हिंदू इकोसिस्टम समय की जरूरत: अस्थायी कुछ भी हो लेकिन राष्ट्रहित सर्वोपरि है

  • whatsapp
  • Telegram
X

कपिल मिश्रा के हिंदू इकोसिस्टम बनाने की शुरुआत ने सियासत के कुछ हलकों से लेकर एक विशेष बुद्धिजीवी वर्ग में बहुत घबराहट पैदा कर दी है। घबराहट कुछ ऐसी है कि एक के बाद एक लेख लिखे जा रहे हैं, इकोसिस्टम न बन सके इसके लिए लीगल ऑप्शन्स तलाशे जा रहे हैं, मीटिंग्स हो रही हैं कुछ ऐसा रास्ता निकालने के लिए जिससे हिंदू इकोसिस्टम बनने से पहले ही रोक दिया जाए।

लेकिन समझ नहीं आ रहा कि ये घबराहट है किस बात की?

क्या घबराहट इस बात की है कि अगर हिंदू संगठित हो गया तो क्या होगा?

क्या होगा अगर अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति से आज़ादी के बाद भी राज करते आए उन सियