महाशिवरात्रि -2

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महाशिवरात्रि -2
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शिवधाम कैलाश

गतांक से आगे
मूर्ति-पूजक भारतीय संस्कृति पर अनवरत अंतर्बाह्य आक्रमण चल रहे हैं। 6 फरवरी को मीनाक्षी मंदिर और केरल के कुछ और मंदिरों पर हमला हुआ। सोमनाथ पर आक्रमण लूट के लिए कम आस्था पर आक्रमण अधिक था। आज भी लोग मजाक बनाते हैं कि जब सोमनाथ पर आक्रमण हुआ ब्राह्मण शिवलिंग के भरोसे बैठे थे हालांकि यह अनन्यतम् प्रपन्नशरणागति जो बहुत लोगों को मूर्खतापूर्ण विचार लगता है, कितना दुर्लभ है साधक ही जानते हैं।
कभी नव आर्यसमाजी, कभी नवबौद्ध और अब्राहमिक तथा नास्तिक तो लगातार वैचारिक आक्रमण कर रहे हैं। लिंग पूजा पर आक्षेप तथा उसका मजाक उड़ाया जाना इसी षड्यंत्र की एक कड़ी भर है। लिंग पूजा अथवा मूर्ति पूजा क्षर से अक्षर की यात्रा है। क्षर दृश्य है, अक्षर का दर्शन होता है।
अमरनाथ शिवलिंग मूर्ति के पिघल जाने का प्रचार जोरों पर हुआ। इलेक्ट्रानिक मीडिया बर्फ निर्मित शिवलिंग का मजाक बनाता रहा है। समझने की बात है कि भौतिक जगत की प्रत्येक वस्तु क्षरणशील है- क्षर है। सिर्फ परम चेतना अक्षर है, अविनाशी है। क्षर इन्द्रिय गोचर "रूप-आकार" है। उसमें विद्यमान अक्षर आत्मानुभूति से ही जाना जा सकता है।
अभी शिवरात्रि और वैलेंटाईन एक साथ आ गए.. जोक्स बनाए जा रहे हैं। खैर,
विश्व के प्राचीनतम ज्ञान अभिलेख ऋग्वेद के ऋषि इन्द्र को "रूप रूपं प्रतिरूपो वभूव" कहते हैं। (1.47.18) वह विराट ऊर्जा प्रत्येक रूप में उसी के अनुरूप हो जाती है। सूर्य भी सूर्यो रूपं कृणुते है। रूपवान पृथ्वी का विस्तार अमित है। (1.72.9) अदिति भी वैसी ही हैं। अदिति द्युलोक अंतरिक्ष हैं, सभी देवता अदिति हैं, सप्त सिंधु के सभी निवासी भी अदिति हैं। (1.89.10) रूद्र "त्रयम्बकं यजामहें सुगन्धं पुष्टि वर्धनम्"- विश्व पोषण के संवद्र्धक हैं। (7.59.12)।
पर हिन्दू परम्परा विरोधी तत्वों की राय में शिव वैदिक देवता नहीं हैं, वे द्रविण देव हैं कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण के बाद शिव उपासना हड़प ली। मार्शल का आरोप (मोएनजोदड़ो एण्ड दि इण्डस सिविलाइजेशन खण्ड 1 पृष्ठ 54) है कि वैदिक रूद्र की उपासना शिव से मिला दी गई। लेकिन मैक्डनल ने "वैदिक मिथोलोजी" (पृष्ठ 77) में बताया "रूद्र क्रोधी थे, लोग उनके क्रोध से डरते थे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए बार-बार शिव रूप में याद किया।"
झूठ के पांव नहीं होते। सो झूठ लम्बी यात्रा नहीं करता। जो नहीं होता, वही झूठ होता है और जो झूठ होता है वह अधिक दिन नहीं टिकता। शिव को बाद में रूद्र बनाने के आरोप मनगढ़ंत हैं, झूठ हैं।
