बुद्धिजीवियों के नकाब में "शहरी नक्सलियों" का "रक्त चरित्र"

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सामाजिक, आर्थिक उत्थान ही अगर ध्येय है तो इसके लिए प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश क्यों, माओवादियों?

स्वतंत्र भारत के इतिहास में नक्सली संगठनों के सक्रिय होने और उनके द्वारा हत्याएँ किये जाने पर आम जनमानस को यह संदेश दिया जाता रहा है कि इसका कारण मूलतः ज़मीन और ज़मीन से जुड़ी समस्याएँ हैं। किसी भी वामपंथी पत्रकार, प्रोफ़ेसर, नेता, कार्यकर्ता ने हत्याओं के सही मक़सद को नहीं बताया।

अगर मसला ज़मीन है, तो क्या जब तक ज़मीन रहेगी, तब तक ये हत्याएँ करते रहेंगे? क्या इन हत्याओं को जनमानस को एक स्वाभाविक प्रक्रिया मान लेना चाहिए, क्योंकि यह ज़मीन से जुड़ा हुआ मसला है?

यानी नक्सली चाहें तो किसी की भी हत्या कर दें और इसके लिए आम जनता को न उन्हें दोषी मानना चाहिए और न ही उनकी निंदा करनी चाहिए।

यानी तब वामपंथी पत्रकार, प्रोफेसर, विद्वान बड़ी आसानी से संविधान और कानून को दरकिनार कर सकते हैं?

जब बात अयोध्या की होगी, मंदिर या गौरक्षकों की होगी तो यही लोग संविधान, क़ानून, न्यायालय के असीम अनुपालक बन जाएँगे और फिर हर किसी के वक्तव्य को कुतर्क, जाहिलियत ठहरा दिया जाएगा।

लेकिन नक्सली हत्या, भारत तेरे टुकड़े होंगे, अलग राष्ट्र की माँग, मुक्त इलाकों के निर्माण की माँग पर अगर कानूनी कार्यवाही हो तो इसे लोकतंत्र की हत्या कह डालेंगे, राष्ट्रीय अखंडता एक अनर्गल प्रलाप भर रह जायेगी और तब संविधान और राष्ट्र की परिकल्पना को ही धता बता दिया जाएगा।

दरअसल माओवादियों का सम्पूर्ण प्रयत्न भूमिहीनों, आदिवासियों, निम्न जाति के सम्मान की लड़ाई या फिर न्यूनतम मज़दूरी आदि न होकर, केवल और केवल राज्य-सत्ता हासिल करना होता है, वर्तमान राजनीति व्यवस्था को बलपूर्वक ख़त्म करना होता है, ताकि सत्ता पर काबिज़ होकर जनता के साथ वही समाजवादी प्रयोग किया जा सके, जो माओ ने किया था। इसका सरल अर्थ यह कि अगर माओवादी सफ़ल हुए तो प्रत्येक क्षेत्र और समुदाय के लोगों को वही नरक भोगना पड़ेगा जो माओ के शासन काल में चीन के लोगों को भोगना पड़ा था।

डॉ विजय कुमार और डॉ शंकर शरण अपने निबंध "नक्सलवाद:मिथक और यथार्थ" में साफ़ शब्दों में कहते हैं कि, "1967 में सी.पी.एम से फूटकर अलग होने वाले कम्युनिस्ट इसी ज़िद पर अलग हुए थे कि भारत में सत्ता पर अधिकार माओ के रास्ते पर चलकर,वर्ग-शत्रु का सफ़ाया करके, सशस्त्र संघर्ष करके ही होगा। 1968 में चारु मजूमदार ने अपनी कुख्यात 'हत्या-संहिता' ही प्रकाशित की थी जिसके अनुसार,"जिसने वर्ग शत्रुओं के ख़ून में अपनी उँगली नहीं डुबाई उसे कम्युनिस्ट नहीं कहा जा सकता है।" इन्हीं अंध-विश्वासों के अंतर्गत नक्सली हिंसा होती रही।

विभिन्न नक्सली गुटों के दस्तावेजों को पढ़कर आसानी से देखा जा सकता है कि जंगल, ज़मीन, आदि के प्रश्न का उठाना दरअसल वह प्राथमिक तरकीब है जिससे जगह बनाई जा सके। दूसरे शब्दों में,वे सब ऊपरी राजनीतिक प्रसाधन हैं, ताकि मीडिया और वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच तर्क का जज़्बा कायम रहे।

