क्षेत्रीयता के झगड़ों के बीच

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क्षेत्रीयता, अरब, इस्लाम, बिहार, पंजाब, हिन्द, कार्ल मार्क्स मुग़ल बादशाह, मुस्लिम, ईसाई, राम, कृष्ण, सुभाष, भगत सिंह, उधमसिंह, करतार सिंह सराभा आर्यभट्ट, वराहमिहिर, चन्द्रगुप्त, माँ जानकी, बौद्ध, जैन,  ख�क्षेत्रीयता और जातियों में बटे हिंदुओं की मिटती पहचान

आज जबकि हम हिन्दू हर प्रकार से सक्षम होते हुए भी अपने भाग्य-सूर्य को अस्तालाचलगामी होते हुए देखने को अभिशप्त हैं तो ऐसे में यह प्रश्न आज पुनः विचारणीय हो गया है कि 'दुनिया ने आजतक हमें किस रूप में देखा, जाना और माना है'। इसका उत्तर एक ही है कि दुनिया ने हमें सिर्फ और सिर्फ भारतीय और हिन्दू रूप में पहचाना और माना है।

अरब के मरुभूमि में हुये इस्लाम के संस्थापक ने जब हमारी बात की तो ये नहीं कहा कि मुझे बिहार से या पंजाब से मारिफ्त की भीनी खुशबू आती है बल्कि ये कहा कि मुझे हिन्द से मारिफ्त की खुशबू आती है। कार्ल मार्क्स जब हमें समझने निकले तो उन्होंने लिखा कि मुग़ल बादशाहों के हिन्दुकरण की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी, उन्होंने इसे मुग़ल बादशाहों का ब्राह्मणीकरण, क्षत्रियकरण या वैश्यीकरण होना नहीं कहा बल्कि हिन्दुकरण शब्द का प्रयोग किया, यानि उन्होंने मुग़ल बादशाहों के परिवतर्न को उनके हिन्दुकरण रूप में पहचाना। लादेन ने जब हमें धमकी दी तो उसने कहा कि 'हिन्दू इंडिया' के खिलाफ मेरा जेहाद है। यहाँ बीस फीसद मुस्लिम तथा दो फीसद ईसाई आबादी होने के बाबजूद हमारे लिये वो कोई और शब्द नहीं ढूंढ सका।

मतलब ये है कि हम सिर्फ भारतीय हैं और हिन्दू हैं, हमारी सनातन पहचान यही है। और ऐसा नहीं है कि ये पहचान हमें आज मिली है। हमारी यह पहचान तब से है जब भगवान भास्कर ने धरती पर अपनी पहली किरण बिखेरी थी। इस पहचान को समय-समय पर इस पावन धरा पर जन्में ऋषि-मुनियों ने, अवतारों ने और महापुरुषों ने अक्षुण्ण रखा। आदिकाल से ही हमारा यह देश, हमारी यह हिन्दू-भूमि तीर्थाटन, पवित्र नदियाँ और देवतुल्य सागर और पर्वतों के माध्यम से एक सूत्र में गुथा हुआ है। मुनि अगस्त ने इस भूमि को एक रखने के लिए उत्तर से दक्षिण तक की यात्रा की, तमिल भाषा सीखा। राम ने वनगमन का कष्ट उठाया ताकि उत्तर और दक्षिण भारत एक रहे। राम के पुत्र लव अपने पैतृक राज्य से सैकड़ों-हजारों मील दूर गये और वहां लवपुर (लाहौर) शहर बसाया। कृष्ण अरुणाचल होते हुए असम, नगालैंड और मणिपुर तक गये, वहां वैवाहिक संबंध जोड़े ताकि पश्चिम से पूरब तक भारत की एकता अक्षुण्ण रहे। आदिगुरु शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों पर मठ स्थापित कर इस काम को आगे बढ़ाया। सिख गुरुओं ने इसी के लिए अपने सर कटवाए तो आजादी की लड़ाई में सुभाष, भगत सिंह, आजाद ने बलिदान दी।

हमारा दुर्भाग्य ये है कि दुनिया हमें हिन्दू और भारतीय नाम से जानती रही और हमने खुद को जाति, भाषा, नस्ल और क्षेत्रीयता की संकीर्ण परिधि में बाँध लिया।

