लंगड़ा: आमों का रस-राज
उम्दा लंगड़े की पहचान का एक तरीक़ा आपको बताऊं, अलबत्ता आपको मालूम ही होगा, फिर भी तज़किरे की मुझको तलब है। आप अगरचे लंगड़े को छीलें और उसका रेशा उसके चकत्तेदार हरे छिलके के अस्तर से उलझ रहा हो तो समझो अभी फल में जान है, कि अभी कस बाक़ी है। जहां छिलका ढीला पड़ा, समझो खेल ख़त्म, पैसा हजम। कि असल लंगड़ा तो वो है जिसके दंतनिक्षेप में रेशे फंस जाएं, नखों से निकालने पड़ें!
उम्दा लंगड़े की पहचान का एक तरीक़ा आपको बताऊं, अलबत्ता आपको मालूम ही होगा, फिर भी तज़किरे की मुझको तलब है। आप अगरचे लंगड़े को छीलें और उसका रेशा उसके चकत्तेदार हरे छिलके के अस्तर से उलझ रहा हो तो समझो अभी फल में जान है, कि अभी कस बाक़ी है। जहां छिलका ढीला पड़ा, समझो खेल ख़त्म, पैसा हजम। कि असल लंगड़ा तो वो है जिसके दंतनिक्षेप में रेशे फंस जाएं, नखों से निकालने पड़ें!
दुनिया फ़ानी है, दुनिया की लज़्ज़तें फ़ानी हैं, आज हैं कल नहीं। इस बयान का सबसे बड़ा इश्तेहार लंगड़ा आम है।
"पानी केरा बुदबुदा, अस लंगड़े की जात।" कि ये चला-चली की बेला का फल है. आया नहीं कि गया. देरी से आता है, जल्दी जाता है! साहब, लंगड़े का यही हिसाब है। कि आज वह कच्ची कैरी है, कल पका फल बन जाएगा, परसों तक गलकर ख़त्म. वक़्त रहते खा लिया तो ठीक नहीं तो हाथ मलते रहिए।
अभी हम रतन बाग़ के सामने से जा रहे थे. आमों का ठेला खड़ा था. ठेले वाला आमलाल वल्द शामलाल बहुत शोर मचा रहा था: ले जाओ, ले जाओ, ले जाओ... दिल्ली दरबार की लूट है, भारी भरकम छूट है... ले जाओ, ले जाओ, छांट-बीनकर ले जाओ... पचास रुपिया किलो, सौ रुपैये में अढ़ाई किलो... डाल का पक्का है, शहद का छत्ता है... लखनऊ का मेवा है, काकोरी का पेड़ा है... चले आओ दौड़कर, जाना नहीं छोड़कर, लाया हूं तोड़कर!
शोर सुनकर हम रुक गए। आमलाल वल्द शामलाल से पूछा, क्यों भाई लंगड़ा है? भाई ने कहा, नहीं साहब! हमने कहा, जब लंगड़ा ही नहीं है तो काहे संसार सिर पर उठा रक्खा है? दशहरी जैसा नक़ली आम रख सकते हो, लंगड़ा नहीं रख सकते? वो बोले, लंगड़ा रखेंगे तो ख़ुद लंगड़े हो जाएंगे। कच्चा लंगड़ा तो भाटा है और पकने के बाद एक दिन में नहीं उठे तो पूरी पेटी राखोड़ा। लंगड़े से हमने हाथ जोड़ लिए हैं!
तो हुज़ूरे वाला, यह आलम है! दुनिया की हर हसीन चीज़ की तरह लंगड़ा भी क्षणभंगुर है।
उम्दा लंगड़े की पहचान का एक तरीक़ा आपको बताऊं, अलबत्ता आपको मालूम ही होगा, फिर भी तज़किरे की मुझको तलब है। आप अगरचे लंगड़े को छीलें और उसका रेशा उसके चकत्तेदार हरे छिलके के अस्तर से उलझ रहा हो तो समझो अभी फल में जान है, कि अभी कस बाक़ी है। जहां छिलका ढीला पड़ा, समझो खेल ख़त्म, पैसा हजम। कि असल लंगड़ा तो वो है जिसके दंतनिक्षेप में रेशे फंस जाएं, नखों से निकालने पड़ें!
जैसे मृत्यु होती है तो देह इधर और आत्मा उधर, वैसे ही लंगड़े का छिलका इधर और गूदा उधर तो समझो अफ़साना तमाम हुआ. जलसा ख़त्म। तानपूरे पर खोल चढ़ाकर गिलोरी दबा लीजिए कि अब भैरवी नहीं गाई जाएगी!
आमों में सबसे लंबी उम्र हापुस की होती है. यही वजह है कि हापुस की पेटियां की पेटियां विलायत तक भेजी जाती हैं। इसी के चलते हापुस महाराज अब विलायती फल हो गए हैं। अकड़ भी वैसी, भाव और ताव भी ऊंचे। उन्होंने तो नाम भी अंग्रेज़ी रख लिया है: "अलफ़ांसो!"
लंगड़ा कमउम्र है, फ़ानी है। लंगड़ा भरी जवानी में मर जाता है! दम है तो लंगड़े को विलायत भेजकर बताओ। साहेबान, लंगड़ा देशी फल है, मार्गी नहीं है। स्वाद भी उसका खांटी है, चोखा है, सौंधा है, मिट्टी का फल है, श्यामकुंज का मिट्टीपकड़ पेहलवान।
भूख लगे तो लंगड़ा खाओ, प्यास लगे तो लंगड़ा खाओ, दस्तरख़्वान से भोजन करके उठे हों तो मीठे में लंगड़ा नोश फ़रमाओ। कि लंगड़ा तिश्नगी का इलाज है। लंगड़ा खाकर अंतर्तम में परितृप्ति का अनुभव होता है, जैसे कोई राम पदारथ भीतर गया हो। वो पुष्टिमार्गी फल है, वैष्णवी है। लंगड़ा खाकर एक आशीष आत्मा से उठता है और आलम में फैल जाता है। ग़रज़ ये कि लंगड़ा रूह की रसद है! बाज़ दफ़े हमें यह भी तसव्वुर होता है कि हो ना हो इंसान की रूह दिखने में लंगड़े के दरख़्त जैसी मालूम होती होगी।
क्या शोख़ी है, क्या तुर्शी है, क्या अदा है, क्या बांकपन है, क्या लज़्ज़त है, क्या फ़ितरत है! हाये, मैं मर जाऊं! बलायें ले लूं! हीरा चाटकर सो रहूं! तराज़ू के पलड़े में बैठकर लंगड़ा आमों से तुल जाऊं! क्या करूं कि बयान की हाजत से राहत मिले, तस्क़ीन मिले, कलेजे में ठंडक पहुंचे।
ख़्वातीनो हज़रात, एक शुक्रिया में सब आ जाता है, एक शुकराना ही सबसे बड़ा ऐहतराम है!
लंगड़े भाई, तुम्हारे होने का शुक्रिया।
मरने के बाद तुमसे चंदौली के ठाकुरबाग में बयार बनकर मिलूंगा, ये वादा रहा!