सड़क पर नमाज़ या मजहबी दादागिरी : बढ़ रहा हैं विरोध

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आज कल गुरुग्राम {तद्भव नाम गुड़गाँव} में किसी सार्वजनिक स्थान में नमाज़ पढ़ते हुए सैकड़ों लोगों और उनके आगे "जय श्री राम" के नारे लगाते तरुणों का वीडिओ whatsapp पर बहुत वायरल हो रहा है।
घटना गुरुग्राम के सैक्टर-53 के साथ लगते यादव बहुल वज़ीराबाद ग्राम की है। इसमें किसी सार्वजनिक खुली जगह पर कुछ सौ लोग नमाज़ पढ़ रहे हैं और उनके आगे छह यादव तरुण प्रभु राम के नाम का घोष कर रहे हैं। ऐसा सर्वधर्म सम्भाव का दृश्य है कि मैं तो भावविभोर हो कर भीगी आँखों से उन युवकों का वीडियो देखते हुए ही प्रभु राम के नाम का जप करने लगा। यही तो वो दिन है जिसके लिये वामपंथियों, कोंग्रेसियों, साहित्य एकेडमी से त्यागपत्र देने वाले सरकारी साहित्यकारों ने एड़ी-छोटी का ज़ोर लगा रक्खा था। सर्वधर्म सम्भाव, हिंदू-मुस्लिम एकता का गांधी जी की तरसती आँखों को शांति देने वाला यह दृश्य अद्भुत था। काश बापू यह देख पाते मगर अचानक दिखा कि नमाज़ पढ़ने वाले इस्लामी अपनी चादरें समेटते हुए उठने लगे, उखड़ गए।
यह युवक गोरक्षा दल के सदस्य हैं। मेरी समझ से तो नमाज़ पढ़ते हुए लोगों को देख कर इन युवकों में भी ईश्वर की भक्ति की भावना जागी और उन्हें भक्ति का जो ढंग आता था उन्होंने उसके अनुसार प्रभु राम के नाम का संकीर्तन शुरू कर दिया। सर्वधर्म सम्भाव के अनुसार तो उन इस्लामियों को उन युवकों का स्वागत करना चाहिये था लेकिन उन उखड़े हुए लोगों में से किसी ने पुलिस में शिकायत की। वह लड़के गिरफ़्तार कर लिये गये।
सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ?
अजमेर में मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर अभी कुछ दिन पहले कपूर परिवार के स्त्री-पुरुषों के खोपड़ी पर फूल ढो कर ले जाते फ़ोटो के दर्शन पर जिनके मुँह से सर्वधर्म सम्भाव की जय के नारे निकल रहे थे, उन्हीं को नमाज़ के साथ जय श्री राम का उद्घोष चुभा क्यों? इक़बाल ने अपनी धूर्तता में भगवान राम का दर्जा बुरी तरह से छोटा करते हुए ही सही कहा तो है "अहले-नज़र समझते हैं उनको इमामे-हिन्द" तो इन सैकड़ों लोगों के नमाज़ बीच में छोड़ कर उखड़ जाने को क्या समझा जाये? क्या सर्वधर्म सम्भाव मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर हिन्दुओं का जाना मात्र है। नमाज़ के साथ प्रभु राम न सही इमामे-हिन्द राम के नाम का उद्घोष सर्वधर्म सम्भाव नहीं होता?
