भविष्य का भारत- संघ का दृष्टिकोण
यह प्राकृतिक विविधता को लेकर चलती है। विविधता में भेद नहीं करती है। हिंदुत्व ही सबका आधार बन सकता है। जनजातीय समाज भी हिंदू है। जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि हमारे अनुसार भारत में रहने वाले सभी हिंदू ही हैं। पहचान की दृष्टि से राष्ट्रीयता की दृष्टि से। कुछ लोग जानते हैं और गर्व के साथ कहते हैं। कुछ लोग जानते हैं लेकिन गर्व के साथ नहीं बल्कि सामान्य रूप से खुद को हिंदू मानते हैं। कुछ लोग जानते हैं कि लेकिन अन्य किसी संकोच के कारण खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। वहीं कुछ लोग अनजाने में भी खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। जबकि कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो जानबूझकर खुद को हिंदू नहीं कहते हैं।
यह प्राकृतिक विविधता को लेकर चलती है। विविधता में भेद नहीं करती है। हिंदुत्व ही सबका आधार बन सकता है। जनजातीय समाज भी हिंदू है। जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि हमारे अनुसार भारत में रहने वाले सभी हिंदू ही हैं। पहचान की दृष्टि से राष्ट्रीयता की दृष्टि से। कुछ लोग जानते हैं और गर्व के साथ कहते हैं। कुछ लोग जानते हैं लेकिन गर्व के साथ नहीं बल्कि सामान्य रूप से खुद को हिंदू मानते हैं। कुछ लोग जानते हैं कि लेकिन अन्य किसी संकोच के कारण खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। वहीं कुछ लोग अनजाने में भी खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। जबकि कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो जानबूझकर खुद को हिंदू नहीं कहते हैं।
नई दिल्ली : नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला (17 से 19 सितंबर 2018) के तीसरे दिन 19 सितम्बर के अंतिम सत्र में आदरणीय सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के द्वारा उस आयोजन में देश-विदेश से समाज के विभिन्न वर्गों से वहाँ आमंत्रित विशिष्ट गणमान्य एवं बुद्धिजीवियों के मध्य प्रश्नोत्तर कार्यक्रम हुआ....
आयोजन में उपस्थित लोगों द्वारा एक - एक करके सवाल पुछे गए संघ प्रमुख ने उन सवालों में से कुछ का जबाब विस्तृत रूप से और कुछ का संक्षिप्त रूप से दिया.........
सवाल - हिंदुत्व, हिंदुनेस और हिंदुइज्म क्या तीनों एक ही है? क्या जनजातीय समाज भी हिंदू है?
सं. प्रमुख - नहीं, इज्म यानी वाद एक बंद चीज मानी जाती है, उसमें विकास के लिए खुली राह नहीं होती है। जबकि हिंदुत्व एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। महात्मा गांधी ने कहा कि सत्य की अनवरत खोज का नाम हिंदू है। इसीलिए हिंदुत्व में कोई इज्म नहीं है। हिंदुत्व अन्य मतावलंबियों के साथ तालमेल कर चल सकने वाली एकमात्र विचारधारा है।
