भागी हुई लड़कियों का बाप !!!

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भारत का एक सामान्य पिता अपनी बेटी के प्रेम से नहीं डरता, वह अपनी बेटी के लूटे जाने से डरता है।

भागी हुई लड़कियों का बाप !!! वह इस दुनिया का सबसे अधिक टूटा हुआ व्यक्ति होता है। पहले तो वह महीनों तक घर से निकलता नहीं है, और फिर जब निकलता है तो हमेशा सर झुका कर चलता है। अपने आस-पास मुस्कुराते हर चेहरों को देख कर उसे लगता है जैसे लोग उसी को देख कर हँस रहे हैं। वह जीवन भर किसी से तेज स्वर में बात नहीं करता, वह डरता है कि कहीं कोई उसकी भागी हुई बेटी का नाम न ले ले... वह जीवन भर डरा रहता है। वह तिल-तिल रोज मरता है और तब तक मरता है जब तक कि मर नहीं जाता।


पुराने दिनों में एक शब्द होता था 'मोछ-भदरा'। जिस पिता की बेटी घर से भाग जाती थी, उसे उसी दिन हजाम के यहाँ जा कर अपनी मूछें मुड़वा लेनी पड़ती थी। यह ग्रामीण सभ्यता का अलिखित संविधान था। तब मनई दो बार ही मूँछ मुड़ाता था, एक पिता की मृत्यु पर और दूसरा बेटी के भागने पर। बेटी का भागना तब पिता की मृत्यु से अधिक पीड़ादायक समझा जाता था। तब और अब में बस इतना इतना ही अंतर है कि अब पिता मूँछ नहीं मुड़ाता, पर मोछ-भदरा तब भी बन जाता है। बिना मूँछ मुड़ाये...

किसी के "फेर" में फँस कर घर से भागते बच्चे (लड़के और लड़कियाँ दोनों) यह नहीं जानते कि दरअसल वे अपने पिता की प्रतिष्ठा के मुह में मूत कर जा रहे हैं। निरीह पिता का मुख जीवन भर उस 'मूत' के कड़वे स्वाद से गजबजाया रहता है।

वैसे एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि बेटे के भागने पर पिता कम दुखी होता है, बेटियों के भागने पर अधिक। सुनने में गलत लगता है न? भेदभाव जैसा है न यह? पर इस भेदभाव का एक बड़ा कारण है...

जानते हैं भारतीय समाज अपनी बेटियों को ले कर इतना संवेदनशील क्यों रहा है? भारत का इतिहास पढ़िए। हर्षवर्धन के बाद तक, अर्थात सातवीं-आठवीं शताब्दी तक वसन्तोत्सव मनाए जाने के प्रमाण हैं। वसन्तोत्सव ! वसन्त के दिनों में एक महीने का उत्सव, जिसमें विवाह योग्य युवक-युवतियाँ अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुनते/चुनती और समाज उसे पूरी प्रतिष्ठा के साथ मान्यता देता था। कितना आश्चर्यजनक है न, कि आज उसी देश में खाप पंचायतें हैं जो प्रेम करने पर मृत्युदण्ड तक देती हैं। क्यों?

इस क्यों का उत्तर भी उसी इतिहास में है।

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उसके बाद से आज तक हर आक्रमणकारी यही करता रहा है। गोरी, गजनवी, तैमूर... सबने एक साथ हजारों लाखों बेटियों का अपहरण किया। क्यों? प्रेम के लिए? नहीं! बलात्कार करने के लिए... यौन दासी बनाने के लिए... भारत ने किसी देश की बेटियों को नहीं लूटा, पर भारत की बेटियाँ सबसे अधिक लूटी गई हैं।

कासिम से ले कर गोरी तक, खिलजी से ले कर मुगलों तक, अंग्रेजों से ले कर राँची के उस रकीबुल हसन 'जिसने राष्ट्रीय निशानेबाज तारा सहदेव को लूटा' तक। सबने भारत की बेटियों को लूटा। इतना लूटा कि भारत अपनी बेटियों को सात पर्दे में छुपाने लगा। उसे अपने प्राणों से अधिक बेटियों की चिन्ता सताने लगी। वह अपनी बेटियों की ओर देखने वाली हर अच्छी/बुरी आँख से डरने लगा, और बेटियों को लोगों की दृष्टि से बचाना पिता का प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य बन गया। जो पिता अपना यह कर्तव्य नहीं निभा पाता, समाज ने उसके लिए तिरस्कार तय किया। यह तिरस्कार आज तक चल रहा है...

भारत का एक सामान्य पिता अपनी बेटी के प्रेम से नहीं डरता, वह अपनी बेटी के लूटे जाने से डरता है।

भागी हुई लड़कियों के समर्थन में खड़े होने वालों का गैंग अपने हजार विमर्शों में एक बार भी इस मुद्दे पर बोलना नहीं चाहता कि भागने के साल भर बाद ही लड़की के प्रति उस हवस के भाव 'जिसे लड़की प्रेम समझ बैठी थी' के शिथिल होने पर उसका कथित प्रेमी अपने दोस्तों से उसका बलात्कार क्यों करवाता है, उसे कोठे पर क्यों बेंच देता है, या उसे अरब देशों में लड़की सप्लाई करने वालों के हाथ क्यों बेंच देता है। आश्चर्यजनक लग रहा है न? पर यह सच्चाई है मित्र, कि देश के हर रेडलाइट एरिया में मर रही लड़कियाँ प्रेम के नाम ही फँसाई जाती हैं। उन लड़कियों पर, उस "धूर्त प्रेम" पर कभी कोई चर्चा नहीं होती। उनके लिए कोई मानवाधिकारवादी, कोई स्त्रीवादी, विमर्श नहीं छेड़ता।

यही प्रेम का सच है, यही भागी हुई लड़कियों का सच है। प्रेम के नाम पर "पट" जाने वाली मासूम लड़कियाँ नहीं जानतीं कि वे अपने लिए और अपने पिता के लिए कैसा अथाह दुःख खरीद रही हैं। समझता है उनका निरीह पिता...

भागी हुई लड़कियों का पिता इस सृष्टि का सबसे निरीह पुरुष होता है।

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सर्वेश तिवारी श्रीमुख जी की कलम से

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