मोदी जी : "कांग्रेस वाली तुष्टीकरण" की राह छोड़नी होगी
बड़े मज़े की बात है कि अस्सी प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी के वोट हासिल करने के लिए भारतीय राजनीति में कोई लामबंद नहीं होता। अब तो तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी दल ने भी उसको किनारे कर दिया है। सारे गठजोड़ सत्रह प्रतिशत वोटबैंक के लिए हैं। वही भारतीय राजनीति को संचालित कर रहा है। और यह भारत के सांप्रदायिक विभाजन के बाद की जनसांख्यिकीय विडम्बना है! भारत नियति!
बड़े मज़े की बात है कि अस्सी प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी के वोट हासिल करने के लिए भारतीय राजनीति में कोई लामबंद नहीं होता। अब तो तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी दल ने भी उसको किनारे कर दिया है। सारे गठजोड़ सत्रह प्रतिशत वोटबैंक के लिए हैं। वही भारतीय राजनीति को संचालित कर रहा है। और यह भारत के सांप्रदायिक विभाजन के बाद की जनसांख्यिकीय विडम्बना है! भारत नियति!
अगर माननीय प्रधानमंत्री महोदय वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में विजयश्री का वरण करना चाहते हैं तो अख़बारों में तरक़्क़ी के इश्तेहार निकालने के बजाय उन्हें एक संकल्प लेना होगा।
प्रधानमंत्री को संकल्प लेना होगा कि मुझे "आतंकवाद" के वोट नहीं चाहिए, इसलिए मुझे येन केन प्रकारेण "आतंकवाद" को प्रसन्न करने की आवश्यकता नहीं है!
प्रधानमंत्री दुविधा में हैं! उन्हें निःशंक होना पड़ेगा! उन्हें निश्चय करना होगा कि उन्हें "आतंकवाद" से वोट नहीं चाहिए. "आतंकवाद" से वोट मिलने भी नहीं वाले, चाहे जितनी कारीगरी कर लें। "आतंकवाद" उनसे घृणा ही करेगा। कर्नाटक चुनावों में बाज़ी पलटने के बाद शायद उन्होंने ग़ौर नहीं किया कि किस तरह से "आतंकवाद" और उसके समर्थकों ने मिलकर उनका उपहास उड़ाया था और वैसा "आतंकवाद" को जन्मदिन की मुबारक़बाद देने के फ़ौरन बाद हुआ था।
यह एक स्वप्न था कि भारत में एक स्वस्थ लोकतंत्र विकसित हो, किंतु जनसांख्यिकी के कारण निर्मित परिस्थितियों का यह दुर्भाग्य है कि वैसा अब संभव नहीं दिखता। "जनसांख्यिकी" शब्द पर मैं ज़ोर देना चाहता हूँ। यह एक ऐसा वोटबैंक है, जो रणनीतिपूर्वक मतदान करता है और चुनावी समीकरणों को गड़बड़ा देता है। समस्त राजनीतिक दल एक अनैतिक गठबंधन बनाकर इस जनसांख्यिकी का दोहन करना चाहते हैं।
बड़े मज़े की बात है कि अस्सी प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी के वोट हासिल करने के लिए भारतीय राजनीति में कोई लामबंद नहीं होता। अब तो तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी दल ने भी उसको किनारे कर दिया है। सारे गठजोड़ सत्रह प्रतिशत वोटबैंक के लिए हैं। वही भारतीय राजनीति को संचालित कर रहा है और यह भारत के सांप्रदायिक विभाजन के बाद की जनसांख्यिकीय विडम्बना है! भारत नियति!
आज जहाँ कंधार है, कभी वहां गांधार था। आज जहाँ पेशावर है, कभी वहां पुरुषपुर था। आज जहां कश्मीर है, कभी वहां कश्यपमेरु था। जनसांख्यिकी नाभिकीय विखंडन से भी अधिक ख़तरनाक होती है। और जब जनसांख्यिकी राजनीतिक उपकरण बन जाती है तो किसी भी राष्ट्र को टूटने से कोई नहीं बचा सकता। अतीत में वैसा हुआ है, आगे भी यह अवश्यम्भावी है।
भारत मनुष्यों का देश बना रहे, पशुओं का नहीं, बस इतनी कामना है।
यही कारण है कि बहुसंख्या का ध्रुवीकरण के माध्यम से संगठन ही एकमात्र विकल्प है। यह बात दुःखी मन से कह रहा हूँ, क्योंकि यह स्वस्थ लोकतंत्र नहीं। किंतु विवशता! भारत को आतंक की कार्यशाला कैसे बनते देखें।
लोकतांत्रिक गणराज्य में रक्त की एक बूंद भी बहाने की आवश्यकता नहीं, एक भी भारतीय नागरिक के मानवाधिकार का हनन वांछनीय नहीं। केवल लोकतंत्र के उपकरणों का वैध तरीक़ों से अपने पक्ष में दोहन करने की बुद्धि विकसित करना होगी। आशा है कि सत्तारूढ़ पार्टी को ईश्वर शीघ्र ही वह विवेक-बुद्धि प्रदान करेगा।
पुनश्च -- जैसे सौजन्यवश अंधे को अंधा नहीं "नयनसुख" कहते हैं, लंगड़े को लंगड़ा नहीं "दिव्यांग" कहते हैं, दलित को दलित नहीं "हरिजन" कहते हैं, उसी तरह मैं यहां सौजन्यता से "आतंकवाद" शब्द का प्रयोग कर रहा हूं। "आतंकवाद" से मेरा क्या आशय है, बताने की आवश्यकता नहीं।