ऐसी ही घटनाएँ मुंबई में हुई हैं। कुछ वर्ष पहले वहाँ भी कांग्रेस की सरकार की निगरानी में शुक्रवार को ट्रैफ़िक रोक कर सड़कों पर नमाज़ के लिये चादरें बिछा दी जाती थीं। सारी मुंबई जगह-जगह स्तब्ध हो जाती थी। ट्रैफ़िक रुका रहता था। अंत में पूज्य बाला साहब ठाकरे ने परिस्थिति को बदलने के लिये महाआरतियों का आह्वान किया। जवाबी कार्यवाही के दबाव में विवश हो कर कोंग्रेसी सरकार ने आस्था के दोनों सार्वजनिक प्रदर्शन बंद कराये।
इस घटना पर कुछ तथाकथित विद्वान् कह रहे हैं यदि सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ उचित नहीं है तो सार्वजनिक स्थानों पर जागरण भी नहीं होने चाहिए अर्थात यादवी पराक्रम उचित नहीं था। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि इस्लामियों के मुहल्ले में तो नमाज़ पढ़ने पर किसी के प्रभु राम के जयघोष की तो बात क्या कोई खाँसा भी नहीं तो यह विवाद उपजा कैसे? स्वाभाविक है यहाँ पर किसी अनुचित विद्वान् का प्रश्न और विरोध आयेगा कि इस्लामी मुहल्ले का मतलब? मुहल्ले भी इस्लामी और हिंदू होने लगे? अतः इस घटना के उचित-अनुचित होने को तय करने से पहले कुछ बातें जाननी आवश्यक हैं। भारत ही नहीं विश्व भर में इस्लामियों का स्वभाव है कि वो अपने मुहल्ले, कॉलोनी अलग बना कर रहते हैं। लाखों में कोई एक घटना होगी कि कोई इस्लामी किन्हीं अन्य धर्मावलम्बियों के बीच रहे।
इसका कारण जानने के लिये सदैव की तरह हमें इस्लामियों के व्यवहार की मूल आदेश पुस्तक क़ुरआन को देखना होगा। सूरा आले-इमरान की आयत नंबर 28 दृष्टव्य है। "ईमान वालों को चाहिये कि वे ईमान वालों के विरुद्ध काफ़िरों को अपना संरक्षक-मित्र न बनायें। और जो ऐसा करेगा तो उसका अल्लाह से कोई भी नाता नहीं। परन्तु यह कि तुम उनसे बचो जैसा बचने का हक़ है। और अल्लाह तुम्हें स्वयं से डराता है। और अल्लाह ही की ओर लौटना है।" क़ुरआन 28/3
सूरा अल माइदा आयात संख्या 55 "तुम्हारे मित्र तो केवल अल्लाह वाले और उस के रसूल और ईमान वाले लोग हैं जो नमाज़ क़ायम करते और ज़कात देते हैं, और वे {अल्लाह के आगे} झुकने वाले हैं" क़ुरआन 55/5
सूरा अल माइदा आयात संख्या 57 "हे ईमान लाने वालो ! तुम से पहले जिन को किताब दी गयी थी, जिन्होंने तुम्हारे दीन को हँसी और खेल बना लिया है उन्हें, और काफ़िरों को अपना मित्र न बनाओ। और अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो" क़ुरआन 57/5
किसी को क़ुरआन की पहली आयतों से स्पष्ट न हुआ हो तो अब इस अंतिम आयत से समझ आ गया होगा कि इस्लामियों के अलग मुहल्ले बना कर रहने का रहस्य क्या है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि काफ़िरों से दूर रहने, उन्हें अपना मित्र न बनाने के आदेशों के बावजूद गुरुग्राम के यादव बहुल वज़ीराबाद ग्राम में इस्लामी अपने मुहल्ले की मस्जिदें छोड़ कर, अपने घर पर नमाज़ पढ़ने की जगह बाहर क्यों निकले? इस्लामियों ने निजी आस्था प्रदर्शन को सार्वजनिक क्यों बनाया? यह जानना कठिन नहीं है। बाहर निकले बिना इस्लामी अपनी संख्या कैसे बढ़ायेंगे? दारुल-हरब {ग़ैर-इस्लामी क्षेत्र} को दारुल-इस्लाम {इस्लामी क्षेत्र} में कैसे बदलेंगे? लव जिहाद कैसे होगा? आख़िर यही तो प्रत्येक मुसलमान का इस्लामी कर्तव्य है।
शेष पर तो बात आइंदा ही सही मगर साहब जी इस मुद्दे पर तय रहा कि सर्वधर्म-सम्भाव किसी की अकेली ज़िम्मेदारी नहीं है। हम निज़ामुद्दीन, मुईनुद्दीन की दरगाह पर जाने के लिये तैयार हैं मगर आप भी जय श्री राम के उद्घोष में हमारे साथ आइये। नहीं आते हैं तो हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर जी ने कह ही दिया है कि सार्वजनिक स्थल पर नमाज़ वर्जित है। आख़िर सार्वजनिक स्थल पर शौच जैसी अनेकों क्रियाएं वर्जित हैं ही तो उनमें एक और सही। कम से कम तब तक तो अवश्य जब तक आप जय श्री राम के उद्घोष में साथ नहीं आते।

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