यह प्राकृतिक विविधता को लेकर चलती है। विविधता में भेद नहीं करती है। हिंदुत्व ही सबका आधार बन सकता है। जनजातीय समाज भी हिंदू है। जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि हमारे अनुसार भारत में रहने वाले सभी हिंदू ही हैं। पहचान की दृष्टि से राष्ट्रीयता की दृष्टि से। कुछ लोग जानते हैं और गर्व के साथ कहते हैं। कुछ लोग जानते हैं लेकिन गर्व के साथ नहीं बल्कि सामान्य रूप से खुद को हिंदू मानते हैं। कुछ लोग जानते हैं कि लेकिन अन्य किसी संकोच के कारण खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। वहीं कुछ लोग अनजाने में भी खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। जबकि कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो जानबूझकर खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि भारत में रहने वाले सभी अपने हैं। यहां कोई पराया नहीं है।
सवाल - अगर हिंदुत्व की व्याख्या इतनी ही श्रेष्ठ है तो विश्व और भारत के भीतर भी हिंदुत्व को लेकर आक्रोश क्यों दिखाई देता है?- इसका उल्टा है। विश्व में हिंदुत्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है।
सं. प्रमुख - हां, भारत में है और वह हिंदुत्व विचार को लेकर नहीं उसे विकृत स्वरूप देने को लेकर है। बहुत सारे अधर्म धर्म के नाम पर हुए। सवाल- अगर सभी धर्म समान ही हैं तो धर्म परिवर्तन का विरोध क्यों? क्या इसके लिए कोई कानून बनना चाहिए? - मैं भी सवाल ही पूछता हूं- अगर सभी धर्म समान हैं तो धर्म परिवर्तन क्यों? जो जिसमें हैं वहां रहकर पूर्णता प्राप्त करेगा।
सवाल है जबरन, प्रलोभन से धर्म परिवर्तन का। आध्यात्म को बाजार में नहीं बिकता। छल बल से धर्म परिवर्तन कराया जाता है। देश विदेश का इतिहास पढ़ लीजिए कि संघ के विरोधी विचारधारा वाले भी धर्म परिवर्तन के बारे में क्या लिखते हैं। एक चितपावन ब्राह्मण नारायण स्वामी के मन में आया कि वह येशु का अनुसरण करेंगे और किया भी, लेकिन वह आध्यामिक था। उनकी राष्ट्रीय सोच में कोई बदलाव नहीं आया। संघ के लोग उनको बहुत आदर देते रहे।
सवाल- जनसंख्या को लेकर क्या कोई नीति बननी चाहिए। क्या आपको लगता है हिंदू जनसंख्या पर प्रभाव पड़ रहा है?
सं. प्रमुख - जनसंख्या का विचार अगले पचास साल को ध्यान में रखकर करना चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि आज जो भारत युवाओं का देश है वह अगले पचास साल में बुजुर्गो का देश न बन जाए। वहीं यह भी सोचना चाहिए कि उस वक्त मौजूद आबादी को खिलाने की क्षमता हमारे पास होगी या नहीं। क्या पर्यावरण वह बोझ सह पाएगा? डेमोग्राफी पर कितना प्रभाव पड़ेगा?
इन सभी को ध्यान में रखते हुए जनसंख्या नीति बननी चाहिए और हर किसी पर समान रूप से लागू होना चाहिए। जहां समस्या बड़ी है वहां पहले उपाय हो। यानी जहां पालन करने की क्षमता नहीं है लेकिन बहुत बच्चें हैं,वहां पहले उपाय किया जाना चाहिए। जहां ऐसी बड़ी समस्या नहीं है वहीं थोड़ा आराम से किया जा सकता है। इसके लिए हर किसी को मन बनाना पड़ेगा। वैसे यह भी सच है कि यह केवल देश और समाज का ही नहीं परिवार का भी विषय है। अगर हिंदुओं की संख्या कम या ज्यादा हो रही है तो यह सोच का भी विषय है।
सवाल - पूरे समाज में समरसता के लिए रोटी-बेटी का संबंध होना चाहिए या नहीं? संघ इसके लिए क्या कर रहा है? अंतरजातीय विवाह और अंतरधार्मिक विवाह के बारे में संघ क्या सोचता है? क्या यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि हिंदू समाज आगे जातियों में नहीं बंटेगा?
