असमंजस के भंवर में फंसी केजरीवाल की राजनीति, 80% पुराने सहयोगी छोड़कर जा चुके हैं

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आगामी लोकसभा चुनावों में अपनी कोई हुई साख बचाने एवं अपने वोट बैंक को संदेश देने के लिए केजरीवाल ने दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाए जाने की मांग के तहत जिस आमरण अनशन पूर्ण अनिश्चित कालीन धरने की घोषणा की थी आज अपना वो प्रस्तावित आमरण अनशन स्थगित कर दिया है और इसके लिए सहारा लिया है वायुसेना द्वारा पाकिस्तान स्थित जैश के आतंकी ठिकानों पर किए गए हवाई हमलों का।

जबकि सच्चाई ये ही है कि जिस दिन से केजरीवाल ने अपने इस धरने पर बैठने का विचार सार्वजनिक किया था उसी दिन से दिल्ली की जनता में इस निर्णय को एक और ड्रामेबाजी की संज्ञा दी जाने लगी थी, धरने की घोषणा के बाद धरने से पहले ही अपने ही विरुद्ध बनते माहौल को देखकर केजरीवाल एंड कंपनी को आभास हो गया था कि अगर इस आमरण अनशन को जनता का पूर्ण समर्थन नहीं मिला या इसकी हालत भी चंडीगढ़ की रैली जैसी हो गई (जहां भीड़ ना जुटाने के कारण केजरीवाल को 10 मिनट में ही वहाँ से भागना पड़ा था) तो फिर अपने गृह राज्य दिल्ली में भी कहीं हँसी का पात्र ना बनना पड़ जाए। क्योंकि दिल्ली की जिस जनता को 2011 से 2014 तक अपने धरनों और अनशनों के माध्यम से अन्ना हज़ारे के साथ मिलकर केजरीवाल ने मूर्ख बनाया था पिछले 4 सालों में दिल्ली की वो जनता केजरीवाल के इन ड्रामों को भली - भांति समझ चुकी है इसीलिए अब उस जनता पर केजरीवाल के इस प्रकार के ड्रामों का कोई अधिक फर्क नहीं पड़ता।

अगर हम केजरीवाल के व्यक्तित्व के 2011 से आज तक के समय को 2 भागों में विभाजित करें यानि 2011 से 2014 तक और 2014 से आज तक यानि वर्तमान सरकार का कार्यकाल तो हम पाएंगे कि टोटल 70 सीटों में से 67 सीटें जीत अचंभित सा बहुमत प्राप्त करने के बाद धीरे - धीरे केजरीवाल का जो चेहरा उसके अपने निकट सहयोगियों एवं दिल्ली की जनता के सामने आया है अगर वो चेहरा 2011 के शुरुआती दिनों में आ गया होता तो शायद केजरीवाल नाम के इस व्यक्ति को लोगों ने तभी नकार दिया होता। इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि 2011 के लोकपाल आंदोलन के समय केजरीवाल के साथ जुड़े वो सभी लोग जो आम आदमी पार्टी के बनने तक एवं 2013 में केजरीवाल 37 सीटें जीतकर आने के बाद कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाने तक केजरीवाल के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे आज उन लोगों में से लगभग 10% ही केजरीवाल के साथ रह गए हैं। बाकी जितने भी बड़े नाम थे वो सभी या तो केजरीवाल को छोड़कर जा चुके हैं या जो बचे हैं वो एक एक करके जा रहे हैं ।

केजरीवाल के व्यक्तित्व में आए इस अहंकारी परिवर्तन और विश्वासघात के कारण छोड़कर गए कुछ साथियों के विचार जिन्हें वो यदाकदा अपने ट्वीट के माध्यम से व्यक्त कराते रहते हैं


आज केजरीवाल को पता है कि अब दिल्ली में वो 2014 जैसा करिश्मा नहीं कर पाएंगे। केजरीवाल को करना तो ये चाहिए था कि जैसा बम्पर बहुमत दिल्ली में मिला था तो उसके लिए वो अपना सम्पूर्ण ध्यान दिल्ली के विकास और सुधार पर देते लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा उस बम्पर बहुमत ने केजरी के दिमाग में अहंकार भर दिया और उस का नतीजा ये निकला कि मनीष सिसोदिया, संजय सिंह जैसे एक दो लोगों के अलावा अन्य सभी के साथ अपने संबंध बिगड़ लिए और इसी का परिणाम है कि आज 2019 के लोकसभा चुनाव सिर पर आ चुके हैं और केजरीवाल को अपनी पार्टी का जनाधार खिसकता हुआ दिखाई दे रहा है।

ये ही कारण है कि 2011 में जिस केजरीवाल ने अन्ना हज़ारे के साथ मिलकर कांग्रेस या शीला दीक्षित के भ्रष्टाचार के विरोध में धरना प्रदर्शन करके अपना व अपनी पार्टी का असितत्व खड़ा किया है वो ही केजरीवाल 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी हार और इज्जत बचाने के लिए आज उसी कांग्रेस और उसकी भ्रष्ट नेता शीला दीक्षित के सहयोग के लिए गिड़गिड़ा रहा है कि चाहें जैसे भी हो उसे कांग्रेस का समर्थन मिल जाए। जबकि जनता जानती है कि ये ही केजरीवाल है जो कल तक इसी कांग्रेस और शीला दीक्षित के खिलाफ सबूतों के नाम पर पेपरों का पुलिंदा लेकर लोगों को दिखाता फिरता था ।


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