बिहार कल-आज-कल : बिहार और बिहारियों से नफरतों के बीच क्या बदला है कुछ ?
हम बिहारियों को बीस साल की परिधि में रखकर मत देखो, आपके तमाम ज्यादतियों के बाबजूद हमारा हौसला डिगा नहीं है, इस आत्मबल का सम्मान करना सीखो। कभी अतीत में जाकर देखो कि भारत के लिए बिहार और बिहारी क्या रहें हैं ? अगर नहीं कर सकते तो हमसे पूछो कि अबे बिहारी तूने किया क्या है और इस देश को दिया क्या है ? फिर हम तुम्हें बताएँगे बिहार और बिहारी होने का मतलब
हम बिहारियों को बीस साल की परिधि में रखकर मत देखो, आपके तमाम ज्यादतियों के बाबजूद हमारा हौसला डिगा नहीं है, इस आत्मबल का सम्मान करना सीखो। कभी अतीत में जाकर देखो कि भारत के लिए बिहार और बिहारी क्या रहें हैं ? अगर नहीं कर सकते तो हमसे पूछो कि अबे बिहारी तूने किया क्या है और इस देश को दिया क्या है ? फिर हम तुम्हें बताएँगे बिहार और बिहारी होने का मतलब
ये पोस्ट आज से तीन साल पहले लिखी थी मगर अफसोस बदला कुछ भी नहीं, मानसिकता आज भी वही है।
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अगर आज खुद को एक बिहारी मान कर सोचूं तो ये विचार मेरे जीवन को दो भागों में बाँट देता है। इस विभाजन काल का निर्धारण बिंदु है मई, 2003, ऐसा इसलिए है क्योंकि 2003 के मई महीने में इंजीनियरिंग की तैयारी करने के लिए मैंने FIIT-JEE, दिल्ली का रुख किया था। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस पलायन (ये शब्द इसलिए लिखा क्योंकि बिहार से कोई किसी भी कारण से बाहर जाए तो उसे बाकी देशवासियों के शब्दों में पलायन करना ही कहा जाता है) से पहले मेरे अंदर बिहारी होने का कोई बोध नहीं था। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस पलायन से पहले मुझे पता नहीं था कि मेरी प्रांतीयता को बिहार से बाहर एक गाली रूप में प्रयुक्त किया जाता है। ऐसा इसलिए है क्यूंकि मुझे बिहार से बाहर जाकर ये एहसास हुआ कि हमारी डिग्रियां, हमारी मेधा सब चोरी से हासिल की हुई है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इस पलायन ने मुझे एहसास कराया कि बिहारी चाहे UPSC की तैयारी करने आया हो या IIT-JEE की तैयारी करने, वो बाहर वालों की नज़रों में "भैं%%% ठेला खींचने वाला बिहारी" ही है।
दिल्ली में अपने दोस्त के साथ जब राजा गार्डन से पंजाबी बाग़ के लिए बस पकड़ता था तब अक्सर बस ड्राईवर और कंडक्टर साइड नहीं देने वाले किसी ऑटो वाले या ठेला-रिक्शा वालों को 'अबे बै%%% बिहारी साइड दे दे' कहते सुनता था। हम दोनों दोस्त बस एक दूसरे की आँखों में देखकर ये अपमान सहन कर लेते थे। हमारे एक बिहारी रूममेट थे समस्तीपुर के रहने वाले, बराक ओबामा की तरह अँग्रेजी बोलते थे, पर्सनालिटी भी जबर्दस्त थी, एक बड़ी कम्पनी में अल्ट्रा-मॉडर्न लड़के-लड़कियों के साथ नौकरी करते थे। एक दिन उनके एक दोस्त को पता चला कि ये बिहारी है तो उसने दस मिनट में उनसे कम से कम तीन बार पूछा, ओये तू सच बता तू बिहारी ही है ? ।।।।ओये भें।।।। मैंने तो सुना है कि बिहारी सिर्फ ठेले खींचने वाले होते हैं ।।।। ओये तू सच बोल रहा है।।।। हमारे रूममेट को उनके तमाम साथियों के सामने इस तरह से जलील किया गया। कहने की जरूरत नहीं है कि उनके बिहारी होने के एहसास ने उनके अल्ट्रा मॉडर्न साथियों के बीच उन्हें बेचारा, अछूत और ठेले वाले के बीच से उठा हुआ बना कर रख दिया।
