'बे-सर' विलियम जोंस से 'सर' विलियम जोन्स का सफर (1)

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बे-सर विलियम जोंस से सर विलियम जोन्स का सफर (1)Sir William Jones a scholar of ancient India

विलियम जोंस का जज के रूप में चयन कंपनी ने किस आधार पर किया था, यह हमें नहीं मालूम। यह मालूम है कि उन्हें सर की उपाधि भारत में किये गए कामों के पुरस्कार के रूप में ही मिला था। क्या था वह काम? जज के रूप में उनके फैसलों के लिए उनका नाम नहीं लिया जाता। उनकी कीर्ति उनके द्वारा एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना और उसके वार्षिक समारोहों पर दिए भाषणों के कारण है। 2 फरवरी 1786 को अपने तीसरे व्याख्यान की भूमिका में उन्होंने कहा थाः
The five principal nations, who have in different ages divided among themselves, as a kind of inheritance, the vast continent of Asia, with the many islands depending on it, are the Indians, the Tartars, the Arabs and the Persians: who they severally were, whence, and when they came, where they now are settled, and what advantage a more perfect knowledge of them all may bring to our European world, will be shown , I trust, in five distinct essays; the last of which will demonstrate the connexion or diversity between them, and solve the great problem, whether they had any common origin, and whether that origin was the same, which we generally ascribe to them. I begin with India, not because I find reason to believe it the true centre of population or of knowledge, but, because it is the country, which we now inhabit, and from which we may best survey the regions around us, as, in popular language, we speak of the rising sun, and of his progress through the Zodaic, although it had long been imagined, and now demonstrated, that he is himself the centre of our planetary system. Let me here promise, that , in all these inqueries concerning the history of India, I shall confine my researched downwards to the Mohammedan conquests at the beginning of the eleventh century, but extend them upwards, as high as possible, to the earliest authentic records of the human species.
इसे ध्यान से पढ़ें, यदि हो सके तो दो तीन बार तो पता चल जाएगा कि विलियम जोन्स जज के पद पर उसी तरह आए थे, जैसे गुप्त योजनाओं के लिए चुने हुए व्यक्तियों को देश देशांतर के दूतावासों में, जनसेवी संगठनों में या शोधार्थियों आदि के आवरण में नियुक्त किया जाता है। उनको जो वास्तविक कार्यभार सौंपा गया वह था यह सिद्ध करना कि संस्कृत भाषा भारत की भाषा न थी, संस्कृत बोलने वाले कहीं अन्यत्र से भारत आए थे। बाकी का सारा कथन और खोज का घटाटोप इसे ग्राह्य बनाने के लिए जरूरी था, जिससे यह भ्रम पैदा किया जा सके कि इस निष्कर्ष पर वह गहन शोध और दीर्घ चिंतन के बाद पहुंचे हैं।