रूद्र ऋग्वेद में शिव भी हैं। 10वें मंडल के सूक्त 92 के ऋषि गाते हैं- "स्तोमं वो अद्य रूद्राय- हम रूद्र की स्तुति करते हैं जो, येभि: शिव: स्ववां-स्वयं शक्ति सम्पन्न कल्याणकारी हैं।" (मंत्र 9) ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के सूक्त 114 में 11 मंत्र हैं। सभी मंत्र रूद्र देव को अर्पित हैं। रूद्र यहां जटाधारी हैं। वे अपने हाथ में दिव्य आरोग्यदायी औषधियां रखते हैं। स्तुतिकर्ताओं को मानसिक शांति देते हैं। मनुष्य शरीर में मौजूद विष दूर करते हैं। (मंत्र 1-6) वे मरूद्गणों के पिता हैं। सुरक्षा के लिए उनकी स्तुतियां की जाती हैं। (मंत्र 9-11) ऋग्वेद की यही परम्परा यजुर्वेद में खुलकर खिलती है। यजुर्वेद का 16वां अध्याय रूद्र उपासना पर है। ऋषि रूद्र का निवास पर्वत की गुहा में बताते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं। चौथे मंत्र में वे रूद्र "शिवेन वचसा" हैं, शिव हैं। पांचवें में वे प्रमुख प्रवक्ता, प्रथम पूज्य हैं। वे नीलकण्ठ "नमस्तेअस्तु नीलग्रीवाय" हैं। (मंत्र 8) फिर वे सभारूप हैं, सभापति भी हैं। (मंत्र 24) सेना और सेनापति भी (मंत्र 25) वे सृष्टि रचना के आदि में प्रथम पूर्वज हैं और वर्तमान में भी विद्यमान हैं। वे पोखर, कूप और नदी में भी उपस्थित हैं। वायु प्रवाह, प्रलय वास्तु, सूर्य, चन्द्र में भी वे उपस्थित हैं। (मंत्र 37-39) मंत्र 49 में वे रूद्र फिर शिव "या ते रूद्रशिवा" हैं। मंत्र 51 में वे इष्टफल दायक "शिवतम शिवो:" हैं। वे ऋग्वेद में हैं, वे यजुर्वेद में हैं। एक जैसे हैं। रूद्र शिव हैं, शिव रूद्र हैं। "त्र्यम्बकं यजामहे" ऋग्वेद में है, यजुर्वेद में भी (3.58) है।
शिव उपासना का अनुष्ठान लिंग पूजा के रूप में भी अति प्राचीन है। मार्शल ने हड़प्पा खुदाई से प्राप्त मूर्तियों के आधार पर कहा है, "इससे निश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि लिंग पूजा का उद्भव भारत में आर्यों से पहले हुआ।" (वही खण्ड 1 पृष्ठ 59)। मार्शल आर्यों को आक्रमणकारी मानते थे। लेकिन उनके कथन में लिंग पूजा की प्राचीनता की स्थापना है। तथ्य यह है कि हड़प्पा सभ्यता प्राचीन ऋग्वैदिक सभ्यता का विस्तार थी।
आर्य आक्रमण दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है। ऋग्वेद में कम से कम दो बार "शिश्न देवा:" का उल्लेख है। ऋग्वैदिक काल में ज्ञान और पूजा कर्मकाण्ड की कई धाराएं थीं। एक जगह (7.21.5) शिश्न देवों को यज्ञ से दूर रखने की प्रार्थना है। जाहिर है कि यज्ञ विभिन्न देव प्रतीकों को समर्पित थे। जो यज्ञ हो रहा है, वह "शिश्न देव" से भिन्न देवता का हो सकता है।
ऋग्वेद की रूद्र उपासना वाला "त्र्यम्बकं यजामहे" मंत्र उत्तर वैदिक काल में महामृत्युंजय मंत्र कहलाया। लिंग सृष्टि के सतत् प्रवाह, प्रजनन और सुगंधि पुष्टि वर्धनम्-पोषण का प्रतीक बना। दुनिया की किसी भी संस्कृति सभ्यता में काम देवता नहीं है, लेकिन भारत में सभी देवों में "काम ज्येष्ठा" हैं। काम दिव्य, सर्जन शक्ति है, लिंग दिव्य सर्जन ऊर्जा का प्रतीक है।