सं. प्रमुख - हम रोटी-बेटी व्यवहार का पूरी तरह समर्थन करते हैं। लेकिन रोटी का व्यवहार आसानी से कर सकते हैं। बेटी व्यवहार थोड़ा कठिन इसीलिए है कि उसमें केवल सामाजिक समरसता का विचार नहीं है। दो परिवारों के बीच संबंध की बात है, दो व्यक्तियों के बीच सामंजस्य की बात है। फिर भी बेटी व्यवहार को भी हमारा समर्थन है
यदि देश में अंतरजातीय विवाद का आंकड़ा निकाला जाए तो सबसे अधिक प्रतिशत स्वयंसेवकों का मिलेगा। जीवन के हर व्यवहार में समाज को अभेद दृष्टि से देखना, यह जब करते हैं तब हिंदू समाज जातियों में नहीं बंटेगा। इसको हम सुनिश्चित कर सकते हैं। ऐसा मेरा विश्वास इसीलिए है कि हिंदुत्व की आत्मा एकता में भी विश्वास करती है।
सवाल - समाज में जाति व्यवस्था को संघ कैसे देखता है? संघ में अनुसूचित जाति और जनजातियों का क्या स्थान है? घुमंतू जातियों के कल्याण के लिए संघ ने क्या कोई पहल की है?
सं. प्रमुख - आज व्यवस्था कहां है, अव्यवस्था है। कभी जाति व्यवस्था रही होगी, आज उसका विचार करने का कोई कारण नहीं है। जाति को जानने का प्रयास करेंगे तो वह पक्की होगी। हम सामाजिक विषमता में विश्वास नहीं करते। हम संघ में पूछते नहीं। मैं पहली बार सरकार्यवाह चुना गया तो हमारे सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी चुने गए। मीडिया में खबर चली कि भागवत गुट की विजय हो गई, लेकिन ओबीसी को प्रतिनिधित्व देने के लिए सोनी को रखा गया।
मैंने सोनी जी से पूछा कि आप ओबीसी में आते हैं क्या? तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, केवल मुस्करा दिया। इसीलिए मैं आज भी नहीं जानता कि सोनी जी कहां से आते हैं। संघ जाति के आधार पर सोचता ही नहीं है। कोटा सिस्टम करेंगे तो जाति का भान रहेगा। सहज प्रक्रिया से सबको लाएंगे, तो जाति नहीं रहेगी।
50 के दशक में आपको संघ में ब्राह्मण ही नजर आते थे। लेकिन आप जब सवाल पूछते हैं तो देखता हूं तो पाता ही काफी उच्च स्तर पर सभी जातियों को कार्यकर्ता आते हैं। यही नहीं, भविष्य में संपूर्ण भारत में काम करन वाली सभी जातियों की कार्यकारिणी आपको दिखने लगेगी। यात्रा लंबी है, लेकिन हम उस ओर आगे बढ़ चुके हैं। घुमंतू जातियों के बीच भी हमने काम किया है।
स्वतंत्रता के बाद उनके बीच काम करने वाले हम पहले हैं। महाराष्ट्र में यह काम शुरू हुआ। काम इतना बढ़ गया कि पहले महाराष्ट्र सरकार ने और अब केंद्र सरकार ने उनके लिए अलह कमीशन बनाया है। पिछले साल हमने भारत की सभी घुमंतू जातियों के बीच काम करने का उपक्रम शुरू किया है।
सवाल - शिक्षा में आधुनिकता के साथ परंपरा के समन्वय पर संघ की क्या राय है? उच्च शिक्षा का स्तर लगातार घट रहा है। ऐसे में भविष्य के भारत का निर्माण कैसे होगा?
सं. प्रमुख - आज की दुनिया में आधुनिक शिक्षा प्रणाली में जो लेने लायक है, लीजिये। लेकिन अपनी परंपरा से भी जो लेने लायक उसको लेकर अपनी नई शिक्षा नीति बनानी चाहिए। आशा करता हूं कि आने वाली नई शिक्षा नीति में ये सब बातें होंगी। भारत के सभी धमग्रंथों, संप्रदायों और ऋषियों के विचारों को शिक्षा में शामिल किया ही जाना चाहिए। इसके साथ ही बाद में जो संप्रदाय बाद में बाहर से भारत में आए हैं, उनमें भी जो मूल्य बोध है। उसको भी सिखाना चाहिए। रिलीजन की शिक्षा हम भले ही न दे, लेकिन उससे निकलने वाले मूल्य बोध को हमारी शिक्षा पद्धति में शामिल होना चाहिए।
शिक्षा का स्तर नहीं घट रहा है, शिक्षा देने वालों का स्तर घट रहा है। शिक्षा लेने वालों का स्तर घट रहा है। उच्च शिक्षण संस्थाओं में डिग्रियां तो बहुत दी जा रही हैं, उच्च शिक्षा के संस्थान बहुत चल रहे हैं लेकिन रिसर्च कम हो रहा है। यहां से डिग्री लेकर निकलने वाले छात्रों को रोजगार नहीं मिल रहा है। विषय को पढ़ाने वाले प्रोफेसर शिक्षक कम हो गए। इस दृष्टि से एक सर्वांगिण विचार करके सभी स्तरों पर शिक्षा का एक अच्छा मॉडल खड़ा करना पड़ेगा। इसीलिए शिक्षा नीति पर आमूलचूल विचार हो और परिवर्तन इसमें किया जाए यह संघ सालों से कह रहा है।
आशा करते हैं कि नई शिक्षा में सारी बातों को समावेश होगा। अपने देश की अधिक शिक्षा निजी हाथों में है और उस निजी क्षेत्र में बहुत अच्छे-अच्छे प्रयोग भी चल रहे हैं। शिक्षा संस्थाओं में काम करने वाले लोग अपनी अधिकार मर्यादा में प्रयोग करके शिक्षा का स्तर ऊंचा उठा सकते हैं। ऐसा हुआ तो फिर सरकारी नीति भी उसका अनुसरण करेगी। इसीलिए सबकुछ सरकार पर नहीं छोड़ते हुए हम सबको भी अपने-अपने क्षेत्र में प्रयास करना चाहिए।
सवाल - नीति नियामक संस्थाओं में अंग्रेजी का प्रभुत्व दिखाई देता है। संघ का भारतीय भाषाओं और हिंदी के प्रति क्या विचार है? हिंदी पूरे देश की भाषा कब बनेगी? क्या संस्कृत को हिंदी से अधिक वरियता नहीं दी जानी चाहिए?
सं. प्रमुख - अंग्रेजी का प्रभुत्व नियामक संस्था में कहां, वो तो हमारे घर में है। जो भारतीय भाषाओं में बोल सकते हैं, मिलते हैं, तो अंग्रेजी में बात करते हैं। हम अपनी मातृभाषाओं को सम्मान देना शुरू करें। भाषाओं रहना मनुष्य जाति के विकास के लिए अनिवार्य बात है। अपनी भाषा का पूरा ध्यान रखो। किसी भाषा से शत्रुता करने की जरूरत नहीं है। अंग्रेजी हटाओ नहीं, अंग्रेजी रखो।
अंग्रेजी का हौवा जो हमारे मन में है उसको निकालना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय भाषा कहते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। अमेरिका भी अंग्रेजी भी बोलती है, लेकिन कहती है ब्रिटिश अंग्रेजी हमारी अलग है। फ्रांस, इजराइल, रूस, चीन, जापान सब अपनी-अपनी भाषाओं में काम करते हैं। उन्होंने प्रयासपूर्वक यह किया है। हमें भी इसका प्रयास करने पड़ेंगे। सबसे समृद्ध भाषा हमारे पास है। हम कर सकते हैं।
