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2019 - लोकतन्त्र में "वोटतंत्र के तुष्टीकरण" की राजनीति ही जीतेगी ?
कर्नाटक में घटित घटनाक्रम के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी को अब यह मान लेना चाहिए कि 2019 में वह एक तरफ़ अकेली होगी, तो दूसरी तरफ़ देश की तमाम पार्टियां उसके विरुद्ध एक गठबंधन में लामबंद होंगी, हो सकता है कि कुछ चुनाव से पहले हों और कुछ बाद में। और ये भी अटल सत्य है कि एक विभाजित जनमत भारतीय जनता पार्टी को 50 प्रतिशत वोट देने से रहा।
Sushobhit Singh Saktawat | Updated on:21 May 2018 5:01 PM IST
कर्नाटक में घटित घटनाक्रम के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी को अब यह मान लेना चाहिए कि 2019 में वह एक तरफ़ अकेली होगी, तो दूसरी तरफ़ देश की तमाम पार्टियां उसके विरुद्ध एक गठबंधन में लामबंद होंगी, हो सकता है कि कुछ चुनाव से पहले हों और कुछ बाद में। और ये भी अटल सत्य है कि एक विभाजित जनमत भारतीय जनता पार्टी को 50 प्रतिशत वोट देने से रहा।
कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रम के बाद अनेक मित्रों ने मुझसे निजी और सार्वजनिक रूप से अनुरोध किया कि मैं इस पर कुछ कहूं। अनेक वांछनीय-अवांछनीय कारणों से मैंने राजनीति पर बात करना अब बंद कर दिया है, फिर भी इस परिघटना पर अनेक दृष्टिकोण से विचार किया जा सकता है। मैं बहुत ही संक्षेप में अपनी बात रखने का प्रयास करूंगा।
कर्नाटक चुनाव ने भारतीय जनता पार्टी को जो सबसे बड़ी चोट पहुंचाई है, वह यह है कि इसने उसके भीतर 1990 के दशक की अवसरवादी गठबंधन राजनीति के दुःस्वप्नों को पुनः जगाते हुए उसके आत्मविश्वास को डिगा दिया है!
रामो-वामो यानी राष्ट्रीय मोर्चा-वाम मोर्चा गठबंधन तब लगातार किस तरह से चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने वाली किंतु बहुमत से पहले ठिठक जाने वाली भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आने से रोकता रहा था, वह अनेक मित्रों की स्मृति में ताज़ा होगा।
कर्नाटक ने अतीत के उस प्रेत को फिर से जीवित कर दिया है !
कर्नाटक में घटित घटनाक्रम के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी को अब यह मान लेना चाहिए कि 2019 में वह एक तरफ़ अकेली होगी, तो दूसरी तरफ़ देश की तमाम पार्टियां उसके विरुद्ध एक गठबंधन में लामबंद होंगी, हो सकता है कि कुछ चुनाव से पहले हों और कुछ बाद में। और ये भी अटल सत्य है कि एक विभाजित जनमत भारतीय जनता पार्टी को 50 प्रतिशत वोट देने से रहा।
अनेक राष्ट्रवादी मित्र इस बात को लेकर चिंतित हैं कि अगर 2019 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं बनी तो क्या होगा।
उन सभी मित्रों से मैं पूछना चाहता हूं कि 2014 में जब पूर्ण बहुमत से भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो उसने क्या किया?
यह इतने ऐतिहासिक महत्व का प्रश्न है कि इसके उत्तर से बचना किसी के लिए संभव नहीं रह गया है।
दिल्ली में हेमचंद्र विक्रमादित्य के सिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद इतिहास ने भारत को यह दूसरा अवसर दिया था। भारत हमेशा की तरह यह अवसर चूक गया।
पानीपत की लड़ाइयाँ अनवरत जारी हैं!
वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र माथुर ने एक बार कहा था कि केंद्र में सरकार किसी की भी बने, लेकिन सत्ता हमेशा कांग्रेस की ही होती है। यहां कांग्रेस से उनका आशय धर्मनिरपेक्ष विचारधारा से था।
विक्रम के सिंहासन पर बैठते ही साधारण से गड़रिये को भी राजधर्म का तत्वबोध प्राप्त हो जाता था। दिल्ली की कुर्सी भी ऐसी ही चमत्कारी गद्दी है।
मित्रों को अंदेशा है कि कहीं श्री नरेंद्र मोदी 2019 का चुनाव हार ना जाएं। मेरा प्रश्न यह है कि अगर श्री नरेंद्र मोदी 2019 का चुनाव जीत जाते हैं तो भी क्या फ़र्क पड़ेगा।
केंद्र में दक्षिणपंथी सरकार चार साल से बहुमत से क़ाबिज़ है और भारत विघटन का एकमात्र संकल्प लेकर सक्रिय रहने वाली उदारवादी ताक़तें आज जितनी मुखर, उग्र और आत्मविश्वास से भरपूर हैं, उतनी इससे पहले कभी नहीं थीं। आज यह वर्ग हाथ में तख़्तियां लिए खड़ा है और बहुमत की सरकार और बहुसंख्यकों की संवेदनाओं को मुंह चिढ़ा रहा है।
यह सरकार अगर नहीं भी रही तो क्या फ़र्क पड़ेगा? वर्तमान केंद्र सरकार अपने कार्य व्यवहार में उतनी ही "धर्मनिरपेक्ष" है, जितनी इससे पहले की अन्य सरकारें रही हैं। किसी भी विचारधारागत एजेंडे पर पुख़्ता काम नहीं हुआ है। कॉमन सिविल कोड लागू होना तो दूर उस मुद्दे पर सहमति बनाने की कोशिश तक नहीं हुई, कश्मीर से धारा 370 हटना तो दूर उल्टे आतंक की सहूलियत के लिए सीज़फ़ायर की घोषणा की जाती है, और जहां तक है बात राम मंदिर के निर्माण की तो ख़ैर अभी रहने ही दें।
एक ऐतिहासिक अवसर नियति ने भारत को 2014 में दिया था कि जातीय अस्मिता की पुनर्स्थापना हो, लोकविमर्श में न्याय और बराबरी का तक़ाज़ा हो और उदारवादी खेमा या तो अपनी वैचारिकी में न्यस्त इकहरेपन को त्यागे या लोकमत ही उसे हाशिये पर कर दे, बल से नहीं, सार्वजनिक विमर्श की वैधता से।
इसमें से कुछ भी नहीं हुआ है।
सड़कें तो कांग्रेस सरकार भी बनवा सकती थी, बिजली भी गांव-गांव पहुंचा सकती थी, और विदेश नीति के लिए कोई किसी पार्टी को वोट नहीं देता है।
दूसरी तरफ़ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जिस जनमत के दबाव ने भारतीय जनता पार्टी की सरकार को निर्लज्जता से "मुबारक-मुबारक" कहने के लिए विवश कर दिया है, वही दबाव भविष्य में सत्तारूढ़ होने जा रही किसी भी पार्टी को एक पक्ष और एक समुदाय की तरफ़ एक सीमा से अधिक झुकने से हमेशा रोकता रहेगा।
भारत न तो बंगाल है न गुजरात। जो बंगाल और गुजरात में हुआ है और होता रहा है, वह भारत में नहीं हो सकता।
कुल मिलाकर भारत की नियति में यथास्थिति अभी लंबे समय तक क़ायम रहने वाली है, और जो भी ख़तरे हैं, जैसे कि जनसांख्यिकीय, वे दीर्घकालीन ख़तरे हैं।
हाल फ़िलहाल कुछ नहीं बदलने वाला, चाहे जिसकी सरकार बने, सिवाय निजी न्यस्त स्वार्थों के हितपोषण के, वह यथावत रहेगा। भारत की नियति भी यथावत रहेगी।
नैराश्य अमर है!
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