शिवपुराण के अनुसार विष्णु ने शिव पूजा के जरिए सुदर्शन चक्र पाया। शिव सहस्त्रनाम में विष्णु ने एक मंत्र (श्लोक 36) में शिव को "लिंगाध्यक्ष, सुराध्यक्ष, योगाध्यक्षो युगावह: स्वधर्मा, स्वर्गत: स्वर्गवर: स्वरमयस्वन:" गाया- वे लिंगाधिपति, सुर अधिपति, योगाधिपति, युग धारक, स्वधर्मरत, दिव्य धाम स्थित, दिव्यधाम में सर्व प्रिय, सभी सुरों (सात) में गाया जाने वाला बताया है। लिंग सृष्टि सर्जन शक्ति की भावभिव्यक्ति मूर्ति है। शिव पुराण के अनुसार शिव निराकार हैं। वे मनुष्य नहीं हैं उनका साकार रूप लिंग है।" लिंग प्रतीक है।
कालिदास भारतीय साहित्य परम्परा में शलाका पुरुष हैं। कालिदास शिवभक्त थे, हालांकि उनके शाक्त झुकाव के अभिमत भी प्राप्त होते हैं। वे ऋग्वेद की परम्परा बढ़ाते हुए "कुमारसम्भव" में कहते हैं, "ब्राह्मा, विष्णु, महेश एक ही मूर्ति के तीन रूप हैं। कभी शिव विष्णु से बढ़ जाते हैं, कभी ब्रह्मा इन दोनों से और कभी ये दोनों ब्रह्मा से बढ़ जाते हैं।" यहीं कालिदास ब्रह्मा के मुंह से शिव महिमा कहलवाते हैं, "शंकर अन्धकार से पार रहने वाले परमतेज हैं। अविद्या उन्हें छू नहीं पाती। हम और विष्णु उनकी महिमा का ठिकाना नहीं लगा पाये।" रघुवंश के पहले श्लोक में कालिदास शिव पार्वती का स्मरण करते हैं।
कालिदास शिवभक्त थे, ब्रह्मवादी थे, ब्रह्म को शिव मानते थे। तुलसीदास भी दार्शनिक स्तर पर ब्रह्मवादी थे। रामभक्त थे, समूची सृष्टि का सियाराममय देखते थे, लेकिन उन्होंने अपने आराध्य श्रीराम से शंकर की उपासना करवाई और "शिवद्रोही मम दास कहावा , सो नर सपनेहुं मोहि न पावा" की बात स्वयं श्रीराम ने कही।
महाभारत की रचना तुलसी की रामचरित मानस से पुरानी है। बेशक रामकथा त्रेता की है, महाभारत उसके बाद द्वापर की। जैसे भगवान श्रीराम परमात्म-पुरुष होकर भी शिव उपासक हैं, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण भी शिव उपासक थे। महाभारत के अनुशासन पर्व में कृष्ण की शिव उपासना का प्रीतिकर वर्णन है। कृष्ण की एक पत्नी जाम्वती के पुत्र नहीं हुए। कृष्ण पुत्र की इच्छा से तप के लिए हिमालय गये। उनकी भेंट शिवभक्त उपमन्यु से हुई। उपमन्यु ने कृष्ण को बताया "आप भगवान शिव को खुश कीजिए। इसमें कोई संशय नहीं आप अपने समान पुत्र पायेंगे।" (अनुशासन पर्व 14.68-70) भारतीय देवतंत्र के सारे देवता ऋग्वैदिक काल से ही अमृत बन्धु हैं। वे अमर हैं परन्तु शिव की बात दूसरी है वे पाशुपत अस्त्र से युक्त हैं। इस अस्त्र के लिए ब्रह्मा विष्णु भी अबध्य नहीं हैं। (वही : 264)।
