मनोरंजन के लिए ही सही
ललकारा तो है पांवों की बढियां तोड़ दो गले का फंदा लगा लो! क्यों, गलत कहा? बेड़िया तोड़वाकर बेचारों को बेरोजगार बना दिया अब बेड़ियाँ तोड़वाने के काम से भी फुर्सत मिल गई - अब तो बस आराम ही आराम है। खैर मैं तुम्हे यह याद दिलाना चाहता था कि हमारे समाज का विभाजन नस्लवादी नहीं है।
Bhagwan Singh | Updated on:19 Dec 2017 2:09 PM IST
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ललकारा तो है पांवों की बढियां तोड़ दो गले का फंदा लगा लो! क्यों, गलत कहा? बेड़िया तोड़वाकर बेचारों को बेरोजगार बना दिया अब बेड़ियाँ तोड़वाने के काम से भी फुर्सत मिल गई - अब तो बस आराम ही आराम है। खैर मैं तुम्हे यह याद दिलाना चाहता था कि हमारे समाज का विभाजन नस्लवादी नहीं है।
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- चार वेदों
- भगवान सिंह
• हम वर्ण व्यवस्था को नहीं समझते से तुम्हारा क्या मतलब था? क्या सोलह वेदों की तरह सोलह वर्ण भी बनाने का इरादा है?"
- नहीं समझते ही नही समझना तक नहीं चाहते क्योंकि राजनीत के लिए नासमझी अधिक जरूरी है। समझ बाधक है। समझ से जोश ठंडा पड़ जाता है। समस्या के समाधान के लिए समझ की ज़रूरत होती है। इसलिए कोई राजनीतिक दल या आंदोलन हो वह समस्याओं को बनाए रखना और नई समस्याएं खड़ी करते रहना चाहता है। और जहाँ तक सोलह वर्णों की बात है। यदि तुम घूम-धूम कर एक ही सवाल पर आओगे तो बनाना ही पड़ेगा। देखो तो चार वेदों के चार वर्ण वेदांगों के वर्णांग और उपवेदों के उपवर्ण बन जायेंगे। बने ही हैं एक ही वर्ण में कितने तो उपवर्ण हैं। संख्या बहुत ऊपर जाएगी।"
• तुम्हारा मतलब है शूद्रों को भी वेद का अधिकार था? उनका भी कोई वेद है?"
होना तो चाहिए। ऋग्वेद वैश्यों का वेद है या कहो वैश्य वर्ण की उत्पत्ति ऋग्वेद से हुई – ऋग्भ्यः जातं वैश्य वर्णं आहुः। ब्राह्मणों का सामवेद है - सामवेदो ब्राह्मणानां प्रसूतिः। इसी तरह यजुर्वेद क्षत्रियों का वेद है - यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुः योनिम्। तो फिर अथर्ववेद जो बच रहा वह किसका वेद हुआ?
• बहुत मजेदार है यह तो। तभी स्मृतिकार लोग वेद के नाम पर केवल त्रयी की बात करते रहे हैं, अथर्ववेद को वेद मानने से इन्कार करते रहे। कारण अब समझ में आया।
और जानते हो धरती आकाश का भी ऐसा ही बँटवारा है। द्युलोक सामवेद का अर्थात् ब्राह्मण का, अन्तरिक्ष यजुर्वेद अर्थात् क्षत्रिय का - अन्तरिक्षं वै यजुषामायतनम्, भूलोक ऋग्वेद का अर्थात वैश्य का - ऋगयं भूलोकः। अब बचा पाताल वही अथर्ववेद का या शूद्र का लोक हो सकता है। सूर्यात् सामवेदः, वायु से यजुर्वेद, जल से वैश्य - विड्भिः वर्षा:। ऋतुओं में वसन्त ब्राह्मण के हिस्से, ग्रीष्म क्षत्रिय के, शरद ऋतु वैश्य के हिस्से में तो शिशिर या हेमंत में से कोई एक ही बचता है शूद्र के लिए। सोम पेर कर उसकी पहली घानी का रस अग्नि को, अर्थात् उसी को पका कर उसका गुड़ आदि बनाया जाता था। पर उसे पीने का अधिकारी ब्राह्मण, पानी के छींट दे कर दूसरी पेराई का रस इन्द्र को और फिर उसमें पानी से भिगो कर जो रस निकला वह मरुतों वैश्यों के हिस्से, अब कहा तो नहीं है हम मान लें जो खोइया बच रहता था उसे शूद्र का हिस्सा माना जा सकता है।''
• "बड़ा पक्का इन्तजाम है यार!"
पक्का, वर्णवाद को बनाए रखने और अपनी श्रेष्ठता कायम रखने के ये प्रयत्न तो ब्राह्मण ही करता रहा। परन्तु आज ये सूचनाएँ मनोरंजन के लिए ही रह गई हैं। पालन कभी पहले भी नहीं हुआ। इसे यदि इस रूप में पढ़ें कि ब्राह्मण को अपनी सामाजिक स्थिति को बनाए रखने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा है, क्योंकि आर्थिक रूप मे वह परनिर्भर था और स्वतन्त्रता आर्थिक आत्मनिर्भरता के बिना संभव नहीं। उसे वैश्य या क्षत्रिय से स्पर्धा नहीं हो सकती थी, असली स्पर्धा शूद्र से थी, जो अपने कौशल और श्रम के कारण उसकी तुलना में अधिक आत्मनिर्भर था तो विरल अपवादों को छोड़ कर अधिक सही होगा।
परन्तु वर्णवाद को बचाए रखना आज ब्राह्मण की समस्या नहीं है। शिक्षा में अग्रणी होने के कारण मध्यवर्ग के उदय के साथ सबसे अधिक लाभान्वित वही हुआ। स्वतंत्रता आन्दोलन या कोई अन्य आन्दोलन, सबमें दूसरों की अपेक्षा अधिक भागीदारी भी उसी की रही, इसलिए उसे इसका लाभ मिला। नये अवसरों के साथ वह पुरोहिती और पूजा पाठ के पुराने अवसर छोड़ना आज भी नहीं चाहेगा, पर यह मामला रोजगार से जुड़ा है जिसमें जातीय श्रेष्ठता का पुराना दावा छोड़ना न चाहेगा जैसे दूसरे समुदाय अपने अवसर नहीं छोड़ेना चाहेंगे। उसे आज अंग्रेजी से जितना लगाव है उतना संस्कृत से नही। आज वह जन्मगत नहीं शैक्षिक और कूटनीतिक कारणों से सबसे अधिक शक्तिशाली है। वर्णवाद को जिलाए रखना आज दलितों की जरूरत बन गई है जिन्हें आरक्षण आदि के माध्यम से नये अवसर मिले हैं। इतिहास में कभी ब्राह्मण ने उस तरह के अत्याचार शूद्रों पर किए हों जिनको उदाहृत करते हुए उसकी भर्त्सना की जाती है तो उसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है।''
• ''ठोस प्रमाण क्यों नहीं है। एकलब्य का अंगूठा काट लेना, शम्बूक का वध, और वह विधान तो उससे भी पुराना है जिसमें शूद्र के कान में वेद पड़ जाय तो उसके कान में पिघला हुआ सीसा डाल देना चाहिए"।
यह सब कोरी कल्पनाएँ हैं"। किताबों का, चाहे वे पश्चिम के विद्वानों की लिखी हों या अपने पंडितों द्वारा, आलोचनात्मक पाठ किया जाना चाहिए। अक्षरपाठ निरक्षरपाठ से भी गड़बड़ है। किताब पढ़ो तो मनु शूद्र की छाया से भी बचने की सलाह देंगे, परन्तु उनके लिए पानी कौन भर कर लाता था, उनके बाल कौन छाँटता था, उसके यज्ञ की बेदी आदि बनाने का काम कौन करता था, शूद्र ही न? अब फिर उसी मनुस्मृति को पढ़ो तब पता चलेगा मनु कुछ और भी कहते हैं, 'ब्राह्मण जब तक वेद का अध्ययन नहीं करता तब तक शूद्र है' और मैं इसे सही मानता हूँ और निन्यानबे प्रतिशत ब्राह्मणों को शूद्र मानने में मुझे होई आपत्ति नहीं। उनमें तुम भी आते हो, देख लो।
• हम तो कमकरों और शूद्रों के चिर सखा हैं। हमने ही तो उन्हें अपनी बेड़ियाँ तोड़ने को ललकारा है।
ललकारा तो है पांवों की बढियां तोड़ दो गले का फंदा लगा लो! क्यों, गलत कहा? बेड़िया तोड़वाकर बेचारों को बेरोजगार बना दिया अब बेड़ियाँ तोड़वाने के काम से भी फुर्सत मिल गई - अब तो बस आराम ही आराम है। खैर मैं तुम्हे यह याद दिलाना चाहता था कि हमारे समाज का विभाजन नस्लवादी नहीं है। देव और असुर दोनों एक ही पिता की सौतेली पत्नियों की सन्तान माने जाते रहे हैं जिसका अर्थ नए सिरे से करें तो उन्हें याद था कि हम स्वयं भी उसी आहारसंग्रही और आखेटजीवी पृष्ठभूमि से आए है जिसमें दूसरे जन ठहरे रह गए हैं। यह ठहराव भी लगातार टूटता रहा और अपनी सोच में बदलाव और प्रयत्न के साथ आटविक जन वर्ण समाज में सभी वर्णों में प्रवेश करते और जगह पाते रहे। जो रोचक पक्ष है, वह यह कि ब्राह्मणों में हाशिए पर रखे जाने वाले नये ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद का अधिक उत्साह से समर्थन किया। यह मत भूलना कि मनुस्मृति हो या महाभारत या गीता या पुराण सभी व्यासों और भार्गवों की रचनाएँ हैं। वेदों का उद्धार करने वाले भी तो व्यास ही थे।
"और दूसरी बात यह कि वही मनुस्मृति यह विधान करती है कि यदि किसी व्यक्ति के शरीर में कोई विकार हो, वह बीमार हो, वह गरीब हो, वह छोटी जाति का हो, कुरूप् हो, अनपढ़, उम्र अधिक हो तो इसके लिए उस पर कटाक्ष नहीं किया जाना चाहिए। इसे सीखने समझने में दूसरों को आधुनिक युग तक की यात्रा करनी पड़ी और बहुतेरे आज भी नहीं सीख पाए हैं – "हीनांगान् अतिरिक्तांगान् विद्याहीनान् वयोधिकान् । रूपद्रव्यविहीनां च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत"। और साथ ही यह भी कहते हैं कि यदि अपनी पुत्री या दास कोई कटु बात भी कहे तो उस क्लेशकर वचन को सहन कर लेना चाहिए क्योंकि ये आप की छाया हैं या कहो, ये तुम्हें आईने के सामने खड़ा कर देते हैं – 'छाया स्वो दासवर्गश्च दुहिता कृपणं परम्। तस्मादेतैरधिक्षिप्तः सहेत संज्चरः सदा'। तो राजनीतिक कारणों से इसके दुर्बल पक्ष को बहुत बढ़ा-चढ़ा दिया गया, और ब्राह्मणों के साथ भी उससे अधिक अन्याय हुआ जिसके वे पात्र थे। इसे समझने के लिए दूसरे समाजों में आज से दो हजार साल पहले की सामाजिक अवस्थाओं और उत्पीड़नों को रख कर देखना चाहिए। अनेक शूद्र तो राजा भी हुए जिनके पुरोहित आदि ब्राह्मण ही रहे होगे। इसे दलित भी आन्दोलन के लिए मानते हैं और फिर भूल जाते हैं। समस्या इतिहास में नहीं वर्तमान में है और इसमें आज अवरोध कहाँ से पैदा हो रहा है इसे समझना होगा। दलितों का सबसे अधिक उत्पीड़न आज पिछड़े आरक्षणप्राप्त लोगों द्वारा हो रहा है यह मत भूलो।
• "इसे दूर किया जा सकता है?"
किया तो जा सकता है लेकिन जिनको इसकी सबसे अधिक जरूरत है वे ही इसमें बाधा डालेंगे। उनका आन्दोलन ही गलत है। समस्या योग्यता सिद्ध करने और ऊपर उठने की है। अंग्रेजी जानने वाला तबका नस्लवाद पैदा करने वाला तबका है यह सामाजिक अलगाव को बढ़ा कर ही अपने को आगे रख सकता है। अंग्रेजी की समाप्ति, बौद्धिक उत्थान में भाषा की रुकावट को दूर करना सामाजिक न्याय की सबसे बड़ी जरूरत है, इसे अकेले धर्मवीर ने समझा था पर यह भी एक चीख बन कर रह गई।