श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष

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श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष

प्रभू श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्र रूप में हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण विष्णुजी के आठवें अवतार माने जाते हैं। यह श्रीविष्णु का सोलह कलाओं से पूर्ण भव्यतम अवतार है।

कृष्ण जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद्गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी को भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।

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ई. पू. दूसरी या पहली शताब्दी के घोसुण्डी अभिलेख एवं इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, में कृष्ण को 'भागवत एवं सर्वेश्वर' कहा गया है। यही बात नागाघाट अभिलेखों, ई. पू. 200 ई. में भी है। बेसनगर के 'गरुणध्वज' अभिलेख में वासुदेव को 'देव-देव' कहा गया है। ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि ई. पू. 500 वर्ष पूर्व भी उत्तरी एवं मध्य भारत में वासुदेव की पूजा प्रचलित थी।

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आध्यात्मिक - 'जन्माष्टमी व्रत' एवं 'जयन्ती व्रत' एक ही हैं या ये दो पृथक् व्रत हैं। कालनिर्णय ने दोनों को पृथक् व्रत माना है, क्योंकि दो पृथक् नाम आये हैं, दोनों के निमित्त (अवसर) पृथक् हैं (प्रथम तो कृष्णपक्ष की अष्टमी है और दूसरी रोहिणी से संयुक्त कृष्णपक्ष की अष्टमी), दोनों की ही विशेषताएँ पृथक् हैं, क्योंकि जन्माष्टमी व्रत में शास्त्र में उपवास की व्यवस्था दी है और जयन्ती व्रत में उपवास, दान आदि की व्यवस्था है।

इसके अतिरिक्त जन्माष्टमी व्रत नित्य है (क्योंकि इसके न करने से केवल पाप लगने की बात कही गयी है) और जयन्ती व्रत नित्य एवं काम्य दोनों ही है, क्योंकि उसमें इसके न करने से न केवल पाप की व्यवस्था है प्रत्युत करने से फल की प्राप्ति की बात भी कही गयी है। एक ही श्लोक में दोनों के पृथक् उल्लेख भी हैं। हेमाद्रि, मदनरत्न, निर्णयसिन्धु आदि ने दोनों को भिन्न माना है। निर्णयसिन्धु ने यह भी कहा है कि इस काल में लोग जन्माष्टमी व्रत करते हैं न कि जयन्ती व्रत। किन्तु जयन्तीनिर्णय का कथन है कि लोग जयन्ती मनाते हैं न कि जन्माष्टमी। सम्भवत: यह भेद उत्तर एवं दक्षिण भारत का है।

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वैदिक शास्त्रों में - श्रावण (अमान्त) कृष्ण पक्ष की अष्टमी को कृष्ण जन्माष्टमी या जन्माष्टमी व्रत एवं उत्सव प्रचलित है, जो भारत में सर्वत्र मनाया जाता है और सभी व्रतों एवं उत्सवों में श्रेष्ठ माना जाता है। कुछ पुराणों में ऐसा आया है कि यह भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। इसकी व्याख्या इस प्रकार है कि 'पौराणक वचनों में मास पूर्णिमान्त है तथा इन मासों में कृष्ण पक्ष प्रथम पक्ष है।' पद्म पुराण , मत्स्य पुराण , अग्नि पुराण में कृष्ण जन्माष्टमी के माहात्म्य का विशिष्ट उल्लेख है।

छान्दोग्योपनिषद में आया है कि कृष्ण देवकी पुत्र ने घोर आंगिर से शिक्षाएँ ग्रहण कीं। कृष्ण नाम के एक वैदिक कवि थे, जिन्होंने अश्विनों से प्रार्थना की है ।

अनुक्रमणी ने ऋग्वेद को कृष्ण आंगिरस का माना है।

जैन परम्पराओं में कृष्ण 22वें तीर्थकर नेमिनाथ के समकालीन माने गये हैं और जैनों के प्राक्-इतिहास के 63 महापुरुषों के विवरण में लगभग एक तिहाई भाग कृष्ण के सम्बन्ध में ही है।

महाभारत में कृष्ण जीवन भरपूर हैं। महाभारत में वे यादव राजकुमार कहे गये हैं, वे पाण्डवों के सबसे गहरे मित्र थे, बड़े भारी योद्धा थे, राजनीतिज्ञ एवं दार्शनिक थे। कतिपय स्थानों पर वे परमात्मा माने गये हैं और स्वयं विष्णु कहे गये हैं। महाभारत शान्ति पर्व , द्रोण पर्व , कर्ण पर्व , वन पर्व ,भीष्म पर्व। युधिष्ठिर , द्रौपदी एवं भीष्म ने कृष्ण के विषय में प्रशंसा के गान किये हैं। हरिवंश, विष्णु, वायु, भागवत एवं ब्रह्मवैवर्त पुराण में कृष्ण लीलाओं का वर्णन है जो महाभारत में नहीं पाया जाता है।

पाणिनि से प्रकट होता है कि इनके काल में कुछ लोग 'वासुदेवक' एवं 'अर्जुनक' भी थे, जिनका अर्थ है क्रम से वासुदेव एवं अर्जुन के भक्त।

पतंजलि के महाभाष्य के वार्तिकों में कृष्ण सम्बन्धी व्यक्तियों एवं घटनाओं की ओर संकेत है, यथा वार्तिक संहिता में कंस तथा बलि के नाम, वार्तिक संहिता में 'गोविन्द' एवं पाणिनी के वार्तिक में वासुदेव एवं कृष्ण।

पंतजलि में 'सत्यभामा' को 'भामा' भी कहा गया है। 'वासुदेववर्ग्य:' , ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च' में, उग्रसेन को अंधक कहा गया है एवं वासुदेव तथा बलदेव को विष्णु कहा गया है, आदि शब्द आये हैं।

अधिकांश विद्वानों ने पंतजलि को ई. पू. दूसरी शताब्दी का माना है। कृष्ण कथाएँ इसके बहुत पहले की हैं। आदि पर्व एवं सभा पर्व में कृष्ण को वासुदेव एवं परमब्रह्म एवं विश्व का मूल कहा गया है।

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श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्य राशि प्राप्त कर लेंगे। व्रजमण्डल में श्रीकृष्णाष्टमी के दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात् दधिकांदौ श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्षमें बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्रीविग्रहपर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासी उसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रों से मंगल ध्वनि बजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं । श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है।

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विशेष - भविष्योत्तर पुराण में कृष्ण द्वारा 'कृष्णजन्माष्टमी व्रत' के बारे में युधिष्ठिर से स्वयं कहलाया गया है–'मैं वासुदेव एवं देवकी से भाद्र कृष्ण अष्टमी को उत्पन्न हुआ था, जबकि सूर्य सिंह राशि में था, चन्द्र वृषभ राशि में था और नक्षत्र रोहिणी था'। जब श्रावण के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र होता है तो वह तिथि जयन्ती कहलाती है, उस दिन उपवास करने से सभी पाप जो बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था एवं बहुत से पूर्वजन्मों में हुए रहते हैं, कट जाते हैं। इसका फल यह है कि यदि श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहिणी हो तो न यह केवल जन्माष्टमी होती है, किन्तु जब श्रावण की कृष्णाष्टमी से रोहिणी संयुक्त हो जाती है तो जयन्ती होती है।

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जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है।

यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत्।

भौमस्य ब्रह्मणों गुप्त्यै तस्मै ब्रह्मात्मने नम:।।

सुजन्म-वासुदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।

शान्तिरस्तु शिव चास्तु॥

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