"नदी के दो किनारे" और नक़ाब से झाँकती मजबूर आँखें
दोनों परिवार तैयार... ज़फर मियां ने बम जैसा फोड़ा... "देखिए जब हम लोग एक दूसरे को समझ चुके हैं... बेटा-बेटी भी तैयार हैं... बस आपको मेरी एक दरख्वास्त माननी पड़ेगी.... विवाह की जगह निकाह होगा... लड़की के दादाजान की बहुत इच्छा है".. उसने कहा "ठीक है... अरे आप निकाह कह रहे हैं.... हम शुभविवाह कह रहे हैं.... बात तो एक ही है"... ज़फर मियां ने बात साफ की..." आपके बेटे को इस्लाम कुबूल करना होगा... एक इस्लामिक नाम भी रखना होगा"...
दोनों परिवार तैयार... ज़फर मियां ने बम जैसा फोड़ा... "देखिए जब हम लोग एक दूसरे को समझ चुके हैं... बेटा-बेटी भी तैयार हैं... बस आपको मेरी एक दरख्वास्त माननी पड़ेगी.... विवाह की जगह निकाह होगा... लड़की के दादाजान की बहुत इच्छा है".. उसने कहा "ठीक है... अरे आप निकाह कह रहे हैं.... हम शुभविवाह कह रहे हैं.... बात तो एक ही है"... ज़फर मियां ने बात साफ की..." आपके बेटे को इस्लाम कुबूल करना होगा... एक इस्लामिक नाम भी रखना होगा"...
इंटरमीडिएट कालेज आमने सामने थे.. उनका गर्ल्स कालेज तो उसका बॉयज कालेज था.... इंटर में गणित की ट्यूशन भी वह साथ-साथ पढ़ते थे.. एक ही टीचर से.. एक ही बैच में.. वह फर्स्ट डिवीजन पास हुईं और वह बमुश्किल सेकेंड डिवीजन... शहर में डिग्री कालेज एक ही था.. वह बीएससी में गईं और उसने BA की राह की पकड़ी...
BA क्या लिया... हीनभावना ने डेरा डाल लिया उसके दिल मे.. थोड़ा दिल तो उस दिन भी टूटा था.. जब वह फर्स्ट पास हुईं... उसकी तो उन्होंने डिवीजन भी नहीं पूँछी.. शायद पहले से खबर हो उनको... फर्स्ट डिवीजन वालों के बीच घिरी हुई... उन्होंने उसकी तरफ देखा तक नहीं.. बेशक मोहल्ला एक था.. मगर हैसियत दोनों की अलग-अलग थी... कालेज में सब्जेक्ट अलग-अलग थे.. वैसे ही रास्ते भी जुदा थे... वह लड़कियों के सामने बोलने, उन्हें देखने मे घबराता था... कोई खुद अपनी तरफ से बात कर ले.. तो गले मे कुछ अटक से जाता था... वह बोल्ड थीं.. आकर्षक थीं... बीएससी की छात्रा थीं... उनके पिता रेलवे में ऊंचे पद पर थे.... उसके पिता फैक्ट्री में क्लर्क... दोनों के विचार और स्टेटस नदी के दो किनारे थे... ऐसे में उसके दिल में उठते अहसास को यदि वह जानतीं भी थीं तो भी कोई फिल्मी खुशनुमा कहानी गढ़ने या जीने का उनका इरादा न था....
उसकी ज़िम्मेदारियों ने उसे फौज की तरफ मोड़ दिया... भर्ती हुई... कालेज छूटा... कहानी शुरू होने से पहले ही दम तोड़ गयी... बाद में उसने सुना कि वह उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली चली गईं....
फौज में नौकरी की... लड़ाइयां लड़ी... प्रोमोशन मिले... फौज से रिटायरमेंट लिया... मिलेट्री कोटा से बैंक में फिर से एक अधिकारी के रूप में नौकरी मिली, उसे... ट्रांसफर हुआ, नई जगह ज्वाइनिंग मिली... आह.. संयोग देखिए... पड़ोस की सीट पर जो उसकी समकक्ष अधिकारी थीं... वह वही थीं.. जिसके लिए उसने इंटरमीडिएट ट्यूशन के दौरान खूबसूरत, मगर खामोश सपने बुने थे... 24 साल बाद एक बार फिर दिल टूटा... उनके नाम के आगे सरनेम जुड़ा था ज़फर'...
