सिया के राम

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न्यायप्रिय लक्ष्मण से लेकर दुःखी मिथिलावासियों तक और वर्तमान के "यौन विकृत वामपंथी नारीवादियों" से लेकर सह्रदय संवेदनशील नारीवादियों तक के लिये राम बड़ी परेशानी का विषय रहे हैं।

एक ओर उनकी सत्यनिष्ठा, वीरता, सच्चरित्रता तो दूसरी ओर शूर्पणखा के नाक-कान काटना और सबसे बढ़कर अपनी गर्भवती पत्नी का त्याग?
ये 'व्यक्ति' तो 'मर्यादापुरुषोत्तम' क्या सामान्य सह्रदय पुरुष कहलाने के योग्य भी नहीं।
हजारों वर्षों से चले आ रही रामकथा में यह प्रसंग लोगों के गले में अटक जाता है फिर भी आश्चर्य है कि लोकमन आज भी राम को "पूजनीय, अनुकरणीय" मानता है।
इस कटुप्रसंग के बावजूद किसी भी स्त्री के मन को टटोल लीजिये वह 'राम' जैसे 'एकनिष्ठ पति' के सपने देखती है।
जनमानस किसी भी सुसंस्कृत दंपत्ति को देखकर उसकी तुलना सदैव और सदैव 'सीता-राम' की जोड़ी से करता है।
''अहा! क्या 'सीता-राम' सी जोड़ी है।"

क्यों?

क्योंकि मानव प्रजाति के पॉलीगेमस होने के बावजूद स्त्रियों में एकनिष्ठता होने की क्षमता और संख्या अधिक है, पुरुष में यह क्षमता नहीं है।

पुरुष में यह क्षमता तीन परिस्थितियों में आ सकती है।

1-- पुरुष नपुंसक हो।

2-- पुरुष स्त्री से उदासीन हो।

3-- पुरुष को उसका वांक्षित प्रेम मिल गया हो।

पुरूष वस्तुतः अपूर्ण होता है और जीवन भर उस स्पर्श, भावना और प्रेम को ढूंढता फिरता है जो उसने भ्रूण अवस्था से अपनी माँ में महसूस किया था। जब उसे ऐसी स्त्री मिल जाती है, उसकी पूर्णता की यह खोज भी पूर्ण हो जाती है और तब संसार भर की सुंदर से सुंदर स्त्री भी उसके लिये अर्थहीन हो जाती है।

राम संसार के ऐसे ही एक दुर्लभ पुरुष थे जिन्होंने अपने युवा जीवन की पहली स्त्री सीता में यह पूर्णता पायी और उनकी एकनिष्ठता किसी प्रतिज्ञा का नहीं बल्कि उनकी 'पूर्णता' का परिणाम थी।

इसीलिये अगर आप 'सीता-राम' के प्रेम को साझे बिना 'राम द्वारा सीता त्याग' को समझना चाहते हैं तो यह वैसा ही है जैसे पीपल के बीज को देखकर कुतर्क करना कि इससे इतना विशाल वृक्ष कैसे बन सकता है?

लेकिन अगर आप कहना चाहते हैं कि राम और सीता में प्रेम था ही नहीं या केवल सीता की तरफ से एकतरफा प्रेम था तो मैं यह कहते हुए कि कि सीता और राम के प्रेम को समझने के लिये जीवन में पहले किसी से 'वास्तविक प्रेम' कीजिये, आपसे यहीं सादर क्षमा माँगता हूँ।

लेकिन अगर आप मानते हैं कि उनमें ऐसा प्रेम था कि--

-- एक अपने राजसी सुखों को छोड़कर चल देती है ताकि अपने प्रिय के कष्टों में सहगामिनी बन सके।

-- दूसरा अपनी प्रिया की खोज में समुद्र पर पुल बांध देता है और विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य को अपनी प्रिया के हरण के अपराध में क्षार कर देता है

-- एक तमाम अपमानों व कष्टों को सहकर भी अपने 'प्रिय' के दुःख को समझती है और उसके खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकती।

-- दूसरा अपनी प्रिया के वियोग में दग्ध हो राजमहल में भी अरण्यवासियों की तरह कंद मूल खाकर कुश शैया पर सोता है क्योंकि उसकी प्रिया वन में असुविधाजनक जीवन जी रही है।

अब दोंनों पक्षों में बड़ी उलझन है।

अगर राम में सीता के प्रति इतना ही प्रेम था तो

-- लंका में सीता की अग्निपरीक्षा को क्या कहा जाये?

--अपनी "सती गर्भिणी पत्नी" को वन भेज देने वाले इस निष्ठुर पति को क्या कहा जाये?

