जम्मू कश्मीर : भय बिनु होइ न प्रीत
"एक निशान, एक विधान, एक प्रधान" का नारा बुलंद करने वाले पं. श्यामाप्रसाद मुकर्जी की आत्मा उस दिन अवश्य रोई होगी, जिस दिन कश्मीर के चुनावों के बाद "दो निशानों" के साथ नई हुक़ूमत ने राष्ट्रवादी पार्टी के समर्थन से शपथ ग्रहण की थी। एक तरफ़ हिंदुस्तान का झंडा था और हिंदुस्तान के वज़ीरे-आज़म नरेंद्र मोदी बैठे थे। दूसरी तरफ़ कश्मीर का झंडा था और कश्मीर के नए सद्रे-रियासत मुफ़्ती मोहम्मद सईद शपथ ग्रहण कर रहे थे। मानो, यह भारत के किसी राज्य के मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह नहीं, किसी राष्ट्रप्रमुख से भारत की "बायलैटरल" वार्ता हो।

- एक देश में दो झंडे क्यूँ?
"एक निशान, एक विधान, एक प्रधान" का नारा बुलंद करने वाले पं. श्यामाप्रसाद मुकर्जी की आत्मा उस दिन अवश्य रोई होगी, जिस दिन कश्मीर के चुनावों के बाद "दो निशानों" के साथ नई हुक़ूमत ने राष्ट्रवादी पार्टी के समर्थन से शपथ ग्रहण की थी। एक तरफ़ हिंदुस्तान का झंडा था और हिंदुस्तान के वज़ीरे-आज़म नरेंद्र मोदी बैठे थे। दूसरी तरफ़ कश्मीर का झंडा था और कश्मीर के नए सद्रे-रियासत मुफ़्ती मोहम्मद सईद शपथ ग्रहण कर रहे थे। मानो, यह भारत के किसी राज्य के मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह नहीं, किसी राष्ट्रप्रमुख से भारत की "बायलैटरल" वार्ता हो।
महाभारत के 18 पर्वों में से 12वां पर्व "शांतिपर्व" है। यह "शांतिपर्व" राजधर्म और आपदधर्म के निर्वाह से सम्बंधित है।
दिसम्बर 2014 से भारतीय जनता पार्टी जम्मू-कश्मीर में "शांतिपर्व" का निर्वाह कर रही थी, क्योंकि उसने इसको अपना "आपदधर्म" मान लिया था!
आज वह पर्व समाप्त हुआ। अब 13वें पर्व "अनुशासनपर्व" का आरम्भ होता है! "संघर्षविराम" केवल पवित्र माह के लिए था, ये और बात है कि कश्मीर में अपवित्र गठबंधन का यह "पवित्र माह" साढ़े तीन साल से चल रहा था।
"एक निशान, एक विधान, एक प्रधान" का नारा बुलंद करने वाले पं. श्यामाप्रसाद मुकर्जी की आत्मा उस दिन अवश्य रोई होगी, जिस दिन कश्मीर के चुनावों के बाद "दो निशानों" के साथ नई हुक़ूमत ने राष्ट्रवादी पार्टी के समर्थन से शपथ ग्रहण की थी।
एक तरफ़ हिंदुस्तान का झंडा था और हिंदुस्तान के वज़ीरे-आज़म नरेंद्र मोदी बैठे थे। दूसरी तरफ़ कश्मीर का झंडा था और कश्मीर के नए सद्रे-रियासत मुफ़्ती मोहम्मद सईद शपथ ग्रहण कर रहे थे।
मानो, यह भारत के किसी राज्य के मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह नहीं, किसी राष्ट्रप्रमुख से भारत की "बायलैटरल" वार्ता हो।
13 जुलाई 1931 को श्रीनगर में सबसे पहले यह झंडा फहराया गया था। जी हां, हिंदुस्तान के झंडे के अस्तित्व में आने से पहले कश्मीर का अपना एक झंडा बन चुका था। अलगाव की जड़ें इतनी गहरी हैं, साहेबान! गंगा-जमुनी में दरार इतनी गहरी है!
भारतीय जनता पार्टी ने "शांतिपर्व" के "आपदधर्म" का निर्वाह किया और अपमान का वह घूंट पी लिया।
राजनीति लज्जित हुई। निष्ठा पराजित हुई। प्रतिज्ञाओं का स्खलन हो गया। अवसरवाद ने अट्टहास किया!
भारत-निर्माण के यज्ञ में अपवित्र आहुति 2014 के साल में ही पड़ गई थी, जब एक नए शासन को हिंदुस्तान ने राज करने के लिए चुना था।
इन चार सालों में केंद्र में सत्तारूढ़ दल ने अनेक समझौते किए हैं। इनमें से कोई भी समझौता इतना बड़ा नहीं था, जितना कि कश्मीर में किया गया समझौता था। अगर आप समझते हैं कि संघर्षविराम केवल पिछले एक महीने से लागू था, तो आप भूल कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी की "अंतरात्मा" अगर इस बात से जागी हो कि कर्नाटक की 224 में से 104 सीटें जीतने के बावजूद उसे विपक्ष में बैठने को विवश होना पड़ सकता है तो जम्मू-कश्मीर की 87 में से 25 सीटें लाकर सत्ता का हिस्सा क्यों बने रहें, तो इस "सम्बोधि" के लिए पं. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के स्वप्नों की पार्टी काे शुभकामनाएं दी जानी चाहिए!
कर्नाटक में नैतिकता की बलि चढ़ाकर भी सरकार बनाने के हठ से लेकर कश्मीर में अंतरात्मा के जागरण तक, सचमुच राजनीति में एक महीना बहुत लम्बा वक़्त होता है!
एक महीना "माहे-मुक़द्दस" का ही नहीं, "माहे-सियासत" का भी होता है!
लेकिन अगर यह राजनीतिक शुचिता की अंतरात्मा का जागरण होने के बजाय 2019 की रणनीतियों का पहला प्रारूप है तो इसे और स्वागतयोग्य माना जाना चाहिए, क्योंकि राजधर्म चाहे जो हो, राजनीति का धर्म यही है कि वह अपने एजेंडे को अक्षुण्ण रखे और विचारधारा की तुलना में सत्ता उसके लिए दोयम हो।
वैसे भी सामान्य राजनीतिक बुद्धि तो यही कहती है कि जम्मू-कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी को जो 25 सीटें मिली हैं, वे सभी की सभी उसे जम्मू से मिली हैं। जम्मू की 37 में से 25 सीटों पर मिली जीत ने उसे यह अपवित्र गठबंधन करने का अवसर दिया था। जबकि घाटी की 46 सीटों में से भाजपा को 1 भी सीट पर जीत नहीं नसीब हुई थी।
घाटी की उन 46 नाशुक्रा सीटों को लुभाने के लिए भाजपा ने जम्मू की 25 सीटों के समर्थन की अवमानना करके जनादेश का जो अपमान किया था, उसका ख़ामियाज़ा भी उसे कभी न कभी तो भुगतना ही था।
महत्वपूर्ण यही है कि समय रहते भूलों को दुरुस्त कर लिया जाए, और यक़ीन मानिए, अभी समय है! अभी समय था!
भारतीय जनता पार्टी अगर अपने विचारधारागत रुख़ को स्पष्ट करने का प्रण ले ले तो जनादेश भी एक बार फिर उसका राजतिलक करेगा, यह निश्चित है।
"विकास" और "विचारधारा" गंगा-जमुनी तहज़ीब नहीं, जो साथ साथ नहीं चल सकते! चार साल का "शांतिपर्व" समाप्त हुआ! अब एक वर्ष के "अनुशासन-पर्व" का आरम्भ हो!
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संपादकीय टिप्पणी : बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