24 साल कैसे गुज़रे, कहाँ गुज़रे.. उन्होंने बताया कि उनका प्रेम विवाह एक मोमिन के साथ हुआ है.. एक बेटा-बेटी है...! उसने भी बताया कि उसके भी एक बेटा-बेटी है... मगर बेटी तो पढ़ाई के बाद विदेश में है.. अपनी दिशा स्वयं तय करेगी... हां बेटा शादी योग्य है... उन्होंने बताया कि उनकी बेटी भी शादी योग्य है... शायद इसी बहाने नदी के दो किनारे पास आ रहे थे.. वक्त ज़्यादा नहीं गुज़रा... कुछ महीने बाद उसके बेटे ने उनकी बेटी को देखा... उनकी बेटी ने उसके बेटे को तौला... उसके दिल ने दुआ मांगीं... हे ईश्वर... इतनी सुंदर जोड़ी... काश सपना साकार हो... कुछ दिनों बाद वह अपने शौहर ज़फर इस्लाम के साथ उसके घर.... अपनी बेटी का रिश्ता लेकर आईं... उसे और उसकी पत्नी को कोई संदेह न था... वह दिल से तैयार थे... उसके बेटे और उनकी बेटी में भी बात परिचय से आगे बढ़ चुकी थी...
दोनों परिवार तैयार... ज़फर मियां ने बम जैसा फोड़ा... "देखिए जब हम लोग एक दूसरे को समझ चुके हैं... बेटा-बेटी भी तैयार हैं... बस आपको मेरी एक दरख्वास्त माननी पड़ेगी.... विवाह की जगह निकाह होगा... लड़की के दादाजान की बहुत इच्छा है".. उसने कहा "ठीक है... अरे आप निकाह कह रहे हैं.... हम शुभविवाह कह रहे हैं.... बात तो एक ही है"... ज़फर मियां ने बात साफ की..." आपके बेटे को इस्लाम कुबूल करना होगा... एक इस्लामिक नाम भी रखना होगा"...
वह भौचक्का रह गया... 'वह' ज़मीन की ओर देख रहीं थीं... उसकी पत्नी और बेटा हतप्रभ थे... बेटे ने बमुश्किल भरे गले से मुँह खोला... "ज़फर अंकल.. बेशक मुझे आपकी बेटी पसंद है, शादी भी करना चाहता हूं... मग़र अपने प्रेम के लिए मैं अपने माँ-बाप, खानदान और विशेष रूप से अपने हिन्दुधर्म को धोखा नहीं दे सकता.... मेरे पिता भी मुझे निकाह करने की अनुमति दे दें... मगर मैं अपने धर्म के साथ छल नहीं कर सकता.... हां यदि आपकी बेटी खुद को हिन्दू मानती है तो वह मुझसे हिन्दू रीति से विवाह कर सकती है"... ज़फर मियां ने क्रोध से 'उन्हें' देखा... उनकी आंखों में मायूसी के आंसू तैर रहे थे.... ज़फर मियां ने 'उनका' हाथ पकड़ा और शुक्रिया.. सला-मालेकुम कहते हुए निकल गए.... आज अनायास ही उसे कभी कॉलेज के दिनों में एक मुस्लिम मित्र से सुनी हुई कुरान के सूरा 2 अल-बकरा की आयात 221 याद आ गई
"और मुशरिक (बहुदेववादी) स्त्रियॉं से विवाह न करो जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमान वाली बाँदी (दासी), मुशरिक स्त्री से कहीं उत्तम हैं; चाहें वो तुम्हें कितनी ही अच्छी क्यों ना लगे। और ना ईमान वाली स्त्रियॉं का मुशरिक (बहुदेववादी) पुरूषों से विवाह करो जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमान वाला गुलाम आजाद मुशरिक से कहीं उत्तम है चाहें वो तुम्हें कितना ही अच्छा क्यों ना लगे। ऐसे लोग आग (जहन्नम) की ओर बुलाते हैं और अल्लाह अपनी अनुज्ञा से जन्नत और क्षमा की ओर बुलाता है। और वह अपनी आयतें लोगों के सामने खोल - खोलकर बयान करता है, ताकि वे चेतें।
नदी के दो किनारे जिन्हें नहीं मिलना था... फिर कभी न मिल सके....
Allah says in the Holy Quran Chapter 2 Surah Baqarah verse 221:Do not marry mushrik women unless they believe. A slave woman who believes is better than a free woman who does not believe, even though the latter may appear very attractive to you. Likewise, do not wed your women to mushrik men, unless they believe. A slave man who believes, is better than a free man who does not believe, even though he may be very pleasing to you. These mushriks invite you to the Fire while Allah, by His Grace, invites you to the Gardens and His Pardon. He makes His Revelations plain to the people so that they should learn a lesson, and follow the admonition.