारी एकत्रित करने का समय भी नहीं दिया था।
इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सर सिरिल जॉन रेडक्लिफ को हिन्दुस्तान के भूगोल की जानकारी बहुत कम थी। वे तो पहले कभी हिन्दुस्तान भी नहीं आये थे। 8 जुलाई 1947 को हिंदुस्तान पहुंचने के बाद उन्हें बताया गया कि उन्हें क्या करना है। यही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने महत्वपूर्ण काम के लिए रेडक्लिफ को मात्र 5 सप्ताह ही दिये। यही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें क्षेत्रीय जानकारी एकत्रित करने का समय भी नहीं दिया था।
भारत पाकिस्तान की भौगोलिक सीमारेखा है रेडक्लिफ! यह रेखा दरअसल इस्लामिक दंभ की सुवर्णरेखा है। यह रेखा वह जीवनदायिनी शक्ति है जिसके बल पर जुल्फिकार और हाफिज सईद जैसे लोग हिन्दुस्तान से हजार वर्ष तक चलने वाले जंग का ऐलान कर सकते हैं। यह रेखा परछाईं है शरणार्थी हिन्दुस्तानी औरतों की देह को बलत्कृत करते दानवों के तलवारों की! यह रेखा प्रतिध्वनि है म्लेच्छों के अट्टहासों की, जब आबरू और असबाब दोनों लूटे गए। यह रेखा अंग्रेज़ों का वह 'वन टर्म इंश्योरेंस' है जो गारंटी देता है कि कभी उसका उपनिवेश रहा हिंदुस्तान कहीं विश्व राजनीति में उससे आगे न निकल जाए।
इस रेखा की पृष्ठभूमि में निरन्तर प्रताड़ना अपमान और जिल्लत के 'प्रेशर कुकर' में उबलती भारतीय मानवी थी, 'सेफ्टी वाल्व' कांग्रेस थी, सूप पकने का इंतज़ार करती मुस्लिम लीग थी और फटेहाल अंग्रेज थे।
आजादी मिलना वैश्विक प्रक्रिया का एक हिस्सा भर थी जिसके दो ही कारक महत्वपूर्ण थे। एक द्वितीय विश्व युद्ध जिसने बरतानिया बाजार को सड़क पर ला दिया और दूसरा यह डर कि आजाद हिंद फौज के प्रति भारतीय सेना की बढ़ती सहानुभूति कहीं बड़े आंदोलन का रूप न ले ले। इसकी परिणतिस्वरुप माउंटबैटन दम्पति भारत आए।
म्लेच्छों की रणनीति को समझने में हम चूकते हैं। कुछ इतिहास मर्मज्ञों और आधुनिक शुतुर्मुर्गों का ऐसा सोचना है कि इस्लामिक आतंकवाद दक्षिणपंथ के उभार की प्रतिक्रिया है। तो यह जान लें कि सैंतालीस में वह पार्टी जिसकी स्थापना इटावा के कलेक्टर जो कभी साड़ी पहन जान बचा कर भागे 'पोप आफ इंडियन आर्निथोलाजी' ए ओ ह्यूम ने की थी वह कांग्रेस तब मुस्लिम लीग को दक्षिणपंथी लगती थी।
माउंटबेटन और रेडक्लिफ़ ने बँटवारे के मामले में बहुत जल्दबाज़ी दिखाई, पहले भारत की आज़ादी के लिए जून 1948 तय किया गया था, माउंटबेटन ने इसे खिसका कर अगस्त 1947 कर दिया जिससे भारी अफ़रा-तफ़री फैली और असंख्य लोगों की जानें गईं।
रेडक्लिफ को करीब 8.8 करोड़ लोगों के लगभग साढ़े चार लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का न्यायोचित ढंग से बंटवारा करना था। हर राज्य के आयोग में दो कांग्रेस और दो मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि भी थे, हालांकि अंतिम निर्णय रेडक्लिफ को ही करना था।
इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सर सिरिल जॉन रेडक्लिफ को हिन्दुस्तान के भूगोल की जानकारी बहुत कम थी। वे तो पहले कभी हिन्दुस्तान भी नहीं आये थे। 8 जुलाई 1947 को हिंदुस्तान पहुंचने के बाद उन्हें बताया गया कि उन्हें क्या करना है। यही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने महत्वपूर्ण काम के लिए रेडक्लिफ को मात्र 5 सप्ताह ही दिये। यही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें क्षेत्रीय जानकारी एकत्रित करने का समय भी नहीं दिया था।
बंटवारे की योजना को अमल में लाने का काम एक ऐसे आदमी के जिम्मे था जिसे भारत की भूराजनीतिक, सामाजिक और भौगोलिक स्थितियों का जरा भी अंदाजा नहीं था। इतना ही नहीं, रेडक्लिफ न तो कोई प्रशासक था न ही मानचित्रकार और न ही उसे तात्कालिक जनसांख्यिकी की ही कोई जानकारी थी।
फौरी तौर पर दो कमीशन बना दिए गए। पंजाब सीमा आयोग जिसमें कांग्रेस से जस्टिस मेहर महाजन और तेजा सिंह जबकि मुस्लिम लीग से दीन मोहम्मद और मोहम्मद ओमेर शामिल थे। उधर बंगाल सीमा आयोग में जस्टिस बी॰ के॰ मुखर्जी, सी॰ सी॰ बिस्वास कांग्रेस से और जस्टिस एस॰ रहमान और अबू सालेह मुस्लिम लीग की तरफ से शामिल थे। मजेदार कि इनमें से कोई भी जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं था। रेडक्लिफ दोनों कमिटी का चेयरमैन था।
खैर, बंटवारा चाहता कौन था ? कितने हिन्दू हैं जो बंटवारे से दुखी हैं ? कितने मुसलमान बंटवारे से दुखी हैं ? फ्रांसिस रॉबिनसन और वेंकट धुलिपाला ने लिखा है कि "यूपी के ख़ानदानी मुसलमान रईस और ज़मींदार समाज में अपनी हैसियत को हमेशा के लिए बनाए रखना चाहते थे" और उन्हें लगता था कि हिंदू भारत में उनका पुराना रुतबा नहीं रह जाएगा।
समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने अपनी किताब 'गिल्टी मेन ऑफ़ पार्टिशन' में लिखा है कि कई बड़े कांग्रेसी नेता जिनमें नेहरू भी शामिल थे वे सत्ता के भूखे थे जिनकी वजह से बँटवारा हुआ परंतु इस्लामिक साम्प्रदायिकता इस लालच से भी बहुत बड़ी थी।
नामी-गिरामी इतिहासकार बिपिन चंद्रा ने तो विभाजन के लिए सीधे मुसलमानों की सांप्रदायिकता को ज़िम्मेदार ठहराया है।
क्रमशः