भारतभक्ति का दूसरा नमूना

  • whatsapp
  • Telegram
भारतभक्ति का दूसरा नमूना
X
Friedrich Max Müller: Philologist and Orientalist

भारतभक्ति के लिए जिस दूसरे प्राच्यवादी को याद किया जाता रहा है वह हैं मैक्स मुलर उन्होंने यदि ऋग्वेद और अन्य पवित्र ग्रन्थों का ब्राह्मणों के चंगुल से उद्धार न किया होता तो मै ऋग्वेद पर बात करना तो दूर, उसकी प्रति तक का दर्शन नहीं कर सकता था। मैं इसके लिए उनका ऋणी हूं। हमारे पुरातन ज्ञान को प्राच्यवादियों ने ही सर्वसुलभ कराया, अन्यथा ब्राह्मणवादी कूपमंडूकता के चलते, शिक्षा और ज्ञान के ठेकेदार ब्राह्मणों को भी वेद-पुराण का नाम तो पता रहता था, पर उन्होंने उनकी शक्ल तक न देखी थी। जिन्होंने शक्ल देखी थी उनमें से अधिसंख्य ने उनकी पूजा की थी। जिन इक्के-दुक्कों ने पढ़ने का साहस जुटाया था वे भाषा की दुरूहता या लिपि की अपाठ्यता के कारण उन्हें समझ नहीं पाते थे। दुर्लभ थे ऐसे लोग जो वेद को पढ़ते और कुछ-कुछ समझते रहे हों। अधिक प्राचीन लिपियों (जैसे ब्राह्मी या उसके विकास की कतिपय अवस्थाओं में) लिखे लेखों को तो पढ़ ही नहीं सकते थे। हमारी अपनी ही ज्ञान संपदा के एक बड़े अंश की खोज, पाठ निर्धारण, संपादन, अनुवाद और प्रकाशन उन्होंने किया जिनमें सबसे महत्वूर्ण ऋग्वेद का प्रकाशन था। उनके निर्देशन में प्राच्य धर्मग्रंथों का अनुवाद सैक्रेड बुक्स आफ द ईस्ट ग्रंथमाला का प्रकाशन हुआ। मैक्समुलर के इस प्रयास से भारतीय इतने अभिभूत थे कि उनके नाम का अर्थोत्कर्ष करके उन्हें मोक्षमूलर का विरुद दे दिया।
पर प्रश्न यह है कि वह किसका काम कर रहे थे, अपना या हमारा? वह किस के हित में काम कर रहे थे? अपने कथन में वह ईमानदार थे, या उन्हीं के शब्दों में साहित्यिक कूटनीति का परिचय दे रहे थे?
More than twenty years have passed since my revered friend Bunsen called me one day into his library at Carlton House Terrace, and announced to me with beaming eyes that the publication of the Rig-veda was secure. He had spent many days in seeing the Directors of the East-India Company, and explaining to them the importance of this work, and the necessity of having it published in England. At last his efforts had been successful, the funds for printing my edition of the text and commentary of the Sacred Hymns of the Brahmans had been granted, and Bunsen was the first to announce to me the happy result of his literary diplomacy. 'Now,' he said, 'you have got a work for life--a large block that will take years to plane and polish.' 'But mind,' he added, 'let us have from time to time some chips from your workshop.'