प्रधानमंत्री की हत्या से कौन से ज़मीन, जंगल की समस्या सुलझ सकती है? गरीब और भूखे आदिवासियों को जो हाथ उन्हें लाखों का बंदूक और असलहा थमाते हैं, वो उनकी रोटी क्यों मुहैया नहीं करा सकते? इसे बिल्कुल स्पष्ट समझा जाना चाहिए कि इनकी विचारधारा नक्सली हिंसा और हत्याओं के बल पर राजसत्ता पर अधिकार करना चाहती है।

जो भी संगठन इस देश के टुकड़े करना चाहेगा, ये माओवादी और वामपंथी विचारकों की फ़ौज इनके समर्थन में खड़े दिखेंगे। देश के भीतर बात-बात पर बंदूक से क्रांति की बात करने वाले कारगिल युद्ध के समय "निर्दोष लोगों की जान बचाने के लिए" सक्रिय होकर इस्लामी जिहादियों और पाकिस्तानी सेना से बातचीत की सलाह देने लगते हैं।

शहरी नक्सलवाद को ग़लत धारणा बताने वाले यही लोग JNU में CRPF के जवानों की मौत पर ढफली पर थाप देते हैं। शहरी नक्सली सत्य ही नहीं बल्कि प्रमाणित सत्य है और ये कोई अनपढ़, मूर्ख नहीं बल्कि पत्रकार, प्रोफेसर, सामाजिक कार्यकर्ता, रंगकर्मी किसी भी रूप में हो सकते हैं। जो लोग शहरी नक्सली को नकार रहे हैं वे थोड़ा ये भी बताने का कष्ट करें कि हथियार डील, रणनीति निर्माण, योजना, विदेशी ताकतों से संबंध इन सब मसलों पर बात और निर्णय कोई अनपढ़ नक्सली नहीं लेगा फिर ये पढ़े लिखे जमात जो इनके पढ़े लिखे लोगों के कार्य को संभालते हैं वे किसके बीच होंगे ये छुपने वाली बात नहीं है।

वर्तमान में गिरफ्तार हुए नक्सलियों को भी कोर्ट के फैसले से पहले ही "कोर्ट ऑफ बुद्धिजीवी" के द्वारा क्लीन चिट मिल चुका है इसलिए आगे यदि ये लोग कोर्ट से दोषी करार भी दिए जाते हैं तो ये बात मानना गलतफहमी होगी कि ये लोग कोर्ट के फैसला का सम्मान करेंगे बिल्कुल साईंबाबा की तरह ।

इनके अनुसार देशभक्ति की धारणा कहीं ठहरती नहीं क्योंकि मज़दूरों का कोई देश नहीं होता। जब देश ही नहीं तो देशभक्ति कैसी?

घटती मज़दूर संख्या और उनका बढ़ता सामाजिक आधार इनके लिए परेशानी का सबब हो जाता है। मज़दूर नहीं रहेंगे तो इनके लिए लड़ेगा कौन। इसी प्रकार इनकी नैतिकता भी सामान्य मानवीय नैतिकता नहीं, बल्कि वह कम्युनिस्ट नैतिकता है जिसमें मनुष्यों के जान की परवाह नहीं की जाती।

शंकर शरण कहते हैं कि, सच्चाई यह है कि वे सिर्फ सत्ता पर अधिकार की राजनीति, एक काल्पनिक क्रांति की राजनीति करते हैं, जिसमें गरीब लोग उनके लिए औज़ार के सिवा और कुछ नहीं।

मैक्सिम गोर्की ने सटीक कहा था कि "लेनिन यूरोप में क्रांति भड़काने के लिए रूसी मज़दूरों का ईंधन की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।"

पिछले वर्षों में नेपाल में माओवादी विध्वंस में 15000 से अधिक जानें गईं, वह क्यों गईं इसकी बात कभी बुद्धिजीवी नहीं करते।

प्रसिद्ध अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका टाइम्स को प्रचंड ने कहा था कि कुछेक वर्षों पहले उसके पास कुछ नहीं था, न आधुनिक हथियार न प्रशिक्षित लड़के। तो कुछ ही वर्षों में उसके पास इतने संसाधन कहाँ से और किन शर्तों पर आए?

कश्मीर, पुर्वोत्तर से लेकर और बहुत सारी बातें हैं जिन पर अभी विचार नहीं किया गया तो हम माओ की धारणा को ही पुष्ट करेंगे जो कहता था कि भारतीयों का कोई चरित्र नहीं है, 'जो खोखले शब्दों के भंडार हैं" तथा "भारत एक मंदबुद्धि गाय है जो किसी वैशाखी पर टिका है।

विजय कुमार और शंकर शरण की टिप्पणी सही लगती है कि यदि हम नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की प्रतिक्रिया समझते रहे, तो भारतीयों के बारे में माओ की टिप्पणी को निःसंदेह सही प्रमाणित करेंगे।

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