भाषा के नाते हम किसी भाषा से शत्रुता नहीं करते हैं, लेकिन देश का काम अपनी भाषा में हो इसकी आवश्यता है। फिर देश में कई भाषाओं का सवाल आता है। किसी एक भारतीय भाषा को हम सीखें इसका मानस हमको बनाना पड़ेगा। हिंदी की बात पुराने समय से चली है अधिक लोग इसे बोलते हैं इसीलिए चली है। लेकिन इसका मन बनाना पड़ेगा, कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। थोपने से नहीं चलेगा। आखिर एक भाषा की बात हम क्यों कर रहे हैं। इसीलिए कि हमको देश को जोड़ना है। एक भाषा बना देने से यदि देश में विरोध खड़ा होता है, कटुता बढ़ती है, तो हमको सोचना पड़ेगा।
किसी एक भाषा के लिए वरियता शब्द का प्रयोग गलत है। भारत की सभी भाषाएं हमारी अपनी है। काम के कारण दूसरे प्रांतों के लोग हिंदी सीख रहे हैं। लेकिन हिंदी प्रांत वालों का हिंदी में काम चल जाता है इसीलिए दूसरी भाषा को नहीं सीख रहे हैं। उन्हें सीखना चाहिए। संस्कृत के विद्यालय घट रहे हैं और उसे कोई महत्व कौन नहीं देता है। हम उसे महत्व नहीं देते हैं, इसीलिए सरकार भी नहीं देती। हमारा आग्रह रहे कि हमारी परंपरा का सारा साहित्य संस्कृत में है और बच्चे उसे पढ़ें। तो बच्चे सीखेंगे और उन्हें सिखाने वाले विद्यालय भी खुलेंगे। इस दिशा में लगे है हमारे स्वयंसेवक। गौरव बनता है, तो समाज में उसका चलन बढ़ता है। चलन बढ़ने से विद्यालय खुल जाते हैं। पढ़ाने वाले भी मिल जाते हैं।
सवाल - महिलाओं की सुरक्षा को लेकर संघ क्या सोचता है। अपराधियों में कानून के प्रति भय क्यों नहीं है।
सं. प्रमुख - महिलाएं हर क्षेत्र में सबल हो रही है। अब उन्हें आत्म सुरक्षा को लेकर भी सबल बनाना पड़ेगा। किशोरी विकास और किशोर विकास दोनों करना होगा। महिला को देखने की पुरुष की दृष्टि बदलनी होगी और यह हमारी परंपरा में है। संघ ने बालिका को सबल बनाने का काम शुरू किया है। उन्हें प्रशिक्षण दिया जा रहा है। उनके बीच स्पर्धा भी कराई जा रही है। जहां तक कानून के प्रति भय की बात है तो उसके लिए समाज को जाग्रत होना पड़ेगा। कानून तभी प्रभावी होता है जब समाज वैसा वातावरण बनाता है।
सवाल - गोरक्षा के नाम पर क्या लिंचिंग उचित है।
सं. प्रमुख - किसी भी विषय पर हिंसा उचित नहीं है। पर गाय का महत्व कुछ दूसरा भी है। संविधान के नीति निर्देशक तत्व में भी यह शामिल है। लेकिन उसके साथ ही यह भी जरूरी है गोरक्षा करने वाले गाय को घर पर रखें, अगर उसे खुला छोड़ेंगे तो फिर आस्था पर सवाल उठेगा। इसलिए गो संवर्धन पर विचार होना चाहिए।
और मैं कह सकता हूं कि अच्छी गौशाला चलाने वाले कई मुसलमान भी हैं। गाय देश की अर्थव्यवस्था से भी जुड़ी है। हमें तो जागरुकता लानी होगी। जो उपद्रवी तत्व से उसे इससे नहीं जोड़ना चाहिए। मैं इतना जरूर कहूंगा कि जो अपने हाथों से गाय की सेवा करते हैं उनमें हिंसक प्रवृति कम हो जाती
सवाल - आरक्षण पर संघ का क्या मत है और इसे कब तक जारी रखना चाहिए? अल्पसंख्यकों और क्रीमी लेयर को क्या आरक्षण मिलना चाहिए?
