हम अपना काम समझे हैं, वे अपना काम करते हैं

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हम अपना काम समझे हैं, वे अपना काम करते हैं

भारत में ऐसे दस पांच पश्चिमी विद्वान कई रूपों में सक्रिय मिल जाएंगे जो हिन्दुत्व से इतना अधिक प्यार करते हैं कि हिन्दुत्व प्रेमी संगठन तक उनसे मार्गदर्शन लेते हैं। इनमें से एक को वाजपेयी दौर में पद्मभूषित किया गया था और वर्तमान मोदी सरकार में इतिहास अनुसंधान परिषद की सलाहकार समिति में भी स्थान दिया गया? ये विद्वान प्रतिवर्ष भारत में लंबा समय बिताते हैं। हिन्दुत्व की महिमा से भी परिचित हैं और समय समय पर हिन्दुओं को उनके इतिहास का ज्ञान भी कराते रहते हैं। डालर/पाउंड/यूरो और रूपये की विनिमय दर इतनी पश्चिमोदी हैं कि भारत में निवास काफी सस्ता पड़ता है। भारतीय विषयों पर उनकी पुस्तकें हैं, पर उनसे मिलने वाले मानदेय से उनका गुजर नहीं हो सकता इसको हम अपने अनुभव से जानते हैं? भारत में इनके प्रवास का और स्वयं अपने देश में निवास का खर्च कौन उठाता? वह हमारा काम करने के लिए उनको आर्थिक संबल देता है, या अपना काम कराने के लिए?
वह भारतप्रेम के दिखावे से हिन्दू समाज में गहरी पैठ बनाता है ताकि वह हमारा विश्वास जीत कर भितरघात कर सके, या वह सचमुच भारत का, या हिन्दू समाज का भला करना चाहता है? उसके लिए साधन वे देश जुटाते हैं जिनकी रुचि भारत को मुट्ठी में रखने की है? अब इस दृष्टि से विचार करते हुए उनकी लिखित पुस्तकों, वक्तव्यों और टिप्पणयों का ध्यान से पाठ करें तो पाएंगे, वे बहुत सावधानी से, कि उनके इरादे लोगों पर जाहिर न हो जाएँ हमें भड़काने का, हमारे सद्विश्वास का लाभ उठा कर, हमारे मनोबल को तोड़ने और आन्तरिक कलह पैदा करने का काम करते हैं।
मैं इन विद्वानों में से जिनको व्यक्तिगत रूप से जानता हूं उनसे मेरे अच्छे संबंध हैं। जिनसे नाम मात्र को परिचित हूं उनका सम्मान करता हूं। जिनके विषय में सुना है या जिन्हें पढ़ा है उनके लिए भी गहरा सम्मान है। उनका ऋणी भी हूं, क्योंकि आज यदि हमारा प्राचीन साहित्य सर्वसुलभ है तो उनके कारण।
पर इस कृतज्ञता के बाद भी मैं यह जिज्ञासा करना नहीं भूलता कि वे हमारी सेवा कर रहे थे, या अपना काम कर रहे थे? उनका काम उनके कितने काम का था, और हमारे कुछ काम का हुआ जरूर, पर जितना उनके काम का था वह किस सीमा तक हमारे लिए हानिकर था, इसे मैं भूल नहीं पाता, दूसरे कृतज्ञ होने की जगह कृतार्थ अनुभव करते हैं।
समझ के दोनों रूपों में अन्तर यह है कि मैं कहता हूं, हमें उनके काम का उतना अंश छांट लेना चाहिए जो हमारे उपयोग का है, और उसे रोकने का प्रयत्न करना चाहिए जो उन्हें लाभ और हमें हानि पहुंचाता है। पर यह चाहने से न होगा। इसके लिए हमें उनके द्वारा लिखित साहित्य का उसी तरह आलोचनात्मक पाठ करते हुए एक नई ज्ञान व्यवस्था करनी होगी और इसकी कमियों के दूर करने के लिए स्वयं जमीनी काम करने होंगे। इसके लिए समर्पणभाव, अध्यवसाय और श्रम की आवश्यकता होगी। इसका नाम कृतज्ञता है।
इसके ठीक विपरीत जो कुछ हमारे दुश्मनों ने अपने लाभ के लिए किया पर जिससे हमारा भी कुछ लाभ होता है, वही हमारे लिए काफी है। हमारा सारा बौद्धिक काम उन्होंने किया है, करते जा रहे हैं, उसी से हमारा काम चल जाता है। हमें उनके किए को जानते और मानते रहना चाहिए। इससे आगे का क्षेत्र खतरों से भरा है और फिर जब दूसरे हमारा काम कर रहे हैं तो हमें जान आफत में डालने की जरूरत क्या। मेहनत अलग से करनी होगी। बौद्धिक आलसियों की इसी सोच का दूसरा नाम है कृतार्थता।
जो लोग 'कर कंकण न्याय' मुहाविरे का अर्थ न जानते हों, और यह भी न समझ पाते हों कि विरोधों की समीपता का अर्थ क्या है वे अब समझ सकते हैं कि क्यों संघियों में एक कारण से, उनके धुर विरोधी मार्क्सवादियों, सेकुलरिस्टों में अन्य कारणों से अकर्मण्यता, पश्चिमपरस्ती उससे भी अधिक क्यों है?
ऐसे लोग यह भी नहीं समझ सकते हैं कि यदि विधाता की भूमिका के साथ जुड़ी कर्मठता से हम बचना चाहें तो भी हमारी अकर्मण्यता के चलते भाग्यवाद के कितने संस्करण हो जाते हैं ?
मैं इतिहास की बात अतीत के दिवास्वप्न देखने के लिए नहीं करता, वर्तमान को समझने के लिए करता हूं और तब अतीत व्यतीत नहीं रहता वर्तमान के सामने उपस्थित आंईना बन जाता है।
आइने ऐसे मिले हैं कि बोलते ही नहीं, टूट जाते हैं अगर गौर से देखो उनको।। क्रमश:

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