इंडोफीलिया का उपचार
“जहर का उतार जहर है” तो अपनी इंडोफीलिया से मुक्ति के लिए भारतीयों में यूरोफीलिया पैदा करना। इंडोफोबिया से मुक्त होने के लिए भारतीयों के मन में यूरोफोबिया पैदा करना। यदि भारत में काम करने वाले कंपनी के गोरे कर्मचारियों की विवशता यह थी कि उन्हें भारतीय भाषाएं सीखनी पड़ती थीं और इसके कारण वे भारतीयों के संपर्क में आकर उनके विचारों, आदर्शों से प्रभावित होते थे
Bhagwan Singh | Updated on:16 Dec 2017 5:15 PM GMT
“जहर का उतार जहर है” तो अपनी इंडोफीलिया से मुक्ति के लिए भारतीयों में यूरोफीलिया पैदा करना। इंडोफोबिया से मुक्त होने के लिए भारतीयों के मन में यूरोफोबिया पैदा करना। यदि भारत में काम करने वाले कंपनी के गोरे कर्मचारियों की विवशता यह थी कि उन्हें भारतीय भाषाएं सीखनी पड़ती थीं और इसके कारण वे भारतीयों के संपर्क में आकर उनके विचारों, आदर्शों से प्रभावित होते थे
"जहर का उतार जहर है" तो अपनी इंडोफीलिया से मुक्ति के लिए भारतीयों में यूरोफीलिया पैदा करना। इंडोफोबिया से मुक्त होने के लिए भारतीयों के मन में यूरोफोबिया पैदा करना। यदि भारत में काम करने वाले कंपनी के गोरे कर्मचारियों की विवशता यह थी कि उन्हें भारतीय भाषाएं सीखनी पड़ती थीं और इसके कारण वे भारतीयों के संपर्क में आकर उनके विचारों, आदर्शों से प्रभावित होते थे तो ऐसा उपाय करना कि यह संबन्ध दूरी बनाए रखते हुए, ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हुए कि उल्टे वे अंग्रेजी सीखे और उन्हें अंग्रेजी संस्थाओं और शिक्षाप्रणाली की श्रेष्ठता से अवगत कराते हुए अपनी धाक कायम की जाय, और स्वयं हिन्दुओं को धर्मांतरित करने की खुली छूट ईसाई मिशनरियों को दी जाय, हिन्दू समाज की विकृतियों को उभारते हुए उनमें हीनता पैदा की जाय और उनको दूर करते हुए उनके उद्धारक की भूमिका निभाई जाय।
कंपनी यहां व्यापार करने और कमाने आई थी, प्रशासनिक और सामाजिक सुधार के लिए नहीं आई थी, न ही पुर्तगालियों की तरह धर्मप्रचार और व्यापार को समान महत्व देती थी। पुर्तगाल की समस्या उसके सटे स्पेन में इस्लाम के बढ़ते प्रभाव के कारण अंग्रेजों से भिन्न थी। उसमें आर्थिक लाभ और धार्मिक प्रतिहिंसा दोनों समान रूप से प्रबल थी। ब्रिटिश कंपनी का ध्यान शुद्ध लाभ पर था। वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती थी जिससे भारतीय समाज में क्षोभ या उत्तेजना पैदा हो। दूसरी योजनाओं को लागू करने के लिए लंबी तैयारी की जरूरत थी जिसे मात्र चाहने से हासिल नहीं किया जा सकता था। फ्रेंच भी एक प्रतिस्पर्धी शक्ति के रूप में मौजूद थे। अपने भारतीय उपनिवेश में भारतीयों से उनका व्यवहार अधिक सम्मानजनक और आर्थिक दोहन कष्टसाध्य न था इसलिए वहां की जनता सभी मामलों में अधिक खुशहाल थी इसे इक्के दुक्के अंग्रेज लेखकों ने जिनमें एक लुडलो भी थे साफ स्वीकारा था। प्रशासन में कंपनी की रुचि सुशासन के लिए न होकर इसकी कर वसूली से होने वाले लाभ के कारण थी जो व्यापार की तुलना में कहीं बहुत अधिक था और इसे और बढ़ाने के लिए अभी भारत के बहुत सारे राज्य और रियासतें जीतने को थीं। ये सारे काम बहुत सूझ बूझ से किए जाने थे।
आरंभ में भारतीय मूल्यों से अभिभूत, भारत में कार्यरत गोरों और यूरोपवासियों में यह विश्वास पैदा करना कि जो कुछ बताया जा रहा है वह पूरी निष्पक्षता और गहन सोच विचार के बाद किया जा रहा है, क्योंकि ये ग्रन्थियां उनके अपने मन में थी, न कि उनको हिन्दुओं की ओर से उन्हें कोई चुनौती मिल रही थी। एक बार उनकी सोच बदल गई तो उनके रुख, कार्य और विचार से क्रमश: छन कर यह विचार भारतीयों में भी उतरना ही था। अब इन्हीं परिस्थितियों में अपनी भूमिका 'सर' बनाए जा चुके विलियम जोन्स ने कितने धैर्य, दक्षता और दूरदर्शिता से निभाई, यह देखा जा सकता है।
