मलबे के मालिक

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मलबे के मालिक
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शीर्षक तो मोहन राकेश की कहानी का है और मालिक के रूप में उस पर बैठे प्राणी से अधिक भिन्न दशा मानविकी के क्षेत्र में हमारी नहीं है।,
हमारा प्राचीन ज्ञान नष्ट करके मलबे में बदला जा चुका है और नया ज्ञान उन्ही से प्राप्त होने के कारण जिन्होंने पुराने ज्ञान को मलबे में बदला, विषाक्त है, जिसने राष्ट्रीय स्तर पर बौद्धिक पंगुता पैदा की है। इसके कारण वैश्विक स्तर पर हमारा अपना योगदान नगण्य है और जिसे सचमुच मौलिक कहा जा सकता है उसका हमें पता ही नहीं, या पता चले तो उधर से मुंह फेर लेते हैं, क्योंकि वह भारतीय भाषाओं में है जिसके बारे में हमने यह धारणा बना रखी है कि उसमें स्तरीय काम हो ही नहीं सकता।
यह दुभाग्यपूर्ण बात है कि इसकी गंभीरता को समझने की योग्यता तक हम खो चुके हैं, अतः इसे कुछ उदाहरणों से समझाना जरूरी लगता है।
यह सच है कि हमारा प्राचीन ज्ञान गोदामों जैसा था जिनमें जो कुछ हमारे पास था कसा पड़ा था, न कि दूकानों की तरह जिनमें सब कुछ सजा कर और इतने तरतीब से रखा रहता है कि पलक भांजते ही हाजिर किया जा सके। पर अव्यवस्थित होते हुए भी वह इतना संभाल कर रखा गया था कि कई मामलों में एक-एक अक्षर और मात्रा का हिसाब किया जा सके।
उसे क्रमबद्ध करने के नाम पर तोड़ मरोड़ कर मलबे में बदल दिया गया और हम खुश होकर तालियां बजाते रहे। लो, अभी तक तो हम शारीरिक श्रम को दूसरों पर छोड़ कर मौज मस्ती करते थे अब हमें बौद्धिक श्रम से भी मुक्ति मिल गई। अब सिर्फ छांटना और हांकना है।
पहले हम उन अध्येताओं को लें जिनको प्राच्यवादी मान कर मार्क्सवादी या तथाकथित सेकुलर लोग इसलिए अविश्वसनीय बताते रहे हैं कि उन्होंने प्राचीन भारतीय सभ्यता का 'गुणगान' किया है, और उनकी कटु आलोचना करते हुए प्राचीन भारत को सभी दृष्टियों से गया बीता और मुस्लिम काल (उन्होंने यही नाम दिया था जो उपनिवेसी काल के अन्त के बाद भी कुछ समय तक चलता रहा) को उससे हर दृष्टि से उन्नत बताया था, एकमात्र भरोसे का इतिहासकार मानते रहे।
यह याद दिला दें कि मुस्लिम काल की श्रेष्ठता का सबसे बड़ा कारण यह था कि वे पश्चिम से आए थे और सभ्यता का और सभी सिद्धान्तों का उत्स पश्चिम अर्थात यूरोप है, इसलिए जो भारत से जितना ही पश्चिम है वह अपने पूर्ववर्ती से उतना ही श्रेष्ठ है।
अत: हिंदुओं से मुसलमान, हिन्दुस्तानियों से ईरानी, ईरानियों से अरब श्रेष्ठतर हैं और यूरोप इन सभी से श्रेष्ठतर तो है ही।
सेकुलर बुद्धिजीवी इसी इतिहास दर्शन को आदर्श मान कर आज तक काम करते आए हैं, क्योंकि यह मुस्लिम बुद्धिजीवियों के श्रेष्ठताबोध की तुष्टि उसी तरह करता है, जैसे आर्यजाति और उसके आक्रमणकारियों की वंशधरता का भ्रम ब्राहमणों और सवर्णों के इस श्रेष्ठताबोध की तुष्टि करता था कि वे अपने शासकों से दूर का रक्त संबंध रखते हैं।
श्रेष्ठता बोध के ये दोनों गुमान सांप्रदायिक टकराव का भी कारण रहे हैं, और इसमें यूरोप के श्रेष्ठता बोध को भी जोड़ लें तो यह वेस्ट एंड द रेस्ट के बीच भी संघर्ष का कारण रहा है। जहां ग्रन्थियां प्रबल हों (वे हीनता की हों या श्रेष्ठता की) वहां बुद्धि ग्रंथियों की चेरी बन जाती है, वास्तविकता के केवल उसी अंश को देख पाती है जो इन ग्रंथियों की तुष्टि कर सके।
इसका सबसे दुखद परिणाम यह है कि हमारे ऊपर इतिहास की लादी तो है, इतिहास की समझ नहीं है। यह बात केवल भारत के विषय में सच नहीं है, इन ग्रन्थियों के कारण पूरी दुनिया के विषय में सच है।
हम कह आए हैं कि इतिहास की गलत व्याख्या से वर्तमान को नष्ट किया जा सकता है । इतिहास की समझ को दुरुस्त करके हम वर्तमान की व्याधियों से मुक्त न भी हों तो उनकी उग्रता को कम कर सकते हैं। इतिहास की समझ मानव चेतना के माध्यम से हमारी मनोरचना को प्रभावित करती है। जड़ प्रकृति की व्याख्या (विज्ञान) और इसे नियंत्रित करने वाली विद्या (तकनीकी या प्रौद्योगिकी) में इतनी प्रगति के बाद भी मानवीय सरोकारों में इतना पिछड़ापन इसलिए बचा रह गया है कि जो समाज इतिहासविमुख और वर्तमान तक सीमित है, जो अपनी परिभाषा से ही हो कर भी नहीं है, उस मानवता का इतिहास होता नहीं, वर्तमान होकर भी नहीं होता और भविष्य विनाश के विकल्पों के बीच किसी के चुनाव तक सीमित रह जाता है।
बात भारतीय इतिहास पर करने चले थे, कहां पहुंच गए। धन्य हो भगवान तुम। पर हो सकता है कल सचमुच अपने विषय पर ही बात करें। भरोसा तो नहीं उम्मीद रखिए!
देखिए कहता है क्या भगवान कल
आज की बातें तो बीती हो गई ।।

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