अब बेचारे घबराये हिंदू अपनी-अपनी क्षमता से जुट जाते हैं।

1) कुछ सयाने लोगों ने बड़ा सरल तर्क निकाल लिया है। उनके अनुसार अग्निपरीक्षा और परित्याग हुआ ही नहीं था, सब दुष्प्रचार है। ये सब प्रक्षेप है।

2) अधिकतर मानते हैं कि अग्निपरीक्षा एक यज्ञ था जिससे सीता वापस आईं, और माया से रचित सीता अग्नि को वापस की गईं।

3) कुछ का तर्क है कि प्रजा को संतुष्ट करने के लिए राम ने पत्नी को त्याग दिया-- राजधर्म था।

मेरी स्थापना के अनुसार पहले तर्क वाले परले दर्जे के धूर्त हैं या सुविधाजीवी अहंकारी क्योंकि वर्तमान में यह सबसे अधिक सुविधाजनक तर्क है। पर ये भूल जाते हैं कि उत्तर रामायण वाल्मीकि के ही अनुसार लिखी ही बाद में गई और फलश्रुति के बाद भी 'खिलभाग' के रूप में 'पौलस्त्य वध' में जोड़ दी गई ठीक वैसे ही जैसे कि महाभारतकार को 'खिलभाग' के रूप में 'हरिवंशपुराण' लिखना पड़ा, यद्यपि वह पुराण के फॉर्मेट में होने के कारण स्वतंत्र ग्रंथ बन गया। इसलिये प्रक्षिप्तांश घोषित करने वाला तर्क तो भूल ही जाइये।

दूसरे तर्क वाले हैं असली अंधभक्त जिन्हें सिर्फ 'चमत्कार को नमस्कार' वाली भाषा ही समझ आती है। इन्हें मैं दूर से ही प्रणाम करता हूँ और करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि इस विमर्श से दूर रहें।

अब बचे 'राजधर्म' वाले तर्क जिनमें परंपराओं से जुड़े एतिहासिक तथ्यों का बल भी है, लेकिन इस तथ्यात्मक तर्क को सुशोभित ने बिंना प्रमाण के 'अंधभक्ति' घोषित कर दिया और साथ ही 'भक्ति' को निकृष्ट घोषित कर दिया जिसे मैं क्रोधावेग या आवेश में लिखा हुआ मानकर विमर्श के योग्य ही नहीं मानता क्योंकि भक्ति तो समस्त प्रश्नों का उत्तर होती है और प्रश्न शांत होने पर ही भक्ति उपलब्ध हो सकती है। अस्तु!

पर मूल प्रश्न अभी भी वही है--

-- राम ने 'अग्निपरीक्षा' लेने का दुःसाहस किया कैसे?

-- राम ने अपनी गर्भिणी पत्नी का त्याग करने का पाप किया कैसे?

पर मेरे पास दूसरा ही सवाल है?

राम के पास विकल्प क्या थे?

1-- राम को लोक प्रवाद पर ध्यान देना ही नहीं चाहिये था।

2--राम को प्रवाद फैलाने वाले प्रजाजन/धोबियों को ढूंढ ढूंढ कर सूली पर चढ़ा देना चाहिए था? लक्ष्मण तो यह काम बड़ी खुशी से करते।

3-- राम को सीता के साथ राजमहल छोड़कर स्वयं भी वन चले जाना चाहिये था।

प्रथम और द्वितीय बिंदु पर तो कोई भी विवेकशील सहमत नहीं होगा क्योंकि उससे 'लोक प्रवाद' और मजबूत ही होता।

अधिकांश नारीवादी तीसरे विकल्प की ही वकालत करेंगे और राम भी निःसंदेह ऐसा ही करते पर किया नहीं।

क्यों?

अब मेहरबानी करके अपने अंधविरोध राम को सत्तालोलुप या सुविधाभोगी घोषित मत कर दीजियेगा क्योंकि जो महापुरुष अपने पिता के मुंह से उच्चारे बिना ही साम्राज्य छोड़ सकता है वह अपनी प्राणप्रिया पत्नी के लिए साम्राज्य क्या संसार भी छोड़ सकता है।

वस्तुतः इस पहेली का जवाब छिपा है महाभारत में जहाँ भीष्म भारत के विभिन्न भूभागों की 'प्रजाओं' की प्रकृति और चरित्र का विश्लेषण करते हैं और इसी क्रम में कोशल की प्रजा को सर्वाधिक स्वामिभक्त परंतु परंपरावादी बताया गया है।

