विलियम जोंस से सर विलियम जोन्स का सफर (2)

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विलियम जोंस से सर विलियम जोन्स का सफर (2)Sir William Jones a puisne judge on the Supreme Court of Judicature at Fort William in Bengal, and a scholar of ancient India

हम यह समझ लें कि यह इंडोफीलिया (भारत रति) या इंडोफोबिया (भारत भीति) थी क्या तो यह समझने में कुछ मदद मिलेगी किस एकजुटता से यूरोप और अमेरिका के सभी विद्वानों ने इसे उलट कर भारतीयों के मन में यूरोफीलिया और यूरोफोबिया में बदलने के लिए कितना दुर्धर्ष प्रयत्न किया और किन हथकंडों का प्रयोग बिना संकोच के किया और आज तक कर रहे हैं।
इसके फल स्वरूप आज हमें इतना पश्चिमोन्मुख बनाया जा चुका है कि दिमाग से हम खोखले हो चुकें। हम यह तक भूल चुके हैं कि शारीरिक श्रमभार गधे से लेकर बैल, घोड़े, आदमी, मशीन किसी पर डाला जा सकता है और इसमें प्रगति के अनुपात में ही हमारी शक्ति, सुख सुविधा और स्वतंत्रता में वृद्धि होती है। ऐसा हम अपनी बुद्धि और कौशल के बल पर करते हैं।
यदि हम बौद्धिक श्रम किसी दूसरे के हवाले कर दें, उसके कौशल पर भरोसा करके जो कुछ हमें थमा दिया जाय उससे अपना काम चलाने लगें तो इसका मतलब है कि हम गुलाम रहे नहीं, गुलामी हमें इतनी पसन्द आने लगी है कि हम आजाद होना तक नहीं चाहते। आजादी के नारे लगाते हुए अपने आप को धौखा अवश्य दे सकते हैं।
गुलाम की शारीरिक क्षमता में कमी नहीं आने दी जाती। केवल उसके मनोबल को तोड़ा जाता है । उसमें यह विश्वास पैदा किया जाता है कि उसकी सुरक्षा, सुख-सुविधा उसकी अनुकंम्पा, समर्पन या सहयोग के बिना संभव नहीं। पश्चिम अपने अभियान में कितना सफल हुआ है, यह इस बात से समझा जा सकता है कि हमारा अपनी भाषा से विश्वास उठ गया है, भाषा में काम करने वाले विद्वानों की क्षमता पर विश्वास उठ गया है, हम कुछ ऐसा कर सकते हैं जो दूसरा कोई नहीं कर सकता, यह विश्वास नष्ट किया जा चुका है, अत: हम किसी क्षेत्र में पहल करने का विश्वास ही नहीं खो चुके हैं, अपितु यदि कोई करे तो उसे समझने की योग्यता तक खो चुके हैं।
हिन्दू किसी को भयभीत करने या उसका दमन करने का प्रयत्न नहीं करता, यह अपनी सीमा में अपनी व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील अवश्य रहा है। यह व्यवस्था आज के मानकों पर कई मामलों मे अन्याय परक रही है, परन्तु पन्द्रहवीं शताब्दी तक दुनिया के किसी अन्य समाज की अपेक्षा अधिक न्यायपरक और मानवीय रही है और हिंदू समाज आज भी किसी न्यायोचित मांग को अल्पतम विरोध से अपनाने को तैयार हो जाता है।
फिर हिन्दू किसी को फुसला बहका कर अपने को उसका चहेता क्यों बनाता? उससे किसी को क्या डर हो सकता था जो युद्ध के मैदान में भी निहत्थों पर हथियार नहीं उठाता था। उसके इस शौर्य के आदर्श को पहली बार नैपोलियन ने अपनाया जो अब विश्व का आदर्श तो है, पर जिसका पालन आज भी दिखावटी रूप में ही होता है अन्यथा नागरिक ठिकानों पर बमबारी न होती, निरपराधों पर हमले न होते।।
भौतिक ही नहीं, नैतिक और सांस्कृति्क ऊंचाइयां भी हमें बौना सिद्ध करके, मात्र अपने होने से दहशत पैदा कर सकती हैं, और यूरोप को भारत में इसी का सामना करना पड़ा था। यह एक विचित्र मुठभेड़ थी। मैंने कल कहा, ग्रीस पर रोमनों की भौतिक विजय और सांस्कृतिक समर्पण से इसकी तुलना की थी। अक्सर गलत कह जाता हूं, इसलिए मुझे भी नकारने की कोशिश करते हुए पढ़े। सच यह है कि यह इतिहास में, कम से कम मेरी जानकारी में घटित होने वाली पहली मुठभेड़ थी जिसमें सांस्कृतिक मोर्चे पर एक समाज को असंख्य आक्रमणकारियों के क्रूरतम प्रहारों से ले कर जघन्यतम प्रहारों का सामना करना पड़ रहा था और वह असंख्य घावों को झेलता, प्रतिघात करने में असमर्थ नहीं, अनिच्छुक, अडिग खड़ा था। किरातार्जुनीय का दृश्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाय जिसमें समर्पण आघात करने वाले अर्जुन को करना पड़ता है।
याद करें पुर्तगालियों के पैशाचिक उत्पीड़न जिसके अपराधी ज़ेवियर को ईसाई आज भी सन्त मानते हैं, पर इनइक्वेजीशन की यातना को झेलने के बाद भी, झुकने और बदलने को तैयार न होने वाले हिन्दुओं ने दी वह चुनौती कि उनमें अपने हथियार की धार मुड़ते देख कर यह पता लगाने का खयाल आया कि वह स्रोत क्या है जिससे उन्हें यह शक्ति मिली है।
जिस क्रूरता को यूरोपीय लेखकों ने पुर्तगालियों के सिर मढ़ा वह ईसाइयत और इस्लाम का एकमात्र हथियार था। हिन्दुत्व अगर "मजहब" होता तो पैशाचिक प्रहारों का शिकार हो गया होता और दूसरे आयुधजीवी देशों और समाजों को ध्वस्त करके एक झटके में ही पूरी तरह धर्मान्तरित कर चुका होता।
यह आश्चर्यों में एक आश्चर्य था कि सात सौ सालों के इस्लामी दमन, उत्पीड़न और अन्याय के बाद भी भारत में मुसलमान अपने को अल्पमत में हैं। ईसाइयत के उससे भी जघन्य पहले प्रयोग में जिसका दोष पुर्तगालियों पर डाल कर दूसरे अपने को साफ पाक सिद्ध करके, अपने को स्वीकर्य बनाने का प्रयत्न करते रहे, पर साथ ही इस नंगी सचाई पर परदा डालते रहे कि उससे पहले उन सबका हथियार वही था जिसके लिए वे पुर्तगालियों और विशेषकर जेवियर को अपराधी मानते हैं। वे यह भी छिपा जाते हैं कि भारत में अपने अनुभवों के बाद यह समझ लिया था कि यातना से अधिक कारगर विचार है और भारत से बाहर जाते हुए उसने अपना तरीका बदल दिया था और उसी तरीके को बाद में आने वाले सभी यूरोपीय उपनिवेशवादियों के अपने मिशनरियों ने अपनाया।
वह स्रोत जिसके बल पर इतनी दृढ़ता बनी हुई थी वह हिन्दूधर्म न था। इस नाम का कोई धर्म तब था ही नहीं। यह भारतीय मूल्यव्यवस्था थी जिसकी जड़े पाताल तक उतरी हुई हैं, आदिम समाज तक।
जब उत्पीड़न ( इन्क्विजिशन) के विफल होने पर उन्होंने इसका कारण जानना चाहा तो उन्होंने वेद पुराण का नाम लिया और यहां से आरंभ हुआ उस भाषा को सीखने और उस साहित्य तक पहुंचने का प्रयत्न, जिसे संस्कृत भाषा और उसका धार्मिक साहित्य कहते हैं। मूल्यव्यवस्था की समझ तो आज तक के पंडितों में नहीं है, तो उनमें तो हो नहीं सकती थी। भाषा और साहित्य में यह रुचि कुछ जानने के लिए न थी, कमियां निकालने के लिए थी।
इस क्रम में सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ से ही वे समानताएं लक्ष्य की जाने लगीं जो भारतीय भाषाओं और उनके यूरोपीय प्रतिरूपों में थीं।
लगभग डेढ़ सौ साल तक विविध देशों के धर्म प्रचारक अपने-अपने देशों को इस विचित्र सादृश्य की सूचनाएं भेजते रहे कि संस्कृत और उनकी बोलचाल की भाषाओं तक में गहरी समानताएं हैं। और इस क्रम में जब साहित्य से परिचय हुआ तो पाया भारतीय साहित्य यूरोप के किसी देश से अधिक समृद्ध और मूल्यव्यवस्था पाश्चात्य मूल्यव्यवस्था से कहीं ऊंची है और यह सनसनी पूरे यूरोप में फैल गई। इसकी दो परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं हईं। एक, यूरोप के दूसरे देशों की तुलना में अपने को अधिक श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए अपने को आर्य सिद्ध करने की होड़, दूसरी थी इस ग्लानि के उबरने की छटपटाहट। यह ग्लानि बोध लगभग डेढ़ सौ साल तक बना रहा और इससे बाहर निकलने का रास्ता तलाशा जाता रहा। प्रशासनिक बाधयताओं के कारण ब्रिटेन में यह खलबली कुछ अधिक थी।
कंपनी के कर्मचारियों में बहुत से भारतीय जीवनमूल्यों के कायल हो गए थे। मिशनरियों को यह शिकायत थी कि ब्रिटेन भारत पर राज करेगा और अंग्रेज ईसाइयत छोड़ कर हिन्दू हो जाएंगे। भारत के इतिहास को देखते हुए यह अचरज की बात न थी। शासित का मनोबल इतना ऊंचा रहे कि वह शासकों से किसी रूप में अपने को ऊपर समझे, इससे प्रशासनिक समस्यायें पैदा होती थीं। एक बोध जिसका सामना करना आत्महत्या जैसा था, यह कि यूरोप के काले रंग से घृणा करने वाले, काले रंग को गाली मे शुमार करने वाले गोरे, काले बंगालियों की औलाद हैं, गले नहीं उतर रहा था। यूरोप को, विशेषत: कंपनी को किसी ऐसे उद्धारक की जरूरत थी जो इस ग्लानि और संभावित हानि से बचा सके। विलियम जोंस की प्रतिभा और वाक कौशल के कारण इस कार्यभार के लिए भारत भेजा गया? उन्हें सभी सुविधाएं दी गईं और उनको महिमामंडित करने के लिए उन्हें भारत पहुंयने के पखवारे के भीतर उनको सर के सम्मान से अलंकृत कर दिया गया।
उनका लक्ष्य था:
१. भारत के विषय में यूरोप और ब्रिटेन में जो महिमामंडन हो चुका था उसे तोड़ना।
२. यह सिद्ध करना कि संस्कृत उन सभी भाषाओं की जननी नहीं है।
३. संस्कृतभाषी भारत के निवासी न थे, वे स्वयं भारत में कही अन्यत्र सेआए थे।
इस काम को उन्होंने किस चतुराई से पूरा किया इस पर हम आगे विचार करेंगे। क्रमशः

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