याद दिला दें कि जिन आमंत्रित सज्जनों की श्रोता मंडली में उन्होंने अपने व्याख्यान दिए उनमें एक भी भारतीय नहीं था। सभी कंपनी के उच्चपदस्थ अंग्रेज अधिकारी और दूसरे प्रभावशाली सदस्य थे। अब निम्न तथ्यों और अर्धसत्यों पर ध्यान दें:
1. उन्होंने अपने आरंभिक व्याख्यानों में ही बताया था कि यूरोप का आदमी, चाहे किसी भी देश का हो, दूसरी किसी जाति के व्यक्ति से इतना गरिमामय लगता है कि कोई बराबरी हो ही नहीं सकती थी।
इसमें सन्देह नहीं कि जिस चरण पर यूरोप से भारत का सीधा सामना हुआ यूरोप के लगभग सभी देशों में कुछ कर दिखाने की ऊर्जा, दूसरों से आगे बढ़ जाने की स्पर्धा, कर्मठता अपने चरम पर थी और नौचालन में उन्होंने जो प्रगति की थी उसमें एशियाई प्रतिस्पर्धियों को बहुत पीछे छोड़ दिया था। बारूदी हथियारों के विकास में भी आगे थे। आज तो वैज्ञानिक और तकनीकी मामलों मे उनकी पहल, प्रयोग और उपलब्धियां ऐसी हैं कि उन्हें जगद्गुरु न कहा जाय (क्योंकि उनका प्रयत्न ब्राहमणों की तरह सारा ज्ञान और कौशल छिपाकर अपने पास रखने और दूसरों को अपने उत्पादित ज्ञान और माल का उपभोक्ता बनाकर रखने का है), फिर भी दूसरों के पास जो पहुंचा है वह उनसे ही चुराकर, नकल कर, छीन कर पहुंचा है, इसलिए बोध के स्तर पर वह गर्व और आतमविश्वास उनमें पंद्रहवीं शताब्दी से बना रहा है, परन्तु समृद्धि और उच्च जीवनशैली के मामले में उस समय तक वे मुगलों की नकल कर रहे थे, ऐयाशी के मामले में बाद में भी पूरी तरह समाप्त न हुआ और सांस्कृतिक स्तर पर उन्होंने अनेक हिन्दू मूल्यों को आत्मसात् करके अपने को परिष्कृत किया था।
हम केवल यह कहना चाहते हैं कि यूरोप और गोरी नस्लों की श्रेष्ठता का बोध जोंस में किसी अन्य से कम न था, जिसके कारण यूरोप में संस्कृत भाषा को मूलत: हिन्दुओं की भाषा मानने पर अन्तर्व्यथा हो रही थी। हिन्दू उनकी समझ से भी अधोगति में थे और गर्हित प्रतीत हो रहे थे (..nor we reasonably doubt how degenerate and abased for ever the Hindus may now appear)।
यह विजेताओं का अहंकारी आत्मबोध था, जब कि भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा शोषण, दमन और दोहन के कारण विपन्न और असहाय तो था, पर मनोबल के स्तर पर हिन्दू को अपनी मूल्य व्यवस्था के कारण इतना आत्माभिमान था कि इसके दलित/ दमित, और आर्थिक दृष्टि से विपन्न तबकों को भी गोरों का मजहब कबूल न था और वे उनका 'उद्धार' करने के लिए माथा रगड़ रहे थे।
2. मैंने जिन पंक्तियों को ध्यान से, एकाधिक बार पढ़ने को कहा था मुझे विश्वास है लाइक करने वालों ही नहीं, टिप्पणी करने वालों ने भी ऐसा न किया होगा। इसलिए मैं उसे दुबारा उद्धृत करते हुए, उसके मर्म को, जैसा मैने समझा है, आप को समझाना चाहूंगा। पहला वाक्य:
The five principal nations, who have in different ages divided among themselves, as a kind of inheritance, the vast continent of Asia, with the many islands depending on it, are the Indians, the Tartars, the Arabs and the Persians: who they severally were, whence, and when they came, where they now are settled, and what advantage a more perfect knowledge of them all may bring to our European world, will be shown , I trust, in five distinct essays; the last of which will demonstrate the connexion or diversity between them, and solve the great problem, whether they had any common origin, and whether that origin was the same, which we generally ascribe to them.
