बाईबल और वामियों के चंगुल से निकलता भारतीय इतिहास

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साक्ष्य मिल रहे हैं, फिर शोध से क्यों डरते हैं इतिहासकार?

इतिहासकारों का मानना है कि केवल वस्तुओं का मिलना ही इतिहास नहीं होता, इतिहास होने का प्रमाण नहीं होता, बल्कि उन्हें सैद्धांतिक प्रश्न (theoretical question) से गुजरना होता है, जो दार्शनिक तौर पर उस वस्तु का पक्ष रख सकें, बचाव कर सकें, उसकी वकालत कर सकें, जिसका इतिहास लिखा जा सके।

अगर यही बात है तो इन मिलते साक्ष्यों, प्रमाणों, वस्तुओं में निहित दर्शन तो पूरी सभ्यता में व्याप्त है, ग्रंथों में लिखित है, फिर इन प्रमाणों पर शोध क्यों नहीं होता? इतिहासकार औपनिवेशिक इतिहास के इतर कुछ भी बोलने, कहने या बताने को तैयार क्यों नहीं होते।

अगर आप यह कहते हैं कि इतिहास कोई उद्यम नहीं है जो शुरुआत से शुरू किया जा सके, तो क्या केवल इसी तर्क की ख़ातिर आप अपने शुरुआत में हुई ग़लतियों को सुधारने का कोई ईमानदार प्रयास नहीं करेंगे? वह भी तब जबकि उन ग़लतियों की विरासत आपने ख़ुद तय कर दी है आने वाली पीढ़ियों को।

यह सिनॉली का रथ आपके लिए प्रश्न खड़े कर रहा है। आशा है आप आनेवाली पीढ़ियों को इसका इतिहास बता पाएँगे। गंगा-यमुना के दोआब में हर साल बाढ़ और उससे आने वाली मिट्टी में न जाने कितनी सभ्यता दबी हो।

सिंधु विकसित सभ्यता थी तो उससे पहले कोई सभ्यता भारत में विकसित न हुई हो, ये ज़रूरी नहीं है। बिहार के समस्तीपुर जिले के पांडु इलाके की सभ्यता छः हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी है, यह अखबारों ने बताया, पर इतिहासकार चुप रहे।

ASI ने प्राची सभ्यता की खोज ओडिशा में की, पर इतिहास में आपने उसे कोई जगह नहीं दी और खोज भुला दी गई।

2001 में सरकार ने गुजरात के समुद्री तटों पर प्रदूषण के कारण हुए नुकसान का अनुमान लगाने के लिए राष्ट्रीय सामुद्रिक अनुसन्धान द्वारा सर्वे करवाया तो पाया गया कि यह नगर 32,000 वर्ष पुराना है और 9000 वर्षों से समुद्र में विलीन है। इसके साक्ष्य के बावज़ूद आपके विर्मश में द्वारिका शामिल नहीं है, शायद इसलिए क्योंकि द्वारका का होना आपके कई सारे स्थापित स्तंभों को तोड़ कर रख सकता है।

द्वारका ही क्यों महाभारत जैसे ग्रंथों में जगहों का उल्लेख है, वे आज भी भौगोलिक स्थिति में, ठीक उसी तरह मौजूद हैं पर आप उनके अस्तित्व को पटल पर लाना नहीं चाहते, क्योंकि फिर हमारे ग्रंथों को इतिहास मानना पड़ सकता है। गांधार, तक्षशिला, कैकय प्रदेश, वृंदावन, गोकुल, मथुरा, द्वारका, कुरुक्षेत्र, वारणावत, इंद्रप्रस्थ, कामाख्या, मणिपुर, प्राग्ज्योतिषपुर, सोनितपुर, यह सभी स्थान ग्रंथों में वर्णित हैं और आज भी मौज़ूद हैं पर इन्हें आप इतने प्राचीन मानना नहीं चाहते क्योंकि ऐसा न मानने की हिदायत विरासत में मिली है आपको।

आप टूटे हुए काल-खंडों के न होने का उत्सव मनाते दिखते हैं। वो निश्चितता जो किताबों में होती है, वह निश्चितता का पैमाना ढूढने के बजाय उसके न होने को सेलिब्रेट करते दिखते हैं।

एक टूटे-फूटे घर का पुनर्निर्माण ही अगर आपका काम है तो फिर आप उस टूटे-फूटे घर की उस नींव को झुठला नहीं सकते जो दिख नहीं रही और जिस पर आप मुलम्मा नहीं चढ़ा पा रहे। नींव दिख नहीं रही इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं कि वह है ही नहीं।

आपने इतिहास के ईंटों को भरपूर बदल डालने की तमाम कोशिशें तो कर डाली पर यह नहीं देखा कि वह नींव ईट की है, पत्थर की या नीचे कोई ज्वालामुखी है या समुद्र।

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