गुरू गोविंद सिंह जी का खालसा "तब और अब"
तारीख़ तो ये है कि गुरूजी के शिष्यों की दोनों टोली खालसा थी, निर्मल थी मगर चूँकि अलगाववादी मानसिकता पंजाब में हावी रही तो आज गुरूजी द्वारा रोपे गये दो पौधों में से केवल एक के बारे में दुनिया जानती है और दूसरे को केवल पृथकता और विभेद दिखाने के लिये चर्चा से भी बाहर कर दिया गया। कुंभ में निर्मल अखाड़ों के तत्वाधान में सिख सैनिकों के द्वारा कुंभ स्नान की घटनाएं ज्यादा पुरानी नहीं है पर अब सब बदल गया है।
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तारीख़ तो ये है कि गुरूजी के शिष्यों की दोनों टोली खालसा थी, निर्मल थी मगर चूँकि अलगाववादी मानसिकता पंजाब में हावी रही तो आज गुरूजी द्वारा रोपे गये दो पौधों में से केवल एक के बारे में दुनिया जानती है और दूसरे को केवल पृथकता और विभेद दिखाने के लिये चर्चा से भी बाहर कर दिया गया। कुंभ में निर्मल अखाड़ों के तत्वाधान में सिख सैनिकों के द्वारा कुंभ स्नान की घटनाएं ज्यादा पुरानी नहीं है पर अब सब बदल गया है।
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दुनिया इतना तो जानती है कि जब धर्म और राष्ट्र खतरे में था तब दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने भक्ति, करुणा और सेवा भावी सिखों को अजेय खालसा सैनिक में बदल दिया था पर गुरू गोविंद सिंह जी का एक बहुत बड़ा योगदान और है जिससे प्रायः लोग अनभिज्ञ हैं।
गुरू गोविंद सिंह जी दस गुरुओं में अकेले थे जो संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और हिन्दू धर्मग्रंथों का उन्हें गहरा अध्ययन था, सैनिक वृति के तो वो थे ही। तो जब धर्म के रक्षा की बात आई तो गुरूजी ने दोनों मोर्चे यानि समाज के आध्यात्मिक और नैतिक विकास तथा सैन्यीकरण दोनों ओर काम किया।
रक्त चंडी का आवाहन कर उन्होंने "खालसा" सजाया। "खालसा" का अर्थ है ख़ालिस अर्थात् विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला निष्कलंक व्यक्ति। खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सन 1699 को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की थी और इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पाँच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया था।
एक तरफ जहाँ उन्होंने खालसा सजा कर धर्म-रक्षा का बंदोबस्त किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने लोगों के आध्यात्मिक उन्नति के लिये भी उपाय किये। गुरू गोविंद सिंह जी स्वयं संस्कृत के विद्वान् थे और उनकी इच्छा था कि शेष समाज भी इस देव भाषा को सीखे और इसी उद्देश्य से उन्होंने एक संस्कृत विद्वान् पंडित रघुनाथ से एक संस्कृत विद्यालय खोलने का अनुरोध किया पर जब पंडित रघुनाथ ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता जताई तब गुरूजी ने यहाँ भी पंच प्यारों की तरह "पाँच" लोग खोज निकाले जिनके नाम थे वीर सिंह, गंडा सिंह, राम सिंह, करम सिंह और सैना सिंह और इन पाँचों से कहा कि वेदों का ईश्वरीय ज्ञान तभी बचेगा जब देवभाषा संस्कृत बचेगी इसलिये तुम सब काशी चले जाओ और जाकर देवभाषा संस्कृत सीखो।
गुरूजी के आदेश पर ये सब काशी गये, संस्कृत सीखा और वापस लौटकर आनंदपुर साहिब आये और आने के बाद गुरू के पास गये तो गुरू जी ने उन्हें सिख निर्मले (यानि शुद्ध, ख़ालिस, पवित्र, निष्कलंक) कहकर पुकारा और वहीं से निर्मल पंथ चला। इन निर्मल सिखों ने संस्कृत ग्रंथों को पंजाबी में अनुवादित कर जन-जन तक पहुँचाया, सिख इतिहास के ऊपर सबसे अधिक काम निर्मलों ने किये और गुरुबाणी के पवित्र संदेश को दुनिया भर में फैलाया और गुरुओं के मार्गदर्शन से शिक्षा, सेवा और सत्कार के पावन काम में निरंतर जुटे हुये हैं लेकिन आज उन्हें कोई क्रेडिट देने को तैयार नहीं है। क्रेडिट तो दूर उल्टा ये कहना शुरू हो गया है कि ये काहे के सिख?
