क्या सीमांचल में AIMIM की जीत विभाजन की मानसिकता की आहट है !!!

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क्या सीमांचल में AIMIM की जीत विभाजन की मानसिकता की आहट है !!!
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मज़हबी कट्टरता या पृथक पहचान की राजनीति देश के लिए अच्छी नहीं।

एआईएमआईएम के जीतकर आए विधायकों ने शुरुआत में ही अपने रंग दिखाने प्रारंभ कर दिए हैं। उन्हें वंदे मातरम बोलने और गाने से तो परहेज़ था ही, अब विधानसभा के शपथ-ग्रहण-समारोह में हिंदुस्तान बोलने से भी है।

उधर राजनीतिक पंडितों द्वारा बिहार चुनाव के परिणामों का आकलन-विश्लेषण अभी भी ज़ारी है। अपनी-अपनी समझ के मुताबिक चुनावी नतीज़ों के तमाम निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं। सीमांचल में असदुद्दीन ओवैसी के दल ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) को मिली अप्रत्याशित सफलताओं ने इन पंडितों का सबसे अधिक ध्यान खींचा है।

महागठबंधन का खेल बिगाड़ने का ठीकरा उनके सिर ही फोड़ा जा रहा है। सेकुलरिज्म के झंडाबरदार उन्हें दिन-रात कोसने में लगे हैं। कुछ तो चिराग पासवान की तरह बीजेपी से साँठ-गाँठ का उन पर आरोप भी लगा रहे हैं। जितने मुँह, उतनी बातें। अंदरखाने की बातें लाल बुझक्कड़ जानें, पर इतना तय है कि उनकी इस जीत ने अतीत से लेकर भविष्य तक की राजनीति पर नए सिरे से सोचने पर विवश किया है। नई-नई चर्चाओं को जन्म दिया है।

बिहार चुनाव में मिली इस आशातीत सफलता से ओवैसी भी उत्साहित हैं। इस उत्साह में वे न केवल पहले से अधिक आक्रामक और मुखर हुए हैं, बल्कि उन्होंने पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश में स्वतंत्र चुनाव लड़ने का ऐलान कर अपना सियासी इरादा ज़ाहिर कर दिया है। उनकी इस घोषणा ने सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण की संभावनाओं को बल दिया है। राजनीतिक फ़ायदे-नुकसान से परे ओवैसी की यह जीत तमाम अनुत्तरित सवाल खड़े करती है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुसलमानों के हितों एवं सरोकारों को हर मंच पर बढ़ा-चढ़ाकर उठाने वाली पार्टियों की उपस्थिति के बावजूद सीमांचल के मुसलमानों ने ओवैसी को ही क्यों चुना?

क्या उन्होंने मान लिया कि मुसलमानों के बीच से उभरा नेतृत्व ही उनकी समस्याओं का स्थाई समाधान दे सकता है? या फिर मुस्लिम मतदाता आज भी विकास या सेकुलरिज्म से अधिक महत्त्व मज़हब को प्रदान करता है और उसी आधार पर अपने मतों का फ़ैसला करता है?

यदि ओवैसी दशकों या वर्षों से सीमांचल की राजनीति में सक्रिय होते तो पहला तर्क सही ठहरता। पर बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, चिकित्सा जैसे विकास के बुनियादी मुद्दों पर अब तक ओवैसी और उनकी पार्टी ने वहाँ कौन-सा बड़ा काम करके दिखाया है? या कौन-सा बड़ा विजन दिया है?

सच यही है कि वे अब तक आक्रामक सामुदायिक पहचान की राजनीति करते आए हैं और सीमांचल के मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी उन्होंने वही किया।

ऐसे में वर्षो से सक्रिय एवं उपलब्ध स्थानीय जनप्रतिनिधियों एवं क्षेत्रीय-राष्ट्रीय दलों पर भरोसा न जताकर ओवैसी की ओर वहाँ के मुस्लिम मतदाताओं का एकतरफ़ा झुकाव साबित करता है कि उनके लिए आज भी उनकी सामुदायिक एवं पृथक पहचान ही सबसे बड़ा मुद्दा है, विकास या अन्य सभी मुद्दे गौण।

ग़ौरतलब है कि सीमांचल के पूर्णिया की अमौर सीट पर अब तक कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान पिछले 36 सालों से विधायक थे। इस बार उन्हें सिर्फ़ 11 फ़ीसद वोट मिले हैं, जबकि एआईएमआईएम के अख़्तर-उल-ईमान ने 55 फ़ीसद से अधिक मत हासिल कर सीट अपने नाम की है।

बहादुरगंज सीट पर कांग्रेस के तौसीफ़ आलम पिछले सोलह सालों से विधायक थे। इस बार उन्हें दस फ़ीसद मत ही मिले हैं, जबकि एआईएमआईएम के अंज़ार नईमी ने 47 फ़ीसद से अधिक मत हासिल कर ये सीट जीती है।

अन्य तीन सीटों पर भी लगभग ऐसी ही कहानी है। सालों के आजमाए हुए नेताओं को छोड़कर बिलकुल नए दल एवं नेताओं पर ऐसा भरोसा दिखाना मामूली-सा सियासी वाक़या नहीं समझा जाना चाहिए। "इसके गहरे सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थ हैं"।

AIMIM की इस जीत के साये मे एक बड़ा और गंभीर सवाल पैदा होता है। क्या सामुदायिक पहचान या मज़हबी कट्टरता की राजनीति देश की सेहत के लिए उचित और अच्छी कही जा सकती है?