(१) वह एशिया की पांच मुख्य जमातों (जातीयताओं) की बात कर रहे हैं, जिसमें चीन अनुमानत: तुर्कों (तातारों) द्वारा आबाद है।
(२) उन्होंने समय समय पर इसे अपनी बपौती के रूप में आपस में बांटा, अर्थात् ये सभी किसी एक पूर्वज की सन्तानें हैं। जिस बात पर मैं ध्यान दिलाना चाहता था वह यह कि यहां जोन्स नहीं बोल रहे हैं, नोआ की सन्तानों मे से एक द्वारा एशिया बसाने की ईसाई पुराणकथा बोल रही है।
(३) जोन्स कह रहे थे कि एशिया के सभी लोग एक ही पिता की सन्तानें थे इसलिए उनका मूल निवास कोई एक रहा होगा, जहां से वे बिखर कर अलग जा बसे होंगे, जहां आज हम उन्हें पाते हैं।
(४) अर्थात् आज जहां बसे दिखाई देते हैं वह उनकी मूलभूमि नहीं है।
(५) मूल भूमि क्या है, वह आगे के शोधकार्य को इसी समस्या के समाधान के लिए जारी रखने वाले थे।
(६) वह भाषा जो उनके उस पूर्वज की भाषा थी वह तो इनमें से किसी की भाषा नहीं हो सकती, परन्तु कोई ऐसी हो सकती है जिसके तत्व सभी में मिलें।
(७) सभी में जिसके तत्व पाए जाते हैं वही मूल भाषा के सबसे करीब है, और इस दृष्टि से संस्कृत ही वह भाषा थी जिसके तत्व अरबी और चीनी सहित सभी में पाए जाते है।
(८) जो नहीं कहा गया वह यह है कि नोआ की तीन सन्तानों हैम, सैम और जैफेट मे से तीसरे की सन्तानों से एशिया और यूरोप की जातियां पैदा हुई है, पर जैफेट की जबान भले संस्कृत में सबसे अधिक बची रह गई हो, वह संस्कृत नहीं रही हो सकती। संस्कृत सहित यूरोप और एशिया की भाषाएं उसी से निकली हो सकती हैं और इसलिए देखने में भले लगे कि यूरोप और ईरान की सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, ये सभी सहोदरा हैं, भले संस्कृत इनकी सबसे बड़ी बहन हो। इस बात को उन्होंने दो टूक शब्दों में इसी व्याख्यान में कुछ बाद में कहा।
3. जो नहीं कहा गया वह यह है कि नोआ की तीन सन्तानों हैम, सैम और जैफेट मे से तीसरे की सन्तानों से एशिया और यूरोप की जातियां पैदा हुई है, पर जैफेट की जबान भले संस्कृत में सबसे अधिक बची रह गई हो, पर वह संस्कृत नहीं रही हो सकती। संस्कृत सहित यूरोप और एशिया की भाषाएं उसी से निकली हो सकती हैं और इसलिए देखने में भले लगे कि यूरोप और ईरान की सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, ये सभी सहोदरा हैं, भले संस्कृत इनकी सबसे बड़ी बहन हो। इस बात को उन्होंने दो टूक शब्दों में इसी व्याख्यान में कुछ बाद रखा था।
4. किसी को ऐसा न लगें कि वह भारत के प्रति नकारात्मक रुख रखते हैं इसलिए अपने मन्तव्य को स्वीकार्य बनाने के लिए भारत के अतीत गौरव को उन्होंने बहुत खुल कर, बल्कि कुछ लफ्फाजी के साथ पेश किया थाः
The inhabitants of this extensive tract are described by Mr Lord with great exactness, and with picturesque elegance peculiar to our ancient language: "A people, says he, presented themselves to mine eyes, clothed in linen garments somewhat low descending , of a gesture and garb, as I may say, maidenly and well neigh effeminate, of a countenance shy and somewhat estranged, yet smiling out a glozed and bashful familiarity." Mr. Orme, the Historian of India, who unites an exquisite taste for every fine art with an accurate knowledge of Asiatic manners, observes, in his elegant preliminary Dissertation , that this "country has been inhabited from the earliest antiquity by a people who have no resemblance, either in their figure or in their manners, with any of the nations contiguous with them" and that, "although conquerors have established themselves at different times in different parts of India, yet the original habitants have lost very little of their original character." The ancients, in fact, give a description of them, which our early travelers confirmed, and our own personal knowledge of the nearly verifies; as you will perceive from a passage in the Geographical Poem of Dionysius which the analyst of ancient Mythology has translated with great spirit:
"To th' east a lovely country wide extends
"INDIA, whose borders the wide ocean bounds;
"On this the sun, new rising from the main,
"Smiles please'd , and sheds his early orient beam.
"Th' inhabitants are swart , and in their locks
"Betry the tint of the dark hyacinth.
"Various their functions; some the rock explore,
"And from the mine extract the latent gold;
"Some labour at the woof with cunning skill,
"And manufacture linen; others shape
"And polish iv'ry with nicest care;
"Many retire to rivers shoal, and plunge
"To seek the beryl flaming in its bed,
"Or glittering diamond. Oft the jasper's found
"Green, but diaphanous; the topaz too
"Of ray serene and pleasing; last of all
"The lovely amethyst, in which combine
"All the mild shades of purple. The rich soil,
"Wash'd by a thousand rivers, from all sides
"Pours on the natives wealth without control."
Their sources of wealth are still abundant even after so many revolutions and conquests; in their manufacturers of cotton they still surpass all the world; and their features have, most probably, remained unaltered since the time Dionysius; nor we reasonably doubt how degenerate and abased for eve the Hindus may now appear, that in the some early age they were splendid in arts and arms, happy in government, wise in legislation, and eminent in various knowledge: but, since their civil history beyond the middle of the nineteenth century from the present time, is involved in the cloud of fables, we seem to possess only four general media of satisfying our curiosity concerning it; namely, first, their Languages and Letters ; secondly, their Philosophy and Religion; thirdly, the actual remains of their old Sculpture and architecture; and fourthly, the written memorial s of their Sequence and arts.
और भाषा पर विचार करते उन्होंने कहा थाः
The Sanscrit language whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either, yet bearing with both of them a stronger affinity, both in roots of verbs and in the forms of grammar, than could possibly have been produced by accident; so strong indeed, that no philologer could examine them all three, without believing them to have sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists; there is a familiar reason, though not quite forcible, for supposing that both the Gothick and the Celtick, though blended with a very different idiom, had the same origin with the Sanscrit; and the Old Persian might be added to the same family, if this were the place for discussing any question concerning the antiquities of Persia.
उनके इस एक पैराग्राफ को बिना समझे बूझे, मोहन मंत्र की तरह धुरीण माने जाने वाले विद्वानों द्वारा भी दुहराया जाता रहा मानो इसका उद्देश्य संस्कृत भाषा का महत्व समझाना हो जब कि लक्ष्य श्रोताओं और उनके माध्यम से भारतीय पंडितों के मन में यह उतारना था कि संस्कृत अन्य भारोपीय भाषाओं की जननी नहीं है और संस्कृत बोलने वाले भारत में कहीं अन्यत्र से आए थे। विलियम जोंस की पड़ताल हम आगे भी जारी रखेंगे। क्रमशः