लोरियों से खुश थे हम, बस लोरियां सुनते रहे
कराल दंड का विकल्प अंग्रेजों को सुलभ नहीं था अन्यथा उनका आचरण मध्यकाल से भिन्न न होता। इसके कई नमूने उन्होंने पेश भी किए। इतने दूर से, इतने बड़े देश को इतने थोड़े लोगों के बल पर कब्जे में रखना असंभव था। इसलिए 'कालों को ही हमें, उनके रंग के बाद भी उन्हें अंग्रेज बनाना होगा', "यही थी मैकाले की दलील"।
Bhagwan Singh | Updated on:9 Dec 2017 9:49 PM IST
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कराल दंड का विकल्प अंग्रेजों को सुलभ नहीं था अन्यथा उनका आचरण मध्यकाल से भिन्न न होता। इसके कई नमूने उन्होंने पेश भी किए। इतने दूर से, इतने बड़े देश को इतने थोड़े लोगों के बल पर कब्जे में रखना असंभव था। इसलिए 'कालों को ही हमें, उनके रंग के बाद भी उन्हें अंग्रेज बनाना होगा', "यही थी मैकाले की दलील"।
इस बात को समझने में कठिनाई होगी कि जिन्हें हम प्राच्यवादी कहते हैं वे भारत को समझना नहीं चाहते थे, भारत की टोह लेना चाहते थे। यह टोह कुछ वैसी थी जैसे सेना शत्रुपक्ष की टोह लेती है। इरादा बचाने और बढ़ाने का नहीं होता, तोड़ने और मिटाने का, लूटने और अधिक से अधिक समेटने और लेकर भागने का रहता है।
प्राच्यवादियों का तरीका पुचकारते हुए फंसाने और मिटाने का था, साम्राज्यवादियों का तरीका भाषा और व्यवहार दोनों मामलों मे सीधी चोट तोड़फोड़ का। पहला विश्वास जीत कर भितरघात करने का था, जब कि दूसरे का दबाने और रौंद कर विवश करने का। पहला प्राचीन भारतीय दाय था तो दूसरा मध्यकालीन विरासत जो पश्चिम का सबसे प्रिय तरीका रहा है।
तुलसीदास अपने समय के विषय में शिकायत करते हैं:
गोंड़ गंवार नृपाल कलि यवन महामहिपाल।
साम न दाम न भेद कछु, केवल दंड कराल।।
शत्रु को अनुकूल या वश में करने के लिए इन तरीकों का प्रयोग सदा से होता आया है। अनुपात के भेद और किसी एक पर अधिक भरोसे के कारण वह पक्ष इतना प्रधान हो जाता रहा है कि दूसरे उपायों पर ध्यान नहीं जाता रहा है। सत्ता का चरित्र ही ऐसा है कि किसी एक उपाय से सभी काम नहीं सध सकते।
कराल दंड का विकल्प अंग्रेजों को सुलभ नहीं था अन्यथा उनका आचरण मध्यकाल से भिन्न न होता। इसके कई नमूने उन्होंने पेश भी किए। इतने दूर से, इतने बड़े देश को इतने थोड़े लोगों के बल पर कब्जे में रखना असंभव था। इसलिए 'कालों को ही हमें, उनके रंग के बाद भी उन्हें अंग्रेज बनाना होगा', "यही थी मैकाले की दलील"।
इसी जरूरत से भेदनीति का सहारा उन्होंने बहुत पहले से लेना आरंभ किया था, जिसके लिए हम उन्हें दोष नहीं दे सकते। हमें स्वयं इसे समझते हुए बचना चाहिए था, जो हम न कर सके क्योंकि अपनी जड़ें मुस्लिम देशों में तराशने वाले जमींदारों और ताल्लुकेदारों के श्रेष्ठताबोध का टकराव ब्राह्मणवादी श्रेष्ठतावाद से ही नहीं था, पूरा हिन्दू समाज, इसके शूद्र तक मुसलमानों से परहेज करते थे।
