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"आरती मलहोत्रा नाम था मेरा, शादी के बाद आरती मोहम्मद हो गया।" ओह रियली, तापसी? दैट्स ऑल? बस इतना ही? मुझे तो लग रहा था कि तुम कुछ ऐसा कहोगी कि शादी के बाद लड़कियां पति का नाम अपने नाम में क्यों जोड़ें? क्यों नहीं? जो लड़की "पिंक" में यह कह सकती है कि "ना" का मतलब "ना", उससे तो हमें यही उम्मीद करनी चाहिए ना। किंतु "पिंक" में "ना" कहने वाली तापसी पन्नू अब कहती है- "शादी के बाद मैं आरती मोहम्मद बन गई।"
"आरती मलहोत्रा नाम था मेरा, शादी के बाद आरती मोहम्मद हो गया।" ओह रियली, तापसी? दैट्स ऑल? बस इतना ही? मुझे तो लग रहा था कि तुम कुछ ऐसा कहोगी कि शादी के बाद लड़कियां पति का नाम अपने नाम में क्यों जोड़ें? क्यों नहीं? जो लड़की "पिंक" में यह कह सकती है कि "ना" का मतलब "ना", उससे तो हमें यही उम्मीद करनी चाहिए ना। किंतु "पिंक" में "ना" कहने वाली तापसी पन्नू अब कहती है- "शादी के बाद मैं आरती मोहम्मद बन गई।"
"यू कैन स्किप दिस इफ़ यू वॉन्ट" : तापसी पन्नू का वह विज्ञापन इन शब्दों के साथ शुरू होता है, और उसके ख़त्म होते होते आप वाक़ई यही सोचते हैं कि सचमुच हमें इसको स्किप कर देना चाहिए था।
क्यों? क्योंकि तापसी ने उस विज्ञापन में जो बोला, वो अगर निहायत बेवक़ूफ़ाना होता तो कोई बात नहीं थी। क्योंकि बेवक़ूफ़ी कौन-सी दुर्लभ चीज़ है? हम बेवक़ूफ़ियों की बाढ़ से घिरे हुए हैं। वॉट्स बिग डील। लेकिन आपको उसे इसलिए स्किप कर देना चाहिए, क्योंकि वो एक बहुत बहादुरी के साथ दिखाई गई बेवक़ूफ़ी थी। नाऊ, अब ये नई चीज़ है। एक ऐसी बेवक़ूफ़ी, जिसका प्रदर्शन करते समय बेवक़ूफ़ी करने वाले को लग रहा था कि वो कोई बहुत महान काम कर रहा है।
लेकिन, जैसा कि ज़ाहिर है, मैंने उस विज्ञापन को "स्किप" नहीं किया, और आख़िर तक देख ही डाला।
यहीं से "आरती मोहम्मद" के दुर्भाग्य की शुरुआत हुई।
"एक सवाल है मेरा, चाहें तो सुन लीजिए" - तापसी पन्नू कुछ ऐसी आत्मविश्वास से भरी देहभाषा के साथ बोलती है, मानो अगले ही पल कोई बहुत बड़ी रेवोल्यूशन होने वाली है, लेकिन होता क्या है?
"आरती मलहोत्रा नाम था मेरा, शादी के बाद आरती मोहम्मद हो गया।"
ओह रियली, तापसी? दैट्स ऑल? बस इतना ही? मुझे तो लग रहा था कि तुम कुछ ऐसा कहोगी कि शादी के बाद लड़कियां पति का नाम अपने नाम में क्यों जोड़ें? क्यों नहीं?
जो लड़की "पिंक" में यह कह सकती है कि "ना" का मतलब "ना", उससे तो हमें यही उम्मीद करनी चाहिए ना।
किंतु "पिंक" में "ना" कहने वाली तापसी पन्नू अब कहती है- "शादी के बाद मैं आरती मोहम्मद बन गई।"
वॉव, टॉकिंग अबाउट इनकंसिस्टेंसी।
क्यों भाई, शादी के बाद तुम आरती मोहम्मद क्यों बनीं?
भेड़ हो? बकरी हो? आलू की बोरी हो? जूतियों पर चिपका कोई प्राइस टैग हो? क्या हो?
तुम शादी के बाद मलहोत्रा से मोहम्मद क्यों बनीं, मोहम्मद क्यों तुमसे शादी करके मलहोत्रा नहीं बना?
गिरी-पड़ी हो? गई-बीती हो? डेस्पेरेट हो? रेशियली इनफ़ीरियर हो क्या? क्या हो?
नहीं, लेकिन बात इतनी भर नहीं थी कि आरती मलहोत्रा शादी करने के बाद भी आरती मलहोत्रा नहीं रही। बात यह थी कि आरती मलहोत्रा शादी के बाद ग़ुलामों की तरह ना केवल आरती मोहम्मद बन गई, बल्कि वो यह भी एक्सपेक्ट करने लगी कि इसको "एप्रिशिएट" किया जाए।
बॉडी लैंग्वेज। वॉव। ऐसा मालूम हुआ जैसे स्त्रीमुक्ति अगले चौराहे पर खड़ी है, जो 29 सेकंड की वह बक़वास ख़त्म होते ना होते स्त्रियों को प्राप्त हो जाएगी, जबकि बेहतर होता कि उसको हम "स्किप" कर देते।
आरती मलहोत्रा आरती मोहम्मद क्यों बनेगी?
