बढ़ते कब्र-स्थल और जन-स्मृतियों की राजनीति
हमारे मुग़ल बादशाहहों को भी केवल दो गज़ ज़मी नहीं चाहिए होती थी मौत के बाद, उन्हें चाहिए होता था अवाम के उन पर फ़ना हो जाने का हुनर, कि सौ-सौ मौत मरे अवाम उनकी मौत के बाद भी और युगों तक चलता रहे मातम। इसीलिए केवल दो गज़ ज़मीं से पूरी नहीं होती थी, शहंशाहों की मौतों की बेहिसाब हसरतें, उन्होंने बसाया दर्द का पूरा एक शहर, मौत के दर्द की नुमाइश पर देना होता था दर्द, कि शामिल तो हो उनके दर्द में मज़बूर आवाम का दर्द। बेग़ैरती बर्दाश्त के बाहर की बात जो थी शहंशाहों के लिए। खड़ी की उन्होंने जुआफ सी सर्द इमारतें कि मौत खड़ी रहे बदस्तूर ज़मीन पर कि बदस्तूर कायम रहे, ज़मीन पर उनका हक़ मौत के बाद भी। यह कब्रगाहों की राजनीति हमारे नेताओं ने अपना ली और नतीजतन देश ऐसे नेताओं की " कब्रों / स्थलों" से पटा हुआ है।
हमारे मुग़ल बादशाहहों को भी केवल दो गज़ ज़मी नहीं चाहिए होती थी मौत के बाद, उन्हें चाहिए होता था अवाम के उन पर फ़ना हो जाने का हुनर, कि सौ-सौ मौत मरे अवाम उनकी मौत के बाद भी और युगों तक चलता रहे मातम। इसीलिए केवल दो गज़ ज़मीं से पूरी नहीं होती थी, शहंशाहों की मौतों की बेहिसाब हसरतें, उन्होंने बसाया दर्द का पूरा एक शहर, मौत के दर्द की नुमाइश पर देना होता था दर्द, कि शामिल तो हो उनके दर्द में मज़बूर आवाम का दर्द। बेग़ैरती बर्दाश्त के बाहर की बात जो थी शहंशाहों के लिए। खड़ी की उन्होंने जुआफ सी सर्द इमारतें कि मौत खड़ी रहे बदस्तूर ज़मीन पर कि बदस्तूर कायम रहे, ज़मीन पर उनका हक़ मौत के बाद भी। यह कब्रगाहों की राजनीति हमारे नेताओं ने अपना ली और नतीजतन देश ऐसे नेताओं की " कब्रों / स्थलों" से पटा हुआ है।
साऊथ पार्क सेमेट्री, कोलकाता की ऐतिहासिक विरासत मानी जाती है, जो कोलकाता के औपनिवेशिक अतीत का संरक्षित स्मृति अवशेष है।
कोलकाता आनेवाले विदेशी सैलानी की गाइड-बुक में साउथ पार्क सेमेट्री पूरे दम-खम के साथ मौजूद है, जिस पर यह दर्ज़ है कि यह 1767 में बना ताकि उन ब्रिटिश लोगों को जगह दी जा सके, जो देश की सेवा में अपनी जान गवां बैठे।
यह सेमेट्री कोलकाता की अत्यंत भीड़-भाड़ वाली गलियों के दक्षिण में स्थित एक शांत भाग है। माली इसको खूबसूरत बनाने के प्रयास में लगे दिखते हैं।
यहाँ कब्रों पर लिखे संदेश थोड़े अटपटे लग सकते हैं, जो यह बताते दिखते हैं कि मौत असामयिक हुई, घर की बहुत ज़्यादा याद आने की वेदना में, या शिशु-जन्म के समय।
रोज एल्मर की मृत्यु बहुत सारे अन्नानास खाने से हुई।
देखा जाए तो इस तरह के कब्रगाह केवल औपनिवेशिक अतीत को ही नहीं दर्शाते बल्कि यह सुनिश्चित करते हैं कि स्वतंत्र हो चुके भू-भागों में भी उनके स्थापित साम्राज्य के लिए जगह दी गई हो।
इस तरह के पुरातन सेमेट्री को बचाना एक उत्तर-औपनिवेशिक प्रक्रिया है, जिसे 1976 में लंदन में बनाया गया, ब्रिटिश एसोसिएशन ऑफ सेमेट्रीज़ इन साउथ एशिया के नाम से।
यह प्रभुत्व की निशानियाँ हैं, जिन्हें कायम रखा गया कि उन्हें उनके प्रभुत्व का बोध होता रहे और हमें हमारी गुलामी का।
हमारे मुग़ल बादशाहहों को भी केवल दो गज़ ज़मी नहीं चाहिए होती थी मौत के बाद, उन्हें चाहिए होता था अवाम के उन पर फ़ना हो जाने का हुनर, कि सौ-सौ मौत मरे अवाम उनकी मौत के बाद भी और युगों तक चलता रहे मातम। इसीलिए केवल दो गज़ ज़मीं से पूरी नहीं होती थी, शहंशाहों की मौतों की बेहिसाब हसरतें, उन्होंने बसाया दर्द का पूरा एक शहर, मौत के दर्द की नुमाइश पर देना होता था दर्द, कि शामिल तो हो उनके दर्द में मज़बूर आवाम का दर्द। बेग़ैरती बर्दाश्त के बाहर की बात जो थी शहंशाहों के लिए।
खड़ी की उन्होंने जुआफ सी सर्द इमारतें कि मौत खड़ी रहे बदस्तूर ज़मीन पर कि बदस्तूर कायम रहे, ज़मीन पर उनका हक़ मौत के बाद भी।
यह कब्रगाहों की राजनीति हमारे नेताओं ने अपना ली और नतीजतन देश ऐसे नेताओं की " कब्रों / स्थलों" से पटा हुआ है।
जनस्मृति और कब्रगाहों की राजनीति कर नैरेटिव तैयार करना,उन्हें संरक्षित करने की कवायद उनको पूज्य बना देने की राजनीति है कि वे जनस्मृतियों में बने रहें।
मौत बहुत भावुक क्षण है, जहां आकर हर दम्भ, विकार, अहंकार दम तोड़ देते हैं।
जयललिता की स्थली को जगह न देने की खातिर जिस DMK ने पाँच बार अर्जी कोर्ट में दी थी, वही DMK आज अपने नेता की स्थली हेतु दंगा करने पर उतारू दिखी। जिस देश के नेता देश की आस्था के साथ नकारात्मक रवैया रखते हों, जो देश की जीवन्त आस्था के प्रतीक को झुठला सकते हों, वे नेता ऐसी स्थलियों और कब्रगाहों के हिमायती होते हैं, क्योंकि उनकी असीमित महत्वाकांक्षा की यह माँग होगी है कि उनकी मौत के बाद भी ऐसी ही स्मृति-स्थली बने ताकि वे जीवित रह सकें सदियों तक।
मौत जीवित रहती है यहाँ,सदियों तक और जीवन की तलाश अभी शुरू नहीं हुई।