हमने अपने घर की कमियों को दूर करने की जगह अपना उपयोग करने वालों के सिर मढ़ कर छुट्टी पानी चाही, पर यह काम भी सलीके से नहीं किया। जिन्हें राष्ट्रवादी कह खारिज करते हुए मार्क्सवादी इतिहास लिखने की भूमिका रची गई, उन्होंने उपनिवेशवादियों के पूरे लेखन के प्रति संदेह प्रकट करते हुए "नये सिरे से इतिहास की खोज" की आवश्यकता समझी और नया इतिहास लिखा भी। वह इतिहास पुरानी सोच और जानकारी पर ही लिखा गया था इसलिए दोषमुक्त न था।
मार्क्सवादी लेखन में प्राचीन भारत के विषय में समझ यह बनी, कि उन्होंने उसकी उतनी बुरी तस्वीर पेश नहीं की जितना बुरा यह था, और मुस्लिम काल में बुराइयां तलाशते रहे जब कि यह भारतीय इतिहास की प्रगति और उन्नति का काल था इसलिए इसकी बुराइयों को भुलाने और अच्छाइयों को उभारने की जरूरत समझी।
उपनिवेशवादियों की प्राचीन भारत की निराधार स्थापनाओं को वज्रलेख की तरह अकाट्य माना जाता रहा और जब प्रमाण देते हुए उनका खंडन किया गया तो इसे संशोधनवाद कह कर नकारने के प्रयत्न किए जाते रहे, और मध्यकाल के प्रामाणिक तथ्यों को छिपाते हुए उसके महिमा मंडन को, जिसे ही संशोधनवाद कहा जाता है, मार्क्सवादी समझ से लिखा गया इतिहास बताया जाता रहा। संशोधनवाद मार्क्सवादी इतिहास हो गया और अनुसंधान संशोधनवाद हो गया, इसे उल्टी खोपड़ी का कमाल न भी कहा जाये तो उल्टी समझ का महिमामंडन तो कहना ही होगा।
तथाकथित प्राच्यवादी लेखकों के इतिहास को इसलिए कम भरोसे का बताया जाता रहा कि उन्होंने प्राचीन भारत की उपलब्धियों से पूरी तरह आंख बन्द न की। ये उनकी स्वीकृति को महिमामंडन बताते हुए इसलिए खतरनाक बताते रहे कि इससे पश्चगामिता पैदा होने का डर था। मोटी समझ यह थी कि इससे हिन्दुत्ववादी ताकतों को बल मिल सकता था।
यदि यह समझ ठीक थी तो मध्यकाल के योजनाबद्ध महिमामंडन से मुस्लिम समाज में पश्चगामिता पैदा हुई, या कहें इसे इतिहासकारों के सहयोग से पैदा किया गया।
बाबरी मस्जिद कांड में मुल्लों से अधिक उत्साह से तथाकथित मार्क्सवादी इतिहासकारों की भागीदारी को इसका प्रमाण माना जा सकता है ।
यहां मैं यह नहीं कहता कि इतिहासकारों को इस पर चुप रहना चाहिए था, अपितु यह कि इसे इतिहासकारों द्वारा एक पुरातात्विक अवशेष की रक्षा का मुद्दा बनाया जाना चाहिए था, न कि बाबरी एक्शन कमेटी का रूप देकर उसमें शामिल होना चाहिए था, अत: इस आशय के मेरे सुझाव पर बया-बन्दर की कहानी वाली प्रतिक्रिया हुई और इससे हुए मोहभंग में मुझे पहली बार उनके 'लीगी चरित्र' का आभास मिला और उनकी बंदर बुद्धि का प्रमाण इस नामकरण में भी मिला।
बाबरी ऐक्शन कमेटी! प्रोटेक्शन कमेटी ऐक्शन में आ रही है तो ऐक्शन वाले तो प्रोटेक्शन करेंगे नहीं और उनके ऐक्शन को मजहबी रंग देकर रोका भी नहीं जा सकेगा, इसकी भविष्यवाणी भी मैंने उन लेखों में कर दिया था और तीन साल बाद वही हुआ।
आदतन फिर बहक गया पर मैं इसे सामने रखे बिना उस बौद्धिक दरिद्रता का चरित्र उजागर नहीं कर सकता जिसका ही सामूहिक नाम भारतीय बुद्धिजीवी हो गया। बुदिधजीवी से पूरा संतोष नहीं हो पाता इसलिए पिछले दो एक साल से तर्कवादी कहा जाने लगा है जब कि इसके प्रधान लक्षण है वाचालता और कामनसेंस या मोटी समझ का अभाव। क्रमश: