इतिहास भूत है, पकड़ लेगा

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इतिहास भूत है, पकड़ लेगा

मुझे याद नहीं कौन था, पर था अमेरिकन, जिसने आपसी परिचय के क्रम में, यह जानकर कि मै प्राचीन भारत के इतिहास का अध्येता हूं प्रश्न किया था, Why Indians are so obsessed with history? (भारत के लोगो पर इतिहास का भूत क्यों सवार रहता है?) मैने उससे पूछा था, Why Americans have no courage to face their own history and madly run after the history of other countries? (अमेरिकी अपने इतिहास का सामना करने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते, पागलों की तरह दूसरों के इतिहास के पीछे क्यों भागते फिरते हैं?) उसने प्रश्न नहीं किया था, व्यंग्य किया था जिसमें यह ध्वनित था कि भारतीय पिछड़े हुए है। उनके पास केवल इतिहास है और उसी से आत्मतुष्ट रहते हैं। मेरा प्रश्न भी प्रश्न नहीं था, घनचोट था, कि इतिहास का अध्ययन इतना जरूरी कि जो लोग अपना इतिहास नष्ट कर डालते हैं वे दूसरों के इतिहास के पीछे भागते फिरते हैं, पर इसमें कुछ और भी व्यंजित था जो आगे की चर्चा में स्पष्ट हो जाएगा। इसके साथ हमारा परिचय पूरा हो गया था।
यह एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न है और इसे वही कर सकता है जो यह नहीं जानता कि इतिहास का अध्ययन इतने सारे विषयों के ज्ञान से जुड़ा है कि इतिहासकार हो पाना किसी अन्य अनुशासन का अधिकारी होने से अधिक दुष्कर है, और इतिहास विमुखता स्मृतिलोप का पर्याय है । हमारा दुर्भाग्य है कि हममें इतिहास को जानने की जगह इतिहास से भागने की प्रवृत्ति पैदा की गई। इतिहास से भागने वाले इतिहास से बाहर निकल ही नहीं पाते।
मनुष्य की मानसिकता को प्रभावित करने वाले चार अनुशासनों – धर्म, साहित्य, इतिहास और दर्शन - में सबसे शक्तिशाली इतिहास है और इसीलिए धर्म को अपनी पकड़ मजबूत क्जने के लिए इतिहास का सहारा लेना पड़ा या इतिहास गढ़ना पड़ा है और दर्शन पर धर्म का असर प्रत्य़क्ष और परोक्ष दोनों रूपों में बहुत हाल तक बना रहा है। साहित्य का बहुत बड़ा भाग लम्बे समय तक इस गढ़े हुए इतिहास से प्रभावित रहा है। इसलिए सामाजिक आस्था और मनोबल और एकजुटता को सुदृढ़ करने, बनाए रखने, नष्ट करने में इतिहास की भूमिका साहित्य, धर्म, दर्शन की तुलना में कहीं अधिक है।
दुर्भाग्य की बात है कि इस बात को इतिहासकार ही नहीं, इतिहास दार्शनिक तक नहीं समझ पाते।
मेरा अगला दुर्भाग्य इस मामले में यह कि मुझे सबसे अधिक तकरार अपने मार्क्सवादी मित्रों से ही करनी पड़ी है जो यह तो जानते हैं कि मार्क्सवाद के साथ ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद विशेषण भी लगते हैं। परंतु भारतीय मार्क्सवादी अपनी सोच और व्यवहार में अनैतिहासिक, निर्द्वन्द्वात्मक, भाववादी आत्मवाद को मार्क्सवाद समझते हैं। किसी भी अन्य देश में मार्क्सवाद जनविमुख और राष्ट्रविमुख नहीं रहा है पर भारतीय मार्क्सवादी इस पर गर्व करता है।
