'समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता' देने की मांग के विरोध में केंद्र का हलफनामा
धारा 377 के डिक्रिमिनलाइजेशन के बावजूद, याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं
धारा 377 के डिक्रिमिनलाइजेशन के बावजूद, याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं
केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की विभिन्न याचिकाकर्ताओं की मांग का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपना हलफनामा दाखिल किया।
केंद्र के द्वारा दिये गए हलफनामे में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं का पुरजोर विरोध किया गया है।
केंद्र के हलफनामे मे कहा गया कि समान लिंग वाले व्यक्तियों द्वारा एक साथ रहना (Live-in relation), 'जिसे 2018 में अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है' की तुलना भारतीय परिवार इकाई के साथ नहीं की जा सकती। ये दोनों वर्ग स्पष्ट रूप से अलग हैं जिसका इलाज एक जैसा नहीं हो सकता।
हलफनामे में, केंद्र ने याचिका का विरोध किया है और कहा है कि समलैंगिकों को कानूनी मान्यता देने वाली याचिकाओं को खारिज किया जाना चाहिए क्योंकि इन याचिकाओं में कोई योग्यता नहीं है।
सम-लैंगिक संबंध और विषम-लैंगिक संबंध स्पष्ट रूप से अलग-अलग वर्ग हैं जिन्हें समान रूप से नहीं माना जा सकता है, सरकार ने एलजीबीटीक्यू विवाह की कानूनी मान्यता की मांग वाली सभी याचिकाओं के खिलाफ अपना रुख स्पष्ट किया।
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केंद्र ने अपने हलफनामे में कहा कि भारतीय लोकाचार के आधार पर इस तरह की सामाजिक नैतिकता और सार्वजनिक स्वीकृति का न्याय करना और लागू करना विधायिका का कार्य है एवं भारतीय संवैधानिक कानून में किसी भी आधार पर पश्चिमी निर्णयों को इस संदर्भ में आयात नहीं किया जा सकता है।
इसी हलफनामे में, केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय को अवगत कराया कि सम-लैंगिक व्यक्तियों द्वारा भागीदारों के रूप में एक साथ रहना, जिसे अब डिक्रिमिनलाइज़ (अपराध की श्रेणी से बाहर) कर दिया गया है, की तुलना/समानता एक पति, एक पत्नी और बच्चों की भारतीय परिवार इकाई की अवधारणा के साथ नही की जा सकती।
आगे कहा गया कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता अपवाद के रूप में वैध राज्य हित के सिद्धांत वर्तमान मामले पर लागू होंगे। केंद्र ने प्रस्तुत किया कि एक "पुरुष" और "महिला" के बीच विवाह की वैधानिक मान्यता विवाह सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों के आधार पर भारतीय समाज की स्वीकृति से आंतरिक रूप से जुड़ी हुई है एवं सक्षम विधायिका द्वारा मान्यता प्राप्त है।
केंद्र का कहना है कि अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन है और इसे देश के कानूनों के तहत मान्यता प्राप्त करने के लिए समान लिंग विवाह के मौलिक अधिकार को शामिल करने के लिए विस्तारित नहीं किया जा सकता है जो वास्तव में इसके विपरीत है।
केंद्र ने अपने हलफनामे में यह स्पष्ट करते हुये कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के डिक्रिमिनलाइजेशन के बावजूद, याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं।
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा "शादी की मान्यता अनिवार्य रूप से गोद लेने का अधिकार और अन्य सहायक अधिकारों को साथ लाती है। इसलिए, यह आवश्यक है कि ऐसे मुद्दों को सक्षम विधानमंडल द्वारा तय किए जाने के लिए छोड़ दिया जाए, जहाँ सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और अन्य प्रभाव समाज, बच्चों आदि पर पड़ सकते हैं। विधानमंडल द्वारा इस तरह के रिश्तों को मान्यता देने के व्यापक प्रभाव पर हर कोण से बहस हो और वैध राज्य हित पर विचार किया जा सके,"।
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याचिकाकर्ता की दलीलों का विरोध करते हुए, सरकार ने कहा कि समलैंगिक व्यक्तियों के विवाह का पंजीकरण भी मौजूदा व्यक्तिगत के साथ-साथ संहिताबद्ध कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करता है - जैसे 'प्रतिबंधित रिश्ते की डिग्री'; 'शादी की शर्तें'; व्यक्तियों को नियंत्रित करने वाले व्यक्तिगत कानूनों के तहत 'औपचारिक और अनुष्ठान संबंधी आवश्यकताएं'।
सरकार ने कहा कि यदि विवाह को किसी भी व्यक्तिगत कानून के तहत अनुष्ठापित और पंजीकृत किया जाना है; तो 'पंजीकरण के लिए आवश्यकताएँ', अगर शादी को विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकृत किया जाता है; तो 'वैवाहिक अधिकारों की बहाली'; 'न्यायिक पृथक्करण', 'तलाक'; 'तलाक की शर्तें'; 'गुजारा भत्ता और रखरखाव पेंडेंट लाइट', 'स्थायी गुजारा भत्ता और रखरखाव'; 'शादी की कार्यवाही का खर्च'; कि 'संपत्ति का निपटान', 'दत्तक ग्रहण', 'संरक्षकता' आदि प्रभावित होंगे, और ये सभी बातें विधानमंडल का विशेष डोमेन (अधिकार) है।
केंद्र ने कहा कि इसमें किसी भी तरह का हस्तक्षेप देश में व्यक्तिगत कानूनों और स्वीकार्य सामाजिक मूल्यों के नाजुक संतुलन को पूरी तरह से बर्बाद कर देगा।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विदेशी विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम और अन्य कानूनों के तहत समान-लिंग विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए विभिन्न याचिकाओं का निपटारा किया जा रहा है।