दिल्ली निपटा तो कम्पटीशन्स तैयारी का दौर शुरू हुआ। जब इंटरव्यू के लिए कहीं जाता था तो मार्क्सशीट और सर्टिफिकेट देखने वाले 'बिहारी है' ये सोचकर एक नजर चेहरे पर, एक नज़र सर्टिफिकेट पर डालता था कि कहीं से जाली डाक्यूमेंट्स तो लेकर नहीं आ गया।
फिर नौकरी मिली तो पहली पोस्टिंग असम में हुई। वहां भी मेरे बिहारी होने के कारण सबकी आँखों और व्यवहार में अलग तरह का भाव दिखा। एक दिन एक मैनेजर ने पूछ ही दिया, अभिजीत तुमको इस नौकरी में आने के लिए कितना खर्चा करना पड़ा? माने बिहारी है तो घूस देकर ही नौकरी मिली होगी। मेरी पोस्टिंग जिस शाखा में थी वहां चार्जशीट प्राप्त अफसरों का सबसे बड़ा जमावड़ा था और मजे की बात ये थी कि उन चार्जशीटेड अफसरों में बिहारी एक भी नहीं था पर फिर भी हम दो-तीन बिहारियों को दिन में कम से कम तीन बार यह सुनाया जाता था कि "भाई इ बिहार नहीं है जहाँ फ्रॉड हो जाए या पैसा लेकर लोन बांटा जाए"
मैंने उस सज्जनों को क्या जबाब दिया ये यहाँ काबिले-तवज्जो नहीं है पर मैं बस उन मनोदशाओं का वर्णन कर रहा हूँ जो बिहार और बिहारियों को लेकर देश में पाले जाते हैं और आये दिन हमें उनसे दो-चार होना पड़ता है। पिछले साल मल्टीप्लेक्स में सोनाक्षी सिन्हा की एक फिल्म देख रहा था तो पीछे से सोनाक्षी के ऊपर लड़कियों के कमेंट्स आ रहे थे, " चली बिहारन हीरोइन बनने"
खैर, तकलीफ इस बात से नहीं है कि हमें ठेला खींचने वाला कहा जाता है, तकलीफ़ हमें हमसे कहे जाने वाले इस बात से भी नहीं है कि 'तुम बिहारी पैदा होते हो तो जन्मकुंडली बनबाने से पहले ट्रेन का टिकट कटवाते हो' । तकलीफ हमें इससे भी नहीं है कि हम सारे बिहारियों को लालू की तरह मसखरा समझ लिया जाता है, तकलीफ इससे भी नहीं कि हमें जातिवादी कहा जाता है, तकलीफ इससे भी नहीं है कि हमारी डिग्रियों को सामने वाले का शंकित मन कई दफा स्कैन करता है, तकलीफ हमें धूर्त और फ्रॉड समझने वाली मानसिकता से भी नहीं है। क्यूंकि मैं जानता हूँ कि इन आरोपों की उम्र नहीं है, इन आरोपों और ऐसी मानसिकता वालों को जबाब देना भी हमें आता है, वैसे भी हम अगर जबाब न भी दें तो भी इन तमाम आरोपों और मानसिकताओं का जबाब हम अपनी मेहनत और लगन से दे ही रहे हैं।
ये स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि उम्र के एक पड़ाव तक ये चीजें मुझे तकलीफ़ देती थी पर अब तकलीफ नहीं होता बल्कि तरस आता है। तरस उस मानसिकता पर आता है जो राष्ट्र की बात करते हुए भी प्रांतीयता की क्षुद्र भावना से भरा हुआ है, तरस इस बात पर आता है कि एक मेहनतकश कौम को और राष्ट्र को दिशा दिखाने वाले राज्य को केवल बीस साल के अन्धकार युग का आकलन कर तमाम घटिया विश्लेषणों से नवाज दिया जाता है। तरस इस बात से आता है कि हम दो मिनट बैठकर ये भी नहीं सोचते कि बिहार और बिहारियों को गाली देकर, लांछित कर और जलील कर हम किनका