यह याद दिला दें कि किसी राजा, नवाब या अन्य सत्ताधारी पर विजय की लड़ाई वर्तमान युक्तियों और शक्तियों के बल पर होती है और यह आसान होती है क्योंकि इसमें एक बार में किसी एक शासक और उसके कुछ हजार या लाख सैनिकों से सीधा आमना सामना होता है, परन्तु किसी समाज को नियन्त्रित करने का युद्ध उसके इतिहास में उतर कर, उसकी अपव्याख्या से जातीय स्वाभिमान और आत्मविश्वा़स को नष्ट करते हुए जीता जाता है जिसमें यह दिखाया जाता है कि विजेता सदा से श्रेष्ठ रहा है और विजित सदा से उससे गिरा हुआ रहा है। इसी के चलते मिल को जो प्राचीन सभ्यताओं से सुपरिचित था, जो उसके दुर्भाग्य से एशिया में ही थीं, यह मूर्खतापूर्ण नारा देना पड़ा था कि सभी श्रेष्ठ सिद्धान्त और विचार पश्चिम अर्थात् यूरोप से दूसरे देशों तक पहुंचे हैं।
इतिहास को ध्वस्त किए बिना विजय अधूरी रहती है,क्योंकि तब विरोध प्रबल रहता है।
इस रहस्य को भारत पांच हजार साल पहले से जानता था इसके विस्तार में न जाऊंगा, पर यह याद दिलाने से काम चल जाएगा कि इसी के चलते ब्राह्मणों ने अपनी सनातन श्रेष्ठता और अन्य वर्णों की क्रमिक हीनता को सृष्टि के जोड़ सर्व साधन रहित होते हुए भी अपनी धौंस इस तरह बनाए रखी कि आज भी उसे तोड़ने के अभियान में ब्राहमणों की साझेदारी के बाद भी, चेतना के स्तर पर संविधान और विधि व्यवस्था के औजारों के बाद भी वह मिटने का नाम नहीं ले रहा, उल्टे जिन्हें इससे शिकायत है वे इसे जिलाए रखना चाहते हैं।
यदि दुश्चक्र (vicious circle) का अर्थ शब्दकोश से न समझ आया हो तो इस उदाहरण से समझ सकते हैं। यह ज्ञान पश्चिम में नहीं था, समाज को नियंत्रित करने के लिए भी केवल बल प्रयोग। यह मुस्लिम शासक तो कर सकते थे, विदेशी मूल पर गर्व करने वाले उनके हमयकीं इतनी संख्या में थे कि उनकी अपनी पूरी लश्कर हुआ करती थी। पर कंपनी के लिए न ये संभव था न सैन्यबल पर इतना खर्च करना संभव था कि सारा राजस्व सेना पर खर्च हो इसलिए उसको पहली बार मनुस्मृति के तेलुगु भाषी विद्वान की सहायता से किए गए अनुवाद से जिसमें अनुवादक की योग्यता इतनी ही थी कि वह 'मनु को जनु' समझ सके और 'अकार के लिए एकार' के उच्चारण की विवशता (बंगाल Bengal, बनारस Benaras) के कारण Gentu Law कहा जाता रहा, उसके विधानों के माध्यम से उन्हें भेद नीति का और समाज को परास्त करने की लड़ाई इतिहास में उतर कर लड़ने की सूझ उन्हें भारत से मिली, "यह कहूं तो सारे सेकुलरिस्ट मुझसे लड़ने आ जाएंगे"। इतिहास से लड़ने की जगह इतिहास की समझ की मांग करने वाले से लड़ना और जीतना कहीं आसान है ।
जो भी हो, वह संकट यूरोप के लिए बौद्धिक भूचाल जैसा था। ग्रीस पर रोमनों ने विजय पा ली। उनका भौतिक तामझाम ग्रीकों से कहीं आगे था, पर बौद्धिक स्तर पर वे परास्त ही नहीं समर्पित हो गए। ठीक वैसा ही संकट दुबारा उपस्थित हुआ, जब यूरोप के सभी व्यापारियों ने अपने उपनिवेश भारत में कायम कर लिए थे और उनके पीछे उनके मिशनरी भी, जो अन्य सामी मजहबों की तरह गैरमजहबी समाजो को बर्बर मान कर उन्हें अपने मजहब में शामिल करके उनका उद्धार करना चाहते थे. उनका संस्कृत भाषा और भारतीय मनीषा से सामना हुआ तो उन पर जो असर हुआ उसे इंडोफीलिया और इंडोफोबिया की सज्ञा दी गई। रंग भेद अपने चरम पर था। कंपनी की प्रशासनिक बाध्यताएं अलग थीं। कंपनी को अपने भविष्य के संकट से उबारने वाले किसी असाधारण प्रतिभा के व्यक्ति की जरूरत धी और उसे विलियम जोन्स जैसी प्रतिभा मिल गई ।
कहें वह आए तो न्यायाधीश के पद पर थे, पर भूमिका उन्हें एक कुशल वकील की निभानी थी। इसे उन्होंने जिस धैर्य और कलात्मक दक्षता से निभाया उसके कारण मेरे मन में उनके प्रति अगाध सम्मान है, पर सत्यान्वेषी के रूप में मैं उनको ही नहीं , किसी यूरोपीय विद्वान को , चाह कर भी, आदर नहीं दे पाता। क्रमशः

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