'परंपरायें' अर्थात 'अलिखित संविधान' जिसे मानने के लिए राजा भी बाध्य था और यही कारण था कि अहिल्या के शाप को भंगकर ऋषियों की शाप परंपरा को तोड़ने वाले, निषादराज गुह से भातृत्व के समान स्तर पर मिलने वाले, शबरी के बेर खाने वाले 'वनवासी राम' 'राजा राम' के रूप में शंबूक का वध करने पर विवश हो जाते हैं।

अयोध्या के जनों की कट्टर परंपरावादी प्रवृत्ति से पूर्ण परिचित राम ने सीता से अग्नि की साक्षी में सतीत्व की पवित्रता की शपथ ली(अग्निपरीक्षा बकवास और अतार्किक है) ताकि अयोध्या के संभावित तूफान के विकसित होने से पूर्व ही उसका शमन किया जा सके।

परंतु उनका यह प्रयास पूर्णतः सफल नहीं हुआ और सिंहासनारोहण के कुछ महीनों बाद वही हुआ जिसका डर था।

प्रवाद प्रारंभ हो गया और गुरु वसिष्ठ तक इसका प्रतिकार नहीं कर पाये या करना नहीं चाहा।(सरयूपारीड या कुछ ब्राह्मण जातियों की अनुश्रुतियों के आधार पर)

अब राम के सामने विकल्प क्या थे?

सच ये है कि कोई विकल्प था ही नहीं।

'वनवासी राम' के सामने ढेरों विकल्प थे लेकिन 'राजाराम' के सामने कोई विकल्प नहीं था क्योंकि हिंदू परंपरा में राजा निरंकुश नहीं था और वह प्रजा के प्रतिनिधि "पौर जनों" की मांग सुनने के लिये बाध्य था।राम जैसा राजा अपनी प्रजा के बहुमत को नहीं ठुकरा सकता था।

परंतु इसका एक अन्य पहलू भी था।

'सिंहासन त्याग' से सीता पर लगा कलंक धुल नहीं सकता था बल्कि और प्रबल होता जिससे सीता के साथ साथ उनकी भावी संतति का भविष्य भी प्रभावित होता क्योंकि महापुरुषों की जीवन की यही विडंबना होती है, उनके जीवन में कुछ भी साधारण नहीं होता। उनकी सुकीर्ति की ऊंचाई के साथ साथ उनपर लगे लांक्षन भी उतने ही गहरे होते हैं। सीता और राम भी इसके अपवाद नहीं थे।

अब प्रश्न उठता है कि अयोध्या या मिथिला या वासिष्ठाश्रम में क्यों नहीं? उन्हें 'जंगल' में क्यों 'त्यागा' गया?

प्रथम बात उन्हें त्यागा नहीं गया वरन स्वयं से दूर किया गया ताकि प्रवाद हल्का पड़े और लोग विवेकपूर्ण ढंग से सोच सकें। वासिष्ठाश्रम और मिथिला में प्रवाद सीता का पीछा नहीं छोड़ता।

इसके अलावा वाल्मीकि आश्रम अपने युग का आश्रम कम एक शानदार सैन्य दुर्ग ज्यादा था और वाल्मीकि ऋषि कवि के अलावा युद्धाचार्य भी थे जिसका प्रमाण राम को राक्षसों से घिरे प्रदेश में उनकी निर्भीक उपस्थिति के रूप में मिल चुका था। राम के लिए अपनी भावी संतति की शिक्षा दीक्षा और सीता के लिए अदृश्यावरण हेतु गहन वन में यह आश्रम एकदम उपयुक्त था।

शत्रुघ्न को लवणासुर अभियान हेतु मथुरा जाते समय वाल्मीकि आश्रम में रुकना और उसी रात सीता को जुडवा बच्चों का जन्म होना, वाल्मीकि द्वारा दोंनों को शस्त्र व शास्त्रों की शिक्षा देते हुए भी कुश व लव नाम रखते हुए "कुशीलव" परंपरा में गायन सिखाना, अश्वमेध के घोड़े को पकड़ने पर भी हस्तक्षेप ना करना, यदि यह सब संयोग लगता है तो फिर आप राम को सत्तालोभी, पत्नीपीडक और विक्षिप्त मानने के लिए स्वतंत्र हैं।

जहां तक मेरा प्रश्न है मेरे लिए राम ईश्वर हों ना हों पर,

एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श पिता और सबसे बढ़कर एक आदर्श राजा व राष्ट्रीय महानायक थे।

संसार में कोई ऐसी स्थापना बनी ही नहीं जो उनकी इस छवि पर दाग भी लगा सके।

इति।।

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