काम आसान कर रहें हैं ? तरस इस बात पर आता है कि क्षुद्र राजनैतिक विजय-पराजय को लेकर भारत का सत्ता केंद्र एथेंस ट्रांसफर होने से बचाने वाले बिहारियों को माँ-बहन की गाली दी जाती है, तरह उस मानसिकता पर आता है जो कला, ज्ञान-विज्ञान, ज्योतिष, राजनीति, गणतंत्र और न जाने कितने और क्षेत्रों में योगदान देने वाले बिहारियों के हजारों साल के गौरव युग को 20 साल की कुछ राजनीतिक गलतियों के लिए गौण कर देता है, तरस उस मानसिकता पर भी आता है जिसके लिए राष्ट्रवाद की बात करने वाले, अखंड भारत भूमि के स्वप्न के साथ जीने वाले और सारे भारतीयों के दर्द को अपना समझने वाले अभिजीत सिंह जैसे हजारों-लाखों बिहारी सिर्फ इसलिए जलील है क्योंकि उनके अनुसार उन्होंने चुनाव में उनको वोट नहीं दिया जो आज देश की आशा (?) हैं। तरस उस सोच पर आता जो नक्सली बनने की बजाये घर से हजारों मील दूर अभावों में रहकर हाड़-तोड़ मेहनत कर अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी का इंतजाम करने वाले को ठेला खींचने वाला कह कर गाली देता है।
हम बिहारियों को बीस साल की परिधि में रखकर मत देखो, आपके तमाम ज्यादतियों के बाबजूद हमारा हौसला डिगा नहीं है, इस आत्मबल का सम्मान करना सीखो। कभी अतीत में जाकर देखो कि भारत के लिए बिहार और बिहारी क्या रहें हैं ? अगर नहीं कर सकते तो हमसे पूछो कि अबे बिहारी तूने किया क्या है और इस देश को दिया क्या है ? फिर हम तुम्हें बताएँगे बिहार और बिहारी होने का मतलब।
बिहारी होने के कारण अपने साथ होने वाली ज्यादतियों और अपमानों से आहत हुआ मेरा मन फिर भी इसके लिए अपने किसी देशवासी को दोषी नहीं मानता क्योंकि उनके मन में बिहार और बिहारियों की ऐसी छवि डाली गई है। पिछले दो-तीन दशकों से लगातार बिहारियों को हेय साबित करने, उनके मन में हीनता और अपराध बोध भरने, उन्हें अछूत घोषित करने और फिर इसके द्वारा उन्हें देश की मुख्य धारा से विरत चलने का एक सुनियोजित प्रयास चलाया गया है। इस पापकर्म में विदेशी खैरात पर पल रही हमारी बिकी हुई मीडिया है, इसमें कुछ स्वार्थी नेता हैं, कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें ये डर है कि कहीं बिहार और बिहारी जाग न जाए। उन्हें डर है कि अगर ये जग गये तो फिर भारत की सीमा का संकुचन नहीं विस्तार होगा, उन्हें डर है कि अगर ये जग गये तो किसी शत्रु की लालची आँख भारत भूमि की ओर उठने से पहले सौ बार सोचेगी, उन्हें डर है कि इनका जागरण कहीं भारत भूमि में आर्य चाणक्य, आर्यभट्ट या गुरु गोविंद सिंह न पैदा कर दे, उनको ये भी डर है कि बिहार का जागरण अपनी बेटियां देने की बजाये शत्रु सेल्युकस की बिटिया ब्याह लाने वाला चन्द्रगुप्त न पैदा कर दे।
अपने समाज और राष्ट्र के ऊपर हो रहा चौतरफ़ा आक्रमण और साजिशों को समझिये, अगर देश हित और राष्ट्रीय एकात्मता निर्माण में कुछ सार्थक नहीं कर सकते तो कम से कम देश विरोधियों की इन साजिशों में शरीक मत होइए ।
देश हित में क्षेत्रीयता की क्षुद्र भावना से ऊपर उठते हुए इस सत्य को स्वीकार करिए कि भारत बिहारियों से भी है । दृष्टि की पूर्णता इसी में है।