और इसी के परिणाम थे वे लेख जिनका प्रकाशन 'चिप्स फ्राम ए जर्मन वर्कशाप के पांच खंडो में हुआ। बंसेन ने कंपनी के डाइरेक्टर्स को यह तो समझा लिया कि इसके प्रकाशन से कंपनी का फायदा होगा, पर हमें केवल अनुमान के सहारे ही यह पता चल सकता है कि वह फायदा क्या था। जिस बात पर किसी विवाद की संभावना नहीं वह यह कि कोई किसी का वित्त पोषण तभी करता है, उसका मान सम्मान उत्साहपूर्वक तभी करता है जब वह उसके काम आ रहा हो।
हमारा अनुमान यह है कि कंपनी को हिन्दुओं के धार्मिक साहित्य में कोई रुचि नहीं थी, परन्तु जब उसे यह समझाया गया कि हिन्दू वेद की आप्तता पर भरोसा करते है पर वेद की दुहाई देने वालों तक को पता नहीं कि उसमें क्या लिखा है। जब इसके प्रकाशन से उन्हें पता चलेगा कि इसकी तुलना में ईसाइयत कितनी आगे है तो उनके धर्मान्तरण का काम आसान हो जाएगा और हिन्दुओं की हेकड़ी कम हो जाएगी जो प्रशासनिक दृष्टि से सुविधाजनक होगा। कहें ऋग्वेद का प्रकाशन हमारे लाभ के लिए नहीं, ईसाइत के प्रसार के लिए किया जा रहा था।
इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि मैक्समुलर ने, या कहें, यूरोपीय प्राच्यविदों ने जिस विपुल साहित्य का उद्धार किया था वह केवल और केवल धार्मिक प्रकृति का था । इसके अतिरिक्त उनकी रुचि व्याकरण और भारतीय भाषाओं में थी। भाषा में रुचि इसलिए कि इस पर अधिकार करके, और इसके अधिकारी भारतीय विद्वानों को अपनी सेवा में लगाकर वे यह धाक जमा सकें कि संस्कृत पर भी उनका अधिकार भारतीय पंडितों से अधिक है, उनसे मतभेद होने पर स्वयं उनकी व्याख्या अधिक मान्य है। दूसरे सारा झमेला ही संस्कृत की श्रेष्ठता और उसकी मूलभूमि को लेकर आरंभ हुआ था, इसलिए भाषा का क्षेत्र उनकी समरभूमि थी। अपनी ग्लानि से उबरने का बहाना तलाशने के बाद उनका दूसरा लक्ष्य था भारतीयों की चेतना में यूरोप की सर्वमुखी और सार्वकालिक श्रेष्ठता और सभी मजहबों में ईसाइयत की श्रेष्ठता का कायल बनाना और इसे एशियाई देशों में यूरोफीलिया, यूरोफोबिया और ख्रिष्टोफीलिया तक पहुंचाना। कहें उसी योजना पर मैक्समुलर भी काम कर रहे थे जिस पर स्टुअर्ट मिल ने काम किया था। यदि दोनों में कोई अंतर था तो वह तरीके और मिजाज का था। मिल कुतर्क के सहारे ध्वंसकारी की भूमिका में समग्र का निषेध कर रहे थे, जब कि दूसरे सभी प्राचीन काल में हिन्दुओं की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए बाद में, विशेषत: मध्यकाल से उनकी दुर्गति की बात करते थे। इसमें वह कम्युनल नजरिया उलट जाता था जिसमें मिल ने मध्यकाल को प्राचीन भारत से हर दृष्टि से अच्छा सिद्ध किया था।
हम इस बहस में नहीं पड़ सकते कि इन दोनों में कौन कितना सही था, पर इतिहास में लौट कर यह निवेदन कर सकते हैं कि मिल ने पोर्तुगीजों का दमन, उत्पीड़न का वह तरीका अपनाया जो पुर्तगालियों ने आरंभ में अपनाया था, जिसके लिए जेवियर्स जाने जाते हैं, पर जो भारतीय मनोबल के आगे कुफलदायक सिद्ध हुआ और भारत से बाहर जाते हुए उन्हें भी अपना तरीका बदलना पड़ा। प्राच्यवादियों ने विविध अनुपातों में नोबिली का तरीका अपनाया जिसकी विस्तार में चर्चा संभव नहीं, पर इतना ही पर्याप्त है कि वह कट्टर ब्राह्मण का जीवन जीते हुए, यहां तक कि ईसाइयों के साथ भी अस्पृश्य जैसा व्यवहार करते हुए बाइबिल के कुछ चुने हुए अंशों का संस्कृत में अनुवाद करके (यह योग्यता उसने बारह साल के एकान्तवास में, धर्मान्तरित ब्राह्णणों से संस्कृत, तमिल, तेलुगू सीख कर हासिल की थी) यह प्रचारित कर रहा था कि वेदों का जब लोप हो गया था तो चार वेदों का तो उद्धार हो गया या, पांचवां वेद छूट गया था। वह उसी पांचवें वेद को ले कर आया है।
हमारा यह कथन मैक्समुलर के प्रति अन्याय न लगे इसलिए इस बात पर ध्यान दें कि मैक्समुलर ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा तो उसमें उसे स्थान न दिया गया जिस पर हमें गर्व है, अपितु उसी धार्मिक साहित्य को स्थान दिया जिसके उद्धार में उनकी भूमिका थी। उसका शीर्षक ही उसकी अंतर्वस्तु को उजागर कर देता है:
हिस्ट्री आफ ऐंश्येंट संस्कृत लिटरेचर इन सो फार ऐज इट रिवील्स दि प्रिमिटिव नेचर आफ दि ब्राह्मणाज
उनकी रुचि भाषा और साहित्य से अधिक धर्म और पुराण पर है और वह एक नोआ से सकल जहान वाली समझ पर है:
The elements and roots of religion were there, as far back as we can trace the history of man; and the history of religion, like the history of language, shows us throughout a succession of new combinations of the same radical elements.