सं. प्रमुख - सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए संविधान सम्मत आरक्षण को संघ का पूरा समर्थन है। जहां तक सवाल है कि आरक्षण कब तक चलेगा तो इसे वहीं तय करेंगे जिन्हें आरक्षण मिला है। संघ का मत है कि तब तक इसको जारी रहना चाहिए। असल में समस्या आरक्षण नहीं बल्कि इस पर सियासत है, जिसके कारण इतना विवाद हो रहा है। अपने समाज में एक अंग पीछे है। शरीर तब स्वस्थ कहा जाता है जब सभी अंग दुरुस्त रहें। अगर शरीर आगे जा रहा है, पैर पीछे रह जाए तो उसे पैरालैसिस कहा जाता है। समाज के सभी अंगों को बराबरी में लाने के लिए आरक्षण जरूरी है। हजार वर्ष से यह स्थिति है कि हमने समाज के एक अंग को विफल बना दिया है। जरूरी है कि जो ऊपर हैं वह नीचे झुकें और जो नीचे हैं वे एड़ियां उठाकर ऊपर हाथ से हाथ मिलाएं। इस तरह जो गड्ढे में गिरे हैं उन्हें ऊपर लाएंगे। समाज को आरक्षण पर इस मानसिकता से विचार करना चाहिए। सामाजिक कारणों से एक वर्ग को हमने निर्बल बना दिया। स्वस्थ समाज के लिए एक हजार साल तक झुकना कोई महंगा सौदा नहीं है। समाज की स्वस्थता का प्रश्न है, सबको साथ चलना चाहिए।
सवाल - एससी/एसी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर समाज में विभाजन की स्थिति है? इस पर प्रतिक्रिया और आक्रोश निर्मित हुआ है। क्या संसद को इसे बदलना चाहिए था? संघ इसे कैसे लेता है?
सं. प्रमुख - सामाजिक पिछड़ेपन व जातिगत अहंकार के कारण अत्याचार की परिस्थिति बनी। उससे निपटने के लिए यह अत्याचार निरोधक कानून बना। संघ का मत है कि यह ठीक से लागू होना चाहिए और इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। लेकिन यह केवल कानून से नहीं होगा। समाज में सद्भाव व समरसता के भाव से होगा। अत्याचार, अत्याचार है। चाहे वह किसी का भी हो। इसे खत्म करने के लिए सद्भावना जगाने की आवश्यकता है। संघ की इच्छा है कि कानून का संरक्षण हो। कानून व शास्त्र से कोई अस्पृश्यता नहीं आई है यह समाज में दुर्भावना के कारण आई है जिसे सद्भावना से ही दूर किया जा सकता है। संघ के स्वयंसेवक काम कर रहे हैं। सद्भावना बैठकें आयोजित होती हैं।
सवाल - समलैंगिकता व धारा-377 पर संघ का क्या मत है? किन्नरों की सामाजिक स्थिति पर क्या नजरिया है?
सं. प्रमुख - समाज का प्रत्येक व्यक्ति, अपनी भाषा, जाति, अपने संप्रदाय के साथ समाज का एक अंग है। उसमें कुछ विशिष्टता के साथ कुछ लोग समाज में हैं। उनकी व्यवस्था करने का काम समाज ने पहले भी किया है, आगे भी करना चाहिए। उनके लिए कोई व्यवस्था बने। ताकि स्वस्थ्य समाज बन सके। यह हो हल्ला करने से नहीं होगा। इन्हें सहृदयता से देखने की बात है। जितना उपाय हो करना चाहिए। या जो जैसा है उसे स्वीकार करें। ताकि वे समाज से अलग-थलग न हो जाएं। समय बदला है, ऐसे में उन पर विचार करना होगा। इसलिए सरलता से इन सब को देखते हुए उनकी व्यवस्था कैसे की जाए, यह समाज को देखना चाहिए
सवाल - अल्पसंख्यकों को जोड़ने के विषय में संघ का क्या सोचता है। 'बंच ऑफ थॉट्स' में जो विचार हैं, उनसे मुस्लिम समाज में भय है?