प्रसंगवश यह याद दिला दें कि कोई भी इतिहास कुछ तथ्यों और घटनाओं के सहारे एक सर्जना है, सत्य नहीं। इतिहास तो दूर की बात हुई, वर्तमान की भी पूरी सूचना हमें नहीं मिलती और इसे हमें अपनी कल्जिपना का सहारा लेता हुए समझना होता है। जिसे हम इतिहास कहते है उसमें निराधार और लुप्त कड़ियों की भरमार होती है। इसलिए यदि हम मानते हैं कि ऐसा हुआ था वह तब तक इतिहास बना रहता है जब तक उसका खंडन नहीं हो जाता।
जिन लोगों के हित किसी विश्वास से जुड़े हैं वे खंडन के बाद भी उसे जिलाए रखने का प्रयत्न करते हैं। यदि शिक्षा और प्रचार के साधनों पर उसका नियंत्रण है तो खंडन के बाद भी वह इसमें सफल भी हो सकते हैं। सत्ता किसी ऐसे इतिहास को सहन नहीं कर सकती जो उसका मानमर्दन करता प्रतीत हो। ऐसे इतिहास को नष्ट करते हुए उस समाज का मनोबल गिराना उसकी कूटनीतिक अपरिहार्यता बन जाती है।
जिसका कोई प्रमाण नहीं और फिर भी जिसे हम मानने को विवश होते हैं, वह पुराण है। वह नया भी हो सकता है और पुराना भी।
अतः इतिहास का सही होना उतना जरूरी नही है जितना यह विश्वास कि ऐसा हुआ था। पुराण प्रमाणों के आभाव के कारण मनोरचना को नियंत्रित करने की दृष्टि से प्रामाणिक इतिहास से अधिक प्रभावशाली है, क्योंकि न इसका खंडन हो सकता है, न सुधार।
एक व्यक्ति के लिए इतिहास उसके जीवन से अलग नहीं होता, न वह उसे अलग करके देखने समझने का प्रयत्न करता है। यह उसके घर और परिवेश की चीजों में होता है, उसकी भाषा में होता है, खान-पान और जीवन शैली में होता है, उसके परिचित साहित्य और उसके चरित्रों में होता है, उसे ज्ञात पुराण कथाओं और शौर्य कथाओं में होता है, उसके रीतियों, संस्कारों, त्यौहारों में होता है और होता है ऐसी दूसरी अनेक चीजों में जिनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। इनमें सार्थकता और व्यर्थता का विवेक और इसका क्रमिक ग्रहण और त्याग इनके तिथ्यांकन से अधिक महत्व रखता है। जब कोई दूसरा इन्हें तोड़ता, छेड़ता, इनका उपहास करता है तो वह अपमानित अनुभव करता है, विवश होने पर ग्लानि अनुभव करता है।
यहां दो बातों पर ध्यान देना होगा। पहला किसी देश और समाज का इतिहासकार होने के लिए हमें ज्ञान विज्ञान की बहुत सारी सैद्धांतिक जानकारी के अलावा जीवन व्यवहार में औतप्रोत इतिहास की जानकारी और संवेदनशीलता जरूरी है। दूसरी इतिहास के सच और गलत की खोज से अधिक महत्व इस बात का है कि यह काम कौन कर रहा है और किनको ऐसा करने से रोका या हतोत्साहित किया जा रहा। इसी पर यह निर्भर करता है कि इतिहास के लेखन से समझ पैदा हो रही और आत्मविश्वास बढ़ रहा है या बौखलाहट पैदा हो रही है और आत्मविश्वास समाप्त हो रहा है।
इस पृष्टभूमि में ही यह समझा जा सकता है कि यूरोपीय विद्वानों का इतिहास हमें समझने और हमारा हित करने लिए लिखा गया या हमें तोड़ने, अपंग बनाने, कुचलने और अपने ऊपर हमारी निर्भरता को बढ़ाने के लिए किया गया। इस क्रम में उन्होंने कितनी निर्ममता से तोड़ फोड़ और उलट पलट की और हम इस पर तालियां बजाते रहे। भारत विषयक पश्चिमी अध्येताओं में कोई इसका अपवाद नहीं है क्योंकि गोरे रंग की श्रेष्ठता, ईसाइयत की श्रेष्ठता, अपनी आधुनिक दौर की श्रेष्ठता का बोध सभी में गहराई से भरा है ।शेष जगत पर हावी होने की लालसा से मुक्त व्यक्ति की तलाश करनी होगी। इस पर हम कल विचार करेंगे।

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