परशुराम को भी शिव ने ही परशु दिया था। सभी देवता शिव को वरिष्ठ मानते हैं। ब्रह्मा ने रथंतर साम के जरिए शिव आराधना की। इन्द्र ने शतरूद्री पढ़ी (14.282-84) सो कृष्ण ने उपमन्यु से शिव स्तुति की सीख ली, तप किया। कृष्ण को शिव के दर्शन मिले। कृष्ण ने कहा, "सहस्त्रों सूर्यों का सा तेज दिखाई पड़ा।" अर्जुन ने कृष्ण का विश्वरूप देखकर जो शब्द कहे थे, ठीक वही शब्द "दिव्य सूर्य सहस्त्राणि" कृष्ण ने शिव दर्शन के बाद कहे। फिर कहते हैं "जब मैंने भगवान हर (शिव) को देखा, मेरे रोंगटे खड़े हो गए। 12 आदित्य, 8 वसु, विश्वेदेव, अश्विनी कुमार आदि देव महादेव की स्तुति कर रहे थे। इन्द्र और विष्णु अदिति और ब्रह्मा शिव के निकट रथंतर सामगान कर रहे थे।" (14.386-92) यहां कृष्ण ऋग्वैदिक परम्परा वाले देवताओं के नाम दुहराते हैं। कहते हैं, "पृथ्वी, अंतरिक्ष, ग्रह, मास, पक्ष, ऋतु संवत्सर, मुहूर्त निमेष, युग चक्र तथा दिव्य विद्याएं शिव को नमस्कार कर रहे थे।"
यहां विज्ञान की ताजी टाइम-स्पेस दिक्काल धारणा साफ है। काल की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी इकाई शिव आराधक हैं। शिव महाकाल हैं। शिव ने कृष्ण से कहा, "तुमने पहले भी सैकड़ों-हजारों बार मेरी आराधना की है।" (वही) वैदिक परम्परा के सारे देवता परम ऐश्वर्यवान हैं। अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मरूद्गण और अश्विनी कुमार भी सारी सृष्टि को प्रभावित करते हैं। अदिति को ही देखिए, "अदिति: द्यौ:, अदिति: अंतरिक्ष- अदिति द्यावा है, अदिति अंतरिक्ष है।" अदिति: माता, स: पिता, स: पुत्र: अदिति: विश्वे देवा: और जो कुछ पीछे हुआ, आगे होगा वह भी अदिति। (ऋ.1.89.10) यही स्थिति वाणी देवी की भी है। वाणी सारे भुवनों को धारण करती है। अदिति की जगह शिव या अन्य कोई भी नाम रख दें, तत्व निरूपण वही होगा।
ऋग्वैदिक ऋषियों ने छोटे-बड़े देवता नहीं देखे, जिन्हें देखा, पूरा का पूरा देखा। भारत के सुदूर अतीत में दिव्य दृष्टि और प्रीतिकर सत्य खोजी परम्परा है। उसी परम्परा का पाथेय लेकर हम सबको सामाजिक पुनर्गठन के आदर्श लेने चाहिए। सम्प्रति भारत को एक जन, एक संस्कृति, एक राष्ट्र न मानने वाली शक्तियां यहां के देव प्रतीकों, आस्था और आस्था केन्द्रों पर आक्रामक हैं और भारतीय परम्परा का मजाक बनाती हैं।
भारतीय संस्कृति का रूप विधान सत्य, शिव और सुन्दर है। इसका शिव प्रतीक लिंग रूपा है। बड़े हिम्मतवर थे हमारे पूर्वज, शिव को लिंग रूप में देखा और पूजा।
इसी परम्परा में इसी तरह की हिम्मत और आस्था से ओत-प्रोत लाखों श्रद्धालु आज भी कष्टसाध्य यात्रा करते हुए जान की बाजी लगाकर अमरनाथ दर्शन को जाते हैं, वे बर्फ का शिवलिंग ही नहीं देखने जाते। बर्फ अस्थाई रूप है, बर्फ पानी बनती ही है। पानी भी अस्थाई रूप है, वह भाप बनता है। रूप बदला करते हैं, अरूप जस का तस रहता है। रूप देखा जाता है, अरूप का दर्शन होता है। जाहिर है कि दर्शन का मतलब सिर्फ देखना नहीं होता। दर्शन आत्मिक अनुभूति है। क्या हुआ जो बर्फ का शिवलिंग पिघल गया?
लेकिन ऐसे मजाक के प्रतिकार के लिए शिवत्व को रूद्रत्व में बदलने की आवश्यकता है।
क्रमशः

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