क्या हम विभाजन के इतिहास से परिचित नहीं। क्या उसे भुला पाना इतना आसान है?

मुस्लिम लीग ने पृथक पहचान की इस भावना को खाद-पानी देकर ही तो विभाजन की विषबेल को सींचा था। क्या हम स्वतंत्रता-पूर्व के इस दुखती रग को भूल से भी पुनः छेड़ना चाहेंगें?

पृथक पहचान के इस राजनीतिक जिन्न से इतिहास-बोध रखने वाले प्रबुद्ध जन इसलिए भी आतंकित और आशंकित हैं क्योंकि हैदराबाद की यह पार्टी मजलिसे-मुस्लीमीन अपने स्थापना-वर्ष 1927 से ही मुस्लिम डोमिनियन की राग अलापती रही है। यह ख़ुद को प्रो-निज़ाम पार्टी कहती रही है। इसके नेता सैयद क़ासिम रिज़वी पूर्वी पाकिस्तान की तर्ज़ पर हैदराबाद को भी दक्षिणी पाकिस्तान के रूप में देखने का ख़्वाब सँजोते रहे थे।

वह तो वर्ष 1948 में हैदराबाद के भारत में विलय के पश्चात मजलिस पर पाबंदी लगा दी गई, अन्यथा वह उसी विभाजनकारी लीक पर चलती रहती।

1957 में रिज़वी जिस अब्दुल वहाद ओवैसी को मजलिस का उत्तराधिकार सौंपकर पाकिस्तान चले गए, क्या उन्होंने या फिर उनके बेटे सलाहुद्दीन ओवैसी या उनके बेटे असदुद्दीन ओवैसी ने कोई नई शुरुआत करते हुए मुस्लिमों के भीतर उदार एवं व्यापक सुधारवादी आंदोलन चलाए और उसके आधार पर उनका भारी समर्थन हासिल किया? या वे मुस्लिम समाज के कुछ तबकों में पैठी पृथक सामुदायिक चेतना को ही बार-बार उभारकर सत्ता की मंज़िल तय करते रहे?

उत्तर आईने की तरह बिलकुल साफ़ है।

सच यही है कि इन ओवैसियों ने हमेशा मज़हबी कट्टरता को राजनीतिक औज़ार (टूल) के रूप में इस्तेमाल किया, जो आज के आधुनिक, तकनीकी एवं विकासोन्मुखी दौर में कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता। ये अपनी क़ानूनी विशेषज्ञता एवं वक्तृत्व कला का उपयोग भी पृथकतावादी भावनाओं को भड़काने में ही करते रहे हैं और इसके आधार पर अपनी राजनीति चमकाते रहे हैं।

सीमांचल में उनकी क़ामयाबी के बाद एक गंभीर सवाल तमाम चुनावी विश्लेषकों से भी बनता है। पता नहीं वे किस आधार पर ओवैसी को मिले वोटों को सेकुलर वोट कह-कहकर संबोधित कर रहे हैं? क्या वे कहना चाहते हैं कि बहुसंख्यकों का मत सांप्रदायिक मत होता है? यदि नहीं तो उन्हें ओवैसी को मिले मुस्लिम मतदाताओं के मत को सेकुलर वोट कह-कहकर संबोधित करना तत्काल बंद करना चाहिए।

यह आम-निष्पक्ष मतदाताओं का सीधा-सीधा अपमान है।

हाँ, यह सच है कि विभाजन के घाव इतने गहरे और स्थाई हैं कि ओवैसी जैसों को जितनी क़ामयाबी मिलेगी भाजपा के पक्ष में हिंदू मतों का भी उतना ही तीव्र ध्रुवीकरण होगा। जो कम-से-कम विकास के मुद्दे को तो अवश्य पीछे धकेल देगा।

अतः यह समाज एवं देश के हित में होगा कि हम खंडित अस्मिताओं की राजनीति के बजाय समग्र एवं सर्वसमावेशी विकास की राजनीति को प्राथमिकता दें।

दुनिया की हर लोकतांत्रिक व्यवस्था कट्टरता से परेशान और पस्त है। पृथक पहचान या मजहबी कट्टरता के आधार पर बने दलों ने दुनिया के किसी हिस्से में सर्वसमावेशी विकास का कोई मॉडल आज तक नहीं खड़ा किया है।

पृथक पहचान के आधार पर अस्तित्व में आए मुल्कों के मुसलमानों की दशा पर भारत के मुसलमानों को भी एक बार अवश्य गौर करना चाहिए। ऐसा करते ही उन्हें दिखाए जा रहे कथित जन्नत की हक़ीक़त अपने-आप समझ आ जाएगी।

उन आक्रामक एवं उत्तेजक नारों का खोखलापन समझ आ जाएगा।

अव्वल तो ऐसा होना नहीं चाहिए, पर यदि भाजपा के समर्थक या रणनीतिकार ओवैसी की सफलता में अपनी सफलता और भविष्य देख रहे हों तो उनके लिए तो यह आत्मघाती सिद्ध होगा ही होगा, राष्ट्र के लिए भी यह कम घातक नहीं होगा।

सनद रहे कि तुष्टिकरण और सांप्रदायिकता की राजनीति अंततः समाज, राष्ट्र और मनुष्यता पर भारी पड़ती है। अखंडित एवं समग्र राष्ट्रीयता (विविधतायुक्त) की भावना से जोड़ने वाली राजनीति ही सभी दलों का ध्येय एवं अभीष्ट होना चाहिए।

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