आजादी के पुरोधा "आजाद"

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भारत की राजनीति के एक प्रमुख रहस्य की कुंजी इस बात को समझने में है कि पंडित चंद्रशेखर आजाद के बलिदान के कई वर्षों बाद भी, स्वतंत्रता के बाद भी अल्फ्रेड पार्क का नाम 'अल्फ्रेड पार्क' ही रहता है।
इस रहस्य की एक और कुंजी यह कि जिस 'क्विक सिल्वर' बलराज (यह दोनों पं॰ आजाद के ही उपनाम हैं) ने भगत सिंह जैसे महान क्रातिकारियों को ट्रेनिंग दी ! भगत सिंह उन्हें अपना गुरु मानते थे ! भगत की चर्चा होती है उनके राजनैतिक चिंतन की चर्चा होती है। उन्हें कम्युनिस्ट और नास्तिक प्रमाणित करने की होड़ लग जाती है परन्तु आजाद की कहीं एकेडमी में या विश्वविद्यालयों में चर्चा नहीं। तो अब या तो तुम ट्रैंड सेटर नकलची लोग बेवकूफ हो या भगत और राजगुरू जैसी महान आत्माएं बेवकूफ थीं जो उन्हें अपना लीडर और गुरू मानते थे।
रहस्यमय रहस्यों की एक कुंजी यह भी कि आजाद जैसे क्रांतिकारी को गिड़गिड़ाना पड़ता है। आजाद ने पंडित नेहरू के घर "आनन्द भवन" इलाहबाद में जाकर उनसे प्रार्थना की कि वो गांधी जी को लार्ड इरविन से कहकर इन तीनों की फांसी की सजा माफ़ करवा दे !! पर नेहरू ने उनकी मांग को अस्वीकार कर दिया !!
आज़ाद के अनन्यतम् प्रशंसकों में पंडित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट जो स्वराज भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने 'फासीवादी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। वीरोचित कर्म वैसे भी नाजुक मिजाज लोगों को कहाँ सुहाते हैं। इसकी कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है।
एसेम्बली में बम फेंका जाना चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध था क्योंकि वह इस लड़ाई में अपने साथियों की कीमत भी समझते थे।
'सांडर्स वध' में भी उन्होंने भगत सिंह का भरपूर साथ दिया और फिर बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की ।
आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३ दिसम्बर १९२९ को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे।
आज़ाद को २८ मई १९३० को भगवतीचरण वोहरा की बम परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था। इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना खटाई में पड़ गई थी।
भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरू की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधी जी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे। झाँसी में रुद्रनारायण, सदाशिव मुल्कापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर मे शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर १९३० को पुलिस ने आज़ाद से मिलने एक पार्क में जाते वक्त शहीद कर दिया था।
छद्म समाजवादी कभी-कभी पं॰ चंद्रशेखर को समाजवादी कहते हैं। उनके चिंतन पर और शोध की आवश्यकता होगी।
बचपन में भारत माता की जय के साथ महात्मा गांधी की भी जय बोलने वाला उस पिता का बालक जो बिना नमक के हफ्तों खाना खाता है पर याचना नहीं करता। जब गांधी आंदोलन शुरू कर रोक देते हैं 1922 में तो वह बदल जाता है।
और क्रांति को जीने वाला क्रांतिकारी बदलता ही नहीं बदला भी लेता है जलियांवाला बाग का, लाल का।
काँधे पर जनेऊ, हाथ मे पिस्तौल, मूँछ पर ताव, आज़ाद पंडित..... श्रद्धांजलि
मातृ ऋण से आजाद तुम ही हो बलराज "क्विक सिल्वर" !
मधुसूदन उपाध्याय
संवत २०७४, फाल्गुन शुक्ल पक्ष द्वादशी, अवध

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