वेद से उनको लगाव है क्योंकि उसमें वे तत्व विद्यमान हैं जिन्हें ईसाइयत में पाया जाता है:
'What is now called the Christian religion, has existed among the ancients, and was not absent from the beginning of the human race, until Christ came in the flesh: from which time the true religion, which existed already, began to be called Christian.
इससे आप समझ सकते हैं कि क्यों वह संस्कृत भाषा और ऋग्वेद पर मुग्ध हो जाते हैं और इसके बाद भी इसको मानवता के शैशव की चीज मान लेते हैं ?क्यों कहते हैं कि इसके बहुत से अंश नितान्त बचकाने हैं? और कुछ तो ऐसे (डेड लेटर) जो कभी समझे ही जा सकते, क्योंकि वे शिशु की उस अवस्था की अभिव्यक्तियां है जब शिशु का भाषा पर अधिकार नहीं होता।
यह समझने के बाद ही आप को यह समझ में आएगा कि वह वैदिक जनों को दार्शनिक मानते हुए उन्हें चरवाहा बताते हुए जानते तो हैं घास से दर्शन पैदा नहीं होता, अन्न से पैदा होता है, वह बताते हैं कि ऐसा उसी समय हो सकता था। और तभी पता चलेगा कि यह आदमी वैदिक समाज को ही नहीं बाद के कालों तक के लोगों को, यहां तक कि पाणिनि तक को निरक्षर सिद्ध करने के लिए कुतर्क को अपनी पराकाष्ठा तक क्यों पहुंचाने को बाध्य हुआ। मैक्समुलर बहुत सुपठित और प्रगल्भ विद्वान है, परन्तु आप ध्यान दें तो पाएंगे, वह कुतर्क से उससे अधिक काम लेते हैं, जितना मिल ने लिया था। वह ईसाईयत के उस तरह कायल न थे, जैसे भजन गाने वाले, या गिरजा जाने वाले (वह तो मिल्स भी न थे, जो कभी पादरी बनने का सपना देखते थे) पर उनका अभियान ईसाईयत के विस्तार का व्याज रूप में पोषक था, मैक्समुलर खुले मैदान मे थे और ईसाई पुराणों के समर्थन के लिए जिन वैज्ञानिक खोजों का उससे विरोध था उनको भी खींच तान कर पुराणकथाओं को ऐतिहासिक सत्य सिद्ध करने को तत्पर:
Among scientific men the theory of evolution is at present becoming, or has become, a dogma. What is the result? No objections are listened to, no difficulties recognized, and a man like Virchow, himself the strongest supporter of evolution, who has the moral courage to say that the descent of man from any ape whatsoever is, as yet, before the tribunal of scientific zoölogy, "not proven," is howled down in Germany in a manner worthy of Ephesians and Galatians.
और :
According to language, according to reason, and according to nature, all human beings constitute a γένος, or generation, so long as they are supposed to have common ancestors; but with regard to all living beings we can only say that they form an εἶδος—that is, agree in certain appearances, until it has been proved that even Mr. Darwin was too modest in admitting at least four or five different ancestors for the whole animal world.
यदि मोक्षमूलर तक हमारे हितैषी प्रतीत होते हुए हमारे काम के नहीं, फिर कोई दूसरा हमारे काम का हो सकता है? हमारे मानसिक दिवालियापन का हाल यह है कि हम आज भी मानते हैं, हमारा विदेशी अध्येता अधिक भरोसे का है और हम विदेश विजय करने पर अधिक बड़े चिन्तक, कलाकार, लेखक बन जाते हैं जब कि ऐसा तभी होता है जब आप उनके उपयोग के सिद्ध होते हैं।

Share it