"कांग्रेस में एक बड़े शून्य का आगाज़" सोनिया गांधी के रणनीतिकार अहमद पटेल का कोरोना से निधन?
सोनिया राजनीति में आने की 'अनिच्छुक बिल्कुल नही थी" बल्कि उनके अंदर लिगेसी पर कब्जा बनाये रखने की प्रबल भावना थी
सोनिया राजनीति में आने की 'अनिच्छुक बिल्कुल नही थी" बल्कि उनके अंदर लिगेसी पर कब्जा बनाये रखने की प्रबल भावना थी
सोनिया गांधी ने जिस राजनैतिक सूझबूझ से 20 वर्षों से अधिक कांग्रेस पार्टी चलाई वो "सूझबूझ और सुदबुध" अब खो दिया है।
मोहतरम जनाब अहमद पटेल साहब का कोरोना बीमारी इंतकाल हो गया है "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन" अल्लाह उनको ग़रीक़-ए-रहमत करे उनके अगले पिछले व "सग़ीरा-कबीरा गुनाहों" को माफ कर उनकी मगफिरत फरमाए !
इंदिरा युग में जो भी राजनीतिक सोच और सूझबूझ का श्रेय इंदिरा को मिलता रहा उसके पीछे कहीं न कहीं उनकी अपनी समझ के अलावा पर्दे के पीछे से "माखन लाल फोतेदार और आर के धवन" राजनीतिक बिसात पर उनके मोहरों और प्यादों को सेट करते थे। और यहीं से कांग्रेस में मैनेजेरियल पॉलिटिक्स की शुरुआत हुई।
राजीव गांधी के दौर में इंदिरा के विश्वसनीय किन्तु प्रभावशाली नेताओं को एक-एक कर ठिकाने लगाया जाने लगा क्योंकि राजीव में आत्मविश्वास की बेहद कमी तो थी ही वो शक्की और अपने सहयोगियों के लिये बेहद झूठ बोलने वाले सख्श भी थे। कुल मिला कर राजनीतिक समझ मे सिफर और उनके अंदर का यही भय था कि ऐसे नेता जो स्वयं क्रिश्चियन थे अथवा जिनकी पत्नियां क्रिश्चियन थीं वो ही उनके कोटरी का अंग बनते गये भले राजनीतिक रूप से वो शून्य ही थे।
जल्द ही फोतेदार-धवन युग का भी अंत हो गया क्योंकि एक न तो वो क्रिश्चियन थे दूसरा सोनिया के विश्वासपात्र विंस्टन जॉर्ज ने दिल्ली दरबार के राजपाट पर अपनी पकड़ बना ली थी।
एक समय ऐसा भी आया कि जो क्रिश्चियन नही थे या जिनकी पत्नियां भी ईसाई मूल की नहीं थीं उन्होंने सोनिया राजीव का विश्वास हासिल करने के लिए ईसाई धर्म अपनाने में देरी नही की। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और जगनमोहन रेड्डी के पिता स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी ने भी ईसाई धर्म अपनाने में देरी नही की और फलस्वरूप जल्द ही उन्हें आंध्र के मुख्यमंत्री पद का पुरस्कार मिल गया।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री अजित जोगी, पूर्व केंद्रीय मंत्री अम्बिका सोनी, मिज़ोरम के पूर्व मुख्यमंत्री लाल थांहवाला, नागालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री एस सी जमीर आदि जैसे ऐसे कई कांग्रेसी नाम हैं जिन्होंने अपनी जमीर और संस्कृति बेच करसिर्फ राजीव सोनिया परिवार की चापलूसी और चाटुकारिता में क्रिश्चियनिटी अपना लिया ताकि सत्ता की मलाई मिलती रहे।
कैप्टेन सतीश शर्मा राजीव के सखा बाद में थे उनकी विदेशी मूल की क्रिश्चियन पत्नी सोनिया की सखी पहले थीं।
राजीव के निधन के बाद प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव के राजनीतिक सलाहकार की भूमिका जितेंद्र प्रसाद को मिली और उसके बाद ही पार्टी के अंदर घमासान और मारधाड़ शुरू हो गयी।
उत्तर दक्षिण, पूरब पश्चिम सभी जगह कांग्रेस में बिखराव शुरू हो गया। कहीं तिवारी कांग्रेस बनी तो कहीं तमिल मनिला, कहीं तृणमूल बनी तो कहीं सिंधिया कांग्रेस और करुणाकरण कांग्रेस।
सत्ता के लिए छटपटाते नेताओं ने विस्टन जॉर्ज की दरबारगिरी शुरू की और उसी माध्यम से सोनिया तक अपनी बात पहुंचा पाते जिन्हें अब कांग्रेस की राजमाता समझा जाने लगा था। सोनिया राजनीति में आने की 'अनिच्छुक बिल्कुल नही थी" बल्कि उनके अंदर लिगेसी पर कब्जा बनाये रखने की प्रबल भावना थी, क्योंकि वो इसे मेनका के हाथ में तो हरगिज न जाने देतीं, पर मुश्किल ये थी कि "उन्हें न हिंदी ठीक से आती और न ही राजनैतिक समझ थी"। उनके संस्कार और संस्कृति भारतीय नही थे बल्कि वो तो "ईट ड्रिंक एंड बी मैरिड" के यूरोपियन सिद्धांत के बीच पली बढ़ी थीं । इससे ज्यादा उन्होंने सोचा भी नही था क्योंकि इतना तेजी से सबकुछ बदल जायेगा इसकी किसी को आशंका भी नहीं थी।
ऐस में अहमद पटेल सोनिया के सबसे विश्वपात्र सिपहसालार और सलाहकार बन कर उभरे। नाम सोनिया का रहता पर काम अहमद पटेल का होता। अहमद पटेल के शांत और विनम्र चेहरे के पीछे एक बेहद शातिर रणनीतिकार और क्रूर राजनीतिज्ञ था जो अपने विरोधियों पर बियॉन्ड विजुअल रेंज से ही वार करने में माहिर था और किसी राडार के पकड़ में भी नही आता था।
राहुल और और प्रियंका की दुर्गति इसी लिये हो रही है "क्योंकि न उनके अंदर कोई विजन है, न राजनीतिक सूझ बूझ, न संस्कार न ही भारतीयता ही"। बल्कि वो अपने इर्दगिर्द नये पुराने लंठो से घिरे हुये हैं जिनके पास न राजनैति का सामान्य ज्ञान है न ही रणनीति की समझ और न ही देश के लिये कुछ कर गुजरने का जुनून। है तो सिर्फ और सिर्फ एन केन प्रकारेण सत्ता की प्राप्ति और अथाह धन लोलुपता और ऐय्याशी की हसरत भले इसके लिये देश के दुश्मनों को ही साथ क्यों न लेना पड़े।
अहमद पटेल के बाद कांग्रेस में एक बड़ा शून्य उत्पन्न होगा क्योंकि वतुतः कांग्रेस पार्टी पर्दे के पीछे से दो दशकों से अधिक समय से वही चलाते आये थे।
हां सुविधाभोगी आम कांग्रेसी यही सोच रहा होगा कि पता नहीं खजाने की चाभी वो "परिवार" को सौंप गये या किसी और को वसीयत कर गये।
अल्लाह उन्हें जन्नत बक्शे।
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लेखक : Manoj Kumar Mishra