सत्यानासी (भाग -2)

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सत्यानासी (भाग -2)
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कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता साम्यवाद की विफलता नहीं है, न ही यह मार्क्सवाद की व्यर्थता का प्रमाण है। यह उन असावधानियों की देन है, जिनमें से कुछ कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में भी दिखाई देती हैं। अपनी विफलता के बाद भी कम्युनिस्ट आन्दोलन ने, विशेषत: रूसी क्रान्ति ने, केवल सोवियत संघ को ही नहीं, उससे प्ररित और क्रांति की दिशा में अग्रसर देशों को ही नहीं, समस्त पूंजीवादी देशों को भी अपने दबाव से जितना लोकोन्मुख और कल्याणकारी बनाया उसका सही आकलन करने की न तो मुझमें योग्यता है न ही हमारी आज की चर्चा में उसकी जरूरत।
हमारी चिन्ता में यह अवश्य शामिल है कि "भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का चरित्र दुनिया के दूसरे सभी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों से विपरीत क्यों रहा"? मन में यह सवाल अवश्य पैदा होता है कि इसने सांप्रदायिक चरित्र क्यों अपना लिया? इसके सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यभार "हिन्दू समाज तक सीमित क्यों रहे और वे भी इसकी जड़ें खोदने तक सीमित क्यों रहे"? इसने इतिहास का दो तरह का पाठ क्यों किया जिसमें एक काल खंड के बारे में उपनिवेशवादी व्याख्या पूरी तरह सही बन गई और दूसरे के विषय में सरासर गलत मानी जाती रही? इन सवालों के उत्तर हम नहीं देना चाहेंगे, वे हमारी सोच की दिशा बदल सकते हैं, परन्तु विफलताओं की मीमांसा करने वालों को इन अप्रिय सवालों से दो चार होना होगा, अन्यथा वे गालियों के रियाज को ही मार्क्सवाद का नया कार्यभार बना लेंगे।
हम जिस एक प्रश्न को रेखांकित करना चाहते हैं वह यह कि जिन भी देशों ने क्रान्ति करने में सफलता पाई उनकी तुलना में भारत की स्थिति क्रान्ति के लिए सबसे अनुकूल थी। यहां औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति की लंबी छटपटाहट और आक्रोश था और दूसरी ओर आर्थिक विषमता से जुड़ी सामाजिक विषमता भी थी।
यहां शोषितों और सामाजिक स्तरभेद के शिकार लोगों को संगठित करना अधिक आसान था, क्योंकि वे दूसरे देशों की फ्यूडल व्यवस्था के शिकार दलित समाज की तरह बिखरे नहीं, अपितु बिरादरी पंचायतों के माध्यम से पहले से संगठित समुदाय थे। एक बिरादरी के रूप में वे शक्तिशाली इतने थे कि असह्य स्थितियों में बिरादरी पंचायत का फैसला होने पर ये उन जमीदारों और भूस्वामियों से असहयोग कर सकते और उन्हें अपनी सेवाओं से वंचित कर सकते थे जिनसे सामान्यत: वे आंख तक नहीं मिला सकते थे। ऐसी स्थिति में उस पेशे से जुडा कहीं का कोई व्यक्ति उसकी सेवा के लिए तैयार नहीं हो सकता था। कहें जरूरत किसी अन्य देश की तुलना में अधिक होने के बाद भी उनके भीतर पैठ बनाना और उनको बड़े संगठन का अंग बनाना, उनमें आत्मविश्वास पैदा करना मजदूरों को संगठित करने की अपेक्षा अधिक आसान था।