सिख गुरुओं की वीरता, भगत सिंह, उधमसिंह, करतार सिंह सराभा और उन जैसे अनगिनत सिखों के बलिदान को भूल गये और हमने सिखों के ऊपर चुटकुले बनाने शुरू कर दिया। हम भूल गये कि बिहार की धरती पर आर्यभट्ट, वराहमिहिर, चन्द्रगुप्त, माँ जानकी ने जन्म लिया था, वीर कुंवर सिंह जन्में थे, दुनिया का पहला लोकतंत्र अस्तित्व में आया था, भारत के तीन महान पंथों (बौद्ध, जैन और खालसा) का जन्म हुआ था और हमने बिहार और बिहारी को गाली रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिये, जिस असम की पावन धरती पर वैष्णव पंथ और कृष्ण भक्ति की धारा बहाने वाले श्रीमंत शंकरदेव जन्में थे, जहाँ लाचित बरफुकन जैसा वीर सेनापति हुए थे उस असम और उधर के लोगों को हमने चिंकी कहकर अपमानित किया। जिस बंगाल से भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के सबसे अधिक सेनानी और नायक निकले, जहाँ सबसे अधिक नोबेल विजेताओं ने जन्म लिया उन बंगालियों को हमने निकम्मा और बुजदिल की उपमा दी। जिस दक्षिण भारत में भारत के सबसे सुंदर मंदिर है, जिनके पास सबसे उत्कृष्ट साहित्य है, तमिल जैसी गौरवशाली भाषा है, उनलोगों के रंग को लेकर उनका मजाक बनाया और दक्षिण भारतीय भाषाओँ के लिए ये तक कह दिया कि एक खाली बर्तन में कंकर डाल के हिलाओ तो जो स्वर निकलता है वही दक्षिण भारतीय भाषा है।

यानि हमने अपनी सारी बुद्धि ये साबित करने में लगा दी कि ये ब्राह्मण है तो ऐसा होगा और वो क्षत्रिय है तो वैसा होगा। जाटों को मोटा दिमाग वाला, बनियों को धूर्त, शूद्रों को अभिशप्त और लाला को अर्ध मलेच्छ साबित करने में ही हमने अपनी बुद्धि खपाई। हम अपनी बुद्धि की क्षुद्रता में इतने नीचे चले गये कि हमने संघ के सरसंघचालक को ब्राह्मण बना दिया, राणा प्रताप राजपूत हो गये, गांधी बनिया थे और रैदास सिर्फ वंचितों के लिए थे।

हमें समझना पड़ेगा कि अगर अगर बिहार वाले ने जंगलराज और दिल्ली वाले ने अराजकता को चुना है तो उनको गाली देना और कोसना समाधान नहीं है बल्कि ये सोचने की जरूरत है कि ये सिर्फ उनका दुर्भाग्य नहीं है बल्कि सारे भारत और सारे हिन्दू समाज का दुर्भाग्य है क्योंकि वहां से निकली और शक्तिशाली हुई देशविरोधी शक्तियों की काली छाया आज नहीं तो कल पूरे भारत को घेर लेगी।

सौभाग्य से वर्तमान काल हिन्दू पुनर्जागरण का काल है क्योंकि शायद हिन्दू समाज जीवन के सुदीर्घ इतिहास में हमारी पीढ़ी अपने धर्म और अपने देश के लिए सोचने वालों में सबसे अग्रणी है। इसलिए आशा का दीपक बुझा नहीं है। महर्षि अरविन्द के शब्द निरंतर स्मरण करते हुए सकारात्मक उर्जा के साथ राष्ट्र और धर्म रक्षा में संलग्न होना ही आज एकमात्र रास्ता है, अपनी पीढ़ी को हमें समझाना होगा कि भारत और हिन्दू होने का अर्थ क्या है और भारतीय और हिन्दू होने के नाते हमारी जिम्मेदारियाँ क्या है। प्रांत, क्षेत्र, जाति, भाषा, नस्ल आदि की संकीर्णता से सम्पूर्ण मुक्ति ही अब हमारे अस्तित्व को बचाए रखेगा और अगर हमने अब भी ऐसा नहीं किया तो फिर हमारे अतीत के पाप इतने ज्यादा हैं कि बिष्णु अगर कल्कि रूप में भी अवतरित हो जायें तो भी हमारे विनाश को रोक नहीं पायेंगे।

महर्षि अरविन्द के शब्द थे -

"अतएव जब यह कहा जाता है कि कि भारतवर्ष उठेगा तो उसका अर्थ होता है - हिन्दू धर्म, सनातन धर्म ऊपर उठेगा। जब यह कहा जाता है कि भारत वर्ष महान होगा तो उसका अर्थ होता है कि सनातन धर्म महान होगा। जब यह कहा जाता है कि भारतवर्ष बढ़ेगा और फैलेगा तो इसका अर्थ होता है कि सनातन धर्म बढ़ेगा और संसार पर छा जाएगा। धर्म के लिए और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व है"

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