तारीख़ तो ये है कि गुरूजी के शिष्यों की दोनों टोली खालसा थी, निर्मल थी मगर चूँकि अलगाववादी मानसिकता पंजाब में हावी रही तो आज गुरूजी द्वारा रोपे गये दो पौधों में से केवल एक के बारे में दुनिया जानती है और दूसरे को केवल पृथकता और विभेद दिखाने के लिये चर्चा से भी बाहर कर दिया गया। कुंभ में निर्मल अखाड़ों के तत्वाधान में सिख सैनिकों के द्वारा कुंभ स्नान की घटनाएं ज्यादा पुरानी नहीं है पर अब सब बदल गया है।
ये तो इतिहास है जिसे दुनिया को कभी खुलकर बताया ही नहीं गया। कुछ महीने पहले इसी अलगाववादी मानसिकता से आहत किसी का आलेख पढ़ रहा था जिसने अपने दर्द को साँझा करते हुये लिखा था :-
"हिंदुओ के कट्टरवाद का झूठा हवाला देकर सिखी के अस्तित्व मिटाने की फ़र्ज़ी कहानियाँ गढ़ते-गढ़ते हम अलगाववाद के उस अंधे कुएँ में कूद पड़े हैं जहाँ केवल विखंडन के शोले बिछे हुये हैं, खुद को हिंदुओ से अलग दिखाने की सनक में हमने अपनी सिक्खी के अंदर के ही निर्मल और सहजधारी सिखों से घृणा के रोज नये कीर्तिमान बना रहे हैं।"
अभी कुछ दिन पहले नवजोत सिंह सिद्धू के द्वारा यज्ञ, हवन करवाये जाने की खबरें आने के बाद कट्टरपंथी जमात आगबबूला हो गया था। अब उन्हें कौन बताये कि पवित्र खालसा सजाने के एक साल पहले गुरु गोविंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में चार महीने तक यज्ञ किया था, स्वयं उनके द्वारा नैना देवी के मंदिर में यज्ञ-हवन करने की बात मौजूद है मगर अगर किसी ने इतिहास को ही झुठलाने की कसम खा रखी है तो फिर क्या कहा जाये। गुरुजी ने ये भी कहा था कि मैंने गऊ की रक्षा के लिए कृपाण उठाई है मगर जो नया उन्माद शुरू हुआ है उसे ये कहने में लज़्ज़ा नहीं आती कि "गऊ का मांस खाएंगे हिन्दू नहीं कहायेंगे'।
फेसबुक पर हिंदुओं के अंदर के अलग-अलग मत-पंथों की एकता की जरूरत के मेरे विचारों से सहमत एक जैन लड़की ने मुझसे कहा था, "सर ! मैं आधी हिन्दू और आधी जैन हूँ " तब मैनें उसे सुधारते हुए कहा था कि ये कहो कि "मैं पूरी हिन्दू हूँ और आप पूरे जैन हैं"।
भारतीय पंथबलम्बियों के बीच एकता का सूत्र यही है कि हम पूरे सिख, पूरे जैन, पूरे बौद्ध हैं और इसी तरह वो भी पूरे हिन्दू हैं और जहाँ तक खालसा की बात है तो मेरे लिये तो पूरा भारतीय उपमहाद्वीप ही "खालसा" है यानि पवित्र और निर्मल है।
निर्मल सिखों के स्मरण का यही हेतू है कि अलगाववाद और विघटन की सारी मानसिकता खत्म हो और सारे भारतीय पंथ एकात्मता के "हिन्दू धागे" में सजे रहें।