ऐसी स्थिति मे उनको संगठित करने का प्रयत्न क्यों नहीं किया गया? जब किसानों को पार्टी से जोड़ने का खयाल आया भी तो भी दायरा बड़े और मझोले भूस्वामियों तक सीमित क्यों रह गया जब कि वे ही भूमिहीन कृषि मजदूरों के शोषक हुआ करते थे।
इन सभी सवालों का जवाब यह है कि उन्हें न तो अपने देश और समाज की समझ थी, न समझने की आकांक्षा थी। वे पश्चिमी समाज को अपने समाज पर आरोपित करके, इसे समझने का प्रयत्न कर रहे थे जैसे पाश्चात्य साहित्य पर मुग्ध हमारे लेखक उस साहित्य में व्यक्त अनुभूतियों और विचारों को स्वयं आत्मसात् करके उसका आरोपण अपने समाज पर करके उसका चित्रण करके इतना बारीक कात लेते हैं कि उनका साहित्य उनके जैसों की परिधि को पार ही नहीं कर पाता।
इन दोनों के बीच गहरा संबंध है। शोषित और दलित जनता से जुड़ने के लाख दावों के बावजूद प्रगतिशील साहित्य अपने समाज से जितना कटा रहा है उतना कटा दरबारी साहित्य तक नहीं रहा क्योंकि दरबारी होते हुए भी वह इस देश और समाज की अनुभूतियों और आकांक्षाओं का साहित्य था।
मुझे लगता है कि मार्क्सवादी सोच में एक खास तरह की यांत्रिकता इसलिए आ गई कि इसमें भौतिक पक्ष पर एकांगी बल दिया गया और यह मान लिया गया कि चेतना भौतिक परिस्थितियों की उपज है, भौतिक परिस्थितियों को बदल कर चेतना को इच्छित रूप में बदला जा सकता है।
यह अतिवाद था। इसमें इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया कि समान भौतिक परिस्थितियों में चेतना के रूप कितने भिन्न होते हैं और निरा भौतिक भी इतने ज्ञात और ज्ञेय घटकों से बना होता कि सबका हमें बोध तक नहीं होता, उनको नियंत्रित करना तो दूर की बात है। मार्क्स के अपने चिन्तन में उतना इकहरापन नहीं है जो नया संसार बसाएंगे, नया इंसान बनाएंगे का मंसूबा रखने वाले भारतीय मार्क्सवादियों में यथार्थ से कटे रहने और इसकी क्षतिपूर्ति के रूप में खयालों को यथार्थ मान लेने के कारण देखने में आता है। इसका चरित्र जिस दौर में हुआ उसमें अपनी जीवनशैली में नवाबी और अभिव्यक्ति में आग उगलने वाले लफ्फाजियों का जैसा जमघट कम्युनिस्ट पार्टी मे था, वैसा किसी अन्य दल में कभी नहीं रहा। मार्क्सवाद में आस्था रखने वाले उस धड़े में भी नहीं, जिसे सोशलिस्ट कह कर अलग कर दिया गया।
इन दोनों में बुनियादी अंतर यह था कि सोसलिस्टों (समाजवादियों) की जड़ें भारतीय समाज और मूल्यव्यस्था में थीं, जब कि कम्युनिस्टों की मानसिकता उपनिवेशवादी थी। समाजवादी समाज को बदलना चाहते थे, जब कि कम्युनिस्ट सत्ता पर कब्जा जमाना चाहते थे। पहले की आस्था लोकतंत्र में थी, दूसरे की तानाशाही में। पहले को समाज के कल्याण के लिए समाजवाद चाहिए था, दूसरे को अपना सिक्का जमाने के लिए। सच यह है कि कम्युनिस्टों में अधिकांश ऐसे थे जिन्हें लोकतांत्रिक भारत की कल्पना से डर लगता था, उसमें अपना भविष्य असुरक्षित लगता था। इनमें ऊंचे रुतबे के लोग थे, अल्पसंख्यक सिंड्रोम से ग्रस्त मानसिकता के लोग थे, और इन्होंने अपने प्रभाव से कम्युनिस्ट आन्दोलन को इतना बदला कि "जिन्ना के प्रशंसक लीग से बाहर यदि कहीं मिल सकते थे तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में और लीग की योजनाओं पर कहीं काम होता रहा तो कम्युनिस्ट पार्टियों में"।
क्रान्ति के सपनों के दिन लद गए तो सामाजिक क्रान्ति के नाम पर पुराण कथाओं को आधार बना कर अतीत में प्रचलित और आज अव्यावहारिक बन चुकी व्यवस्थाओं के विरोध के नाम पर सामाजिक उपद्रव भड़काने के अवसर तैयार करने में इसकी सारी ऊर्जा व्यय होती है। हिन्दू समाज को तोड़ने का ईसाइयत और मुसलिम लीग का कार्यभार इसका एक मात्र कार्यभार रह गया है। जो इतिहास की इतनी मोटी समझ रखते हैं कि यह विश्वास पाल सकें कि वे अपने बुद्धिबल से मिथक को इतिहास और इतिहास को मिथक बना सकते हैं, वे ही यह विश्वास पाल सकते हैं कि वे समाज को तोड़ कर समाज को और देश की संपत्तियों को नष्ट करके देश को मजबूत बना सकते हैं।
जो इतिहास को नहीं समझता वह न तो वर्तमान को समझ सकता है, न अपने समाज को, न अपने आप को। वह यह भी नहीं सझ सकता कि वह कर क्या रहा है और उसके परिणाम क्या होंगे। उदाहरण के लिए मार्क्सवाद का प्रधान लक्ष्य आर्थिक विषमता का उन्मूलन रहा है। सामाजिक विषमता का प्रधान कारण भी वह इसी को मानता रहा है। पूंजीपति आर्थिक लूट जारी रखने के लिए इस प्रयास में रहता है कि जन आक्रोश को सामाजिक समस्याओं की ओर मोड़ दिया जाय जिससे उसे मनमानी करने की पूरी छूट मिल सके।

वामपंथियों द्वारा आयोजित बीफ पार्टी

आज जब बीच-बीच में यह राग अलापा जाता है कि धनी-गरीब के बीच की खाई गहरी होती जा रही है, कि देश की 87 प्रतिशत पूंजी केवल 1 प्रतिशत पूंजीपतियों के पास जमा है और 99 प्रतिशत को केवल 23 प्रतिशत पर निर्भर रहना पड़ रहा है, उस समय सामाजिक विक्षोभ को अपना प्रमुख कार्यभार बना कर कोई किसका साथ दे रहा है या किसकी लूट के लिए पर्यावरण तैयार कर रहा है? महिषासुर को हथियार बना कर, निषिद्ध खान-पान का उत्सव मना कर या ऐसे ही दूसरे आयोजनों के माध्यम से वह आज की लड़ाई को किस युग के मैदान में उतर कर लड़ रहा है? यदि यही वैज्ञानिक तरीका है तो विज्ञान को नये रूप में परिभाषित करना होगा।
मेरे पाठकों में बहुतों को लग रहा होगा कि मेरा मार्क्सवाद का ज्ञान बहुत अच्छा नहीं है, और उनसे मैं स्वयं भी सहमत होना चाहूंगा, परन्तु मार्क्सवाद विचारदर्शन नहीं, कार्यदर्शन है। दुनिया को बदलने का दर्शन और इसकी परख इस आधार पर ही की जा सकता है कि भारतीय कम्युनिस्टों ने भारतीय समाज को किस रूप में बदला है, कहां तक बदला है, और वर्तमान में किनके साथ और किनके विरुद्ध हैं। इतिहास में आपकी नासमझी का स्रोत क्या रहा है और परिणाम क्या हुए?
हम इतिहास में केवल उस दुराग्रह की बात करेंगे जिसके चलते अयोध्या से लेकर राम तक, सरस्वती से लेकर सभ्यता या सभ्यता की प्रेरणा तक सब कुछ पश्चिम से आयात किया जाता रहा, और जब उस इतिहास को ध्वस्त कर दिया गया, और वैदिक और सैंधव सभ्यता का अभेद सिद्ध हो गया तो इतिहास की जगह थीम्स आफ हिस्ट्री पढ़ाई जाने लगी और हमले से तौबा किया गया पर फिर भी हड़प्पा सभ्यता को अनार्य बना कर पढ़ाया जाता रहा और वैदिक काल को परवर्ती कड़ी के रूप में पेश किया जाता रहा। आज भी स्थिति बदली न होगी और इसके आलोचकों की तरह मैं भी मानता हूं कि भाजपा की शिक्षा और संस्कृति की समझ खासी भोथरी है।
आज तो यह काम संभव ही नहीं, कल क्या रूप ले, पता नहीं।

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