ये एक ऐसा सवाल है, जो दसों दिशाओं से गूंजना चाहिए।
आरती मलहोत्रा किसी मुस्लिम के प्रेम में पड़ जाए, इट्स ओके। प्यार अंधा होता है। लेकिन आरती मलहोत्रा मुस्लिम से ब्याह करने के बाद आरती मोहम्मद बन जाए। व्हाय? प्यार क्या हीनताग्रंथि से भी भरा होता है?
"आई कैन फ़ील द डिफ़रेंस नाऊ" - आगे वे कहती हैं।
ऑबवियसली, वॉट एल्स यू वॉज़ एक्सपेक्टिंग? कि लोग आपको फूलमाला पहनाएंगे?
सुदूर पैसिफ़िक ओशन के ऊपर उड़ रहा एक हवाई जहाज़ एक ख़ास नाम को सुनते ही सिहर उठता है। यह कहानी बीजेपी आईटी सेल ने नहीं गढ़ी है। वॉट एल्स यू वॉज़ एक्सपेक्टिंग?
"अगर मैं आरती कपूर होती तो यह नहीं होता ना?"
बिलकुल नहीं होता। क्यों होता?
शायर क़मर जलालाबादी का ओरिजिनल नाम ओमप्रकाश भंडारी था। उनको लगा कि ओमप्रकाश भंडारी के नाम से शायरी नहीं जमेगी। इस नाम से चुनाव लड़ा जा सकता है, शायरी नहीं की जा सकती। लिहाज़ा उन्होंने अपना नाम कर लिया- क़मर जलालाबादी। फ़ाइन।
लेकिन ओमप्रकाश भंडारी नाम से टेररिज़्म भी नहीं होता, यह भी सच है। यहां पर मैं जरायमपेशा कॉटेज इंडस्ट्री टेररिज़्म की बात नहीं कर रहा हूं, मास स्केल वाले ग्लोबल टेररिज़्म की बात कर रहा हूं, जिसकी छाती में बड़े बड़े तमगे जड़े हुए हैं। और शान से जड़े हुए हैं।
"आरती कपूर होती तो नहीं होता ना?" बिलकुल नहीं होता। क्योंकि, बैरूत या बग़दाद, पेशावर या पठानकोट, लंदन या लास एंजेलेस, ब्रसेल्स या बार्सीलोना में कभी कोई आतंकी वारदात होती है तो पकड़ाए गए संदिग्धों के नाम में पांडे, मिश्रा, शुक्ला, दुबे, कपूर इत्यादि कभी लगा नहीं होता।
ये पांडे, मिश्रा, शुक्ला, दुबे, कपूर यहां फ़ेसबुक पर बौद्धिकक घात-प्रतिघात और गाली-गलौज ही करते पाए जाते हैं, ये कहीं हमला-वमला नहीं करते।
बिटर बट ट्रुथ। क्या करें? यही सच है। कड़वा सच है। सुनने में बुरा लगता है, लेकिन इस कैटेगरी के नाम वाले ना शायर होते हैं ना दहशतगर्त। उस कैटेगरी वाले होते हैं। नो ऑफ़ेन्स। कोई पर्सनल कमेंट नहीं कर रहा, जस्ट प्लेन ऑब्जेक्टिव रियल्टी। हमारे भीतर गट्स होने चाहिए कि रियल्टी को एक्सेप्ट करें।
मिस आरती मलहोत्रा, तुम दुनिया से पूछ रही हो कि मैं आरती मोहम्मद के बजाय आरती कपूर बनती तो क्या होता?
और मैं तुमसे पूछ रहा हूं कि तुम अगर आरती मलहोत्रा ही रहतीं तो कोई प्रॉब्लम है क्या?
ये नाम कितना ख़ूबसूरत है- आरती मलहोत्रा।
ये नाम तुम्हारी पहचान है। ये तुम्हारे दस्तावेज़ों पर दर्ज है। ये नाम तुम्हारे माता-पिता ने रखा था। इस नाम से तुम्हें पुकारा जाता था।
तुम कविता लिखो और नाम बदलना चाहो तो कोई हर्ज़ नहीं। लेकिन प्लीज़, शादी करके नाम मत बदलो। और बदलो तो उसको लेकर भीतर तक एम्बैरेसमेंट से भर जाओ, यूं यूट्यूब पर आकर प्रिटेंड मत करो कि तुमने कोई बहुत महान काम कर दिया है।
सच तो ये है, डियर तापसी, कि तुमने उन तमाम लड़कियों को "लेट डाउन" कर दिया है, जिन्होंने "पिंक" देखने के बाद तुमसे उम्मीद लगाई थी कि अब तुम इसी रौ में काम करोगी। बट यू वर नॉट कंसिस्टेंट। योर ब्रेनवेव इज़ टोटल केऑस राइट नाऊ, इट गोज़ ज़िगज़ैग। अपनी ज़ेहनियत को "स्ट्रीमलाइन" करो। नहीं भी करो तो क्या है?
लेकिन सच तो यही है, डियर तापसी मोहम्मद, कि तुम चाहतीं तो इसको "स्किप" कर सकती थीं।