सं. प्रमुख - अल्पसंख्यक की परिभाषा अभी स्पष्ट नहीं है। जहां तक धर्म और भाषा की बात है यह स्वतंत्रता से पहले अंग्रेजों के आने से पहले नहीं थी। तमाम पंथ के लोग थे, लेकिन विभिन्ना के साथ सब एक थे। अब यह बात जरूर है कि दूरियां बढ़ी हैं, लेकिन मैं मानता हूं कि अपने समाज के भाइयों को, जो बिखर गए हैं, उनको जोड़ना है। हम सभी एक देश की ही संतान हैं, भाई-भाई रहें। सब अपने हैं। केवल यह भाव रहे कि जो दूर गए हैं उन्हें जोड़ना है। मुस्लिम समाज में भय है तो उनसे आग्रह है कि आप आएं और संघ को अंदर से देखें। वास्तविकता तो यह है कि जिस संघ शाखा के नजदीक मुस्लिम बस्ती है, वे वहां ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। हमारा आह्वान राष्ट्रीयता का है। मातृ भक्ति का है। यही हिंदुत्व है। संघ में जो आते हैं, उनके विचार बदल जाते हैं। आप आइए देखिए। अगर कोई बात गलत है तो कहिए। संस्कृति, भूमि व पूर्वज हम सबके एक हैं। परंपरा से, राष्ट्रीयता से और भूमि से हम सब हिंदू हैं। जहां तक 'बंच ऑफ थॉट्स' की बात है तो गुरुजी के सामने जैसी परिस्थिति थी, वैसा विचार हुआ, लेकिन संघ बंद संगठन नहीं है। ऐसा नहीं है कि जो उन्होंने बोल दिया, वहीं लेकर चले। हम अपनी सोच में भी परिवर्तन करते हैं। हेडगेवार ने एक भी बात नहीं बताई, विचार बताए। तरुण ने विचार किया तब जाकर उसे अपनाया गया।
सवाल - अनुच्छेद 370 व अनुछेद 35ए पर क्या मत है? घाटी के युवाओं में राष्ट्रभाव जगाने के लिए संघ क्या कर रहा है?
सं. प्रमुख - अनुच्छेद-370 और 35ए नहीं रहना चाहिए यह संघ का स्पष्ट मत है। यह कई बार भाषणों में कहा है। पुस्तिकाओं में उपलब्ध है। जम्मू, कश्मीर व लद्दाख में भेदभाव मुक्त विकास उन्मुख प्रशासन चल रहा है क्या? उस पर विचार करना चाहिए। भारत की एकता अखंडता व सुरक्षा के लिए शासन-प्रशासन क्या करेगा, यह वह तय करेगा। जहां तक भटके युवाओं को मुख्य धारा से जोड़ने का सवाल है तो संघ इस पर काम कर रहा है। संघ से निकले स्वयंसेवक वहां सेवा कार्य चला रहे हैं। एकल विद्यालय व विद्यालय हैं। जहां वंदेमातरम के साथ जन-गण-मन भी होता है। तिरंगा फहराया जाता है। छात्रों के साथ अभिभावक भी आते हैं। अभी प्रयास शुरू किए हैं तो फल आने में समय तो लगेगा। कश्मीर के लोगों का शेष भारत के साथ घुलना मिलना बढ़ना चाहिए।
सवाल - संघ की दृष्टि में प्रमुख आंतरिक सुरक्षा चुनौती क्या है? लोगों में देशद्रोह का डर क्यों नहीं है?
सं. प्रमुख - आंतरिक फसाद में समाज से समर्थन न मिले इसके लिए विकास सब तक पहुंचना चाहिए। सुरक्षा के लिए चुनौती देने वालों का बंदोबस्त कड़ाई से होना चाहिए। अगर समाज को भीतर से यह चुनौती मिल रही है और बोली से बात नहीं बन रही, गोली से हो सकती है तो गोली उस तरफ जानी चाहिए, जिससे भारत एक रहे। इसमें आगे पीछे होता है, उसके परिणाम तात्कालिक हैं। विकास सब तक पहुंचाना और अपनत्व का भाव सबमें हो। देखना होगा कि देशद्रोह का समर्थन करने वाले अपने समाज से ही खड़े न हों। ऐसी बात करने वाले हतोत्साहित हों।
सवाल - समान नागरिक संहिता के संबंध में संघ का क्या मत है?
सं. प्रमुख - संविधान का मार्गदर्शक तत्व तो यही है कि एक कानून के अंतर्गत देश के सभी लोग आएं। इसके लिए सरकार की ओर से समाज में एक मत बनाना होगा। धीरे-धीरे इसे लागू करना चाहिए।
सवाल - नोटा को लेकर आपका क्या मत है। क्या रूस और अमेरिका के राष्ट्रपति की तरह क्या यहां सीधे चुनाव हों?
सं. प्रमुख - भारत की प्रणाली किसी देश से आयातित नहीं, बल्कि भारत की तरह ही हो, इसमें कौन सी पद्धति लागू हो यह यहां के लोग तय करें। वैसे अभी तक तो सब ठीक चल रहा है। विश्व भी कहता है कि अपेक्षा नहीं थी, लेकिन सर्वाधिक यशस्वी लोकतंत्र भारत है। जहां तक सुधार की बात है तो वह हो और यह हो भी रहे हैं। वैसे नोटा का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। क्योंकि नोटा में सबसे खराब प्रत्याशी के चयन की आशंका बढ़ जाती है। तो जितने प्रत्याशी है उसमें जो पसंद है उसमें चुनाव करें। राजनीति में 100 प्रतिशत अच्छे लोगों का मिलना कठिन काम है।
सवाल - अगर संघ और भाजपा में राजनीतिक संबंध नहीं है तो संगठन मंत्री संघ ही क्यों देता है? क्या संघ ने दूसरे दलों को समर्थन किया है? श्मशान, कब्रिस्तान और भगवा आतंकवाद जैसी सियासत का क्या हल है?
सं. प्रमुख - संगठन मंत्री जो मांगते हैं संघ उसको देता है। अभी तक और किसी ने मांगा नहीं है। मांगेंगे तो विचार करेंगे, काम अच्छा कर रहे होंगे तो जरूर देंगे। लेकिन 93 साल में संघ ने किसी दल का समर्थन नहीं किया। केवल नीति का समर्थन करता है, ऐसे में संघ की नीति का समर्थन करने वाले संघ की शक्ति का फायदा उठा जाते हैं। जब आपातकाल के खिलाफ लड़े तो बाबू जगजीवन राम, मार्क्सीवादी गोपालन जैसे लोगों का समर्थन किया। केवल एक चुनाव ऐसा हुआ तो राममंदिर के पक्ष में केवल भाजपा ही थी तो उसको लाभ मिला। नीति का पुरस्कार किया। हमारा पुरस्कार कैसे ले जाना है वह राजनीतिक दल सोचें। राजनीति केवल सत्ता के लिए होगी तो श्मशान, कब्रिस्तान होंगे अन्यथा गांधी व लोक नारायण के अनुसार लोक कल्याण वाली राजनीति होगी तो श्मशान वाली सियासत खत्म हो जाएगी।
सवाल- स्वदेशी व स्वराज पर संघ का क्या मत है?
सं. प्रमुख - जब तक हम स्वदेशी को नहीं अपनाएंगे तब तक देश का वास्तविक विकास नहीं होगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पूरे विश्व से आंखें बंद कर ली जाएं। बल्कि जो अपने देश में बनता है वो बाहर से नहीं लाना है। जो अपने देश में बनता नहीं लेकिन जीवन के लिए आवश्यकता है तो उसे लाएंगे। यह स्वदेशी का भाव है। ज्ञान व तकनीकी बाहर से लेंगे और हम प्रयास करेंगे कि सारा सामान हमारे यहां बने। यह जो आदर्श की बात है उसमें जो परिस्थिति मिली है उसको लेकर काम करना पड़ेगा। स्वदेशी करना है लेकिन खजाना नहीं है तो पैसा तो कहीं से लाना पड़ेगा।
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संकलन कर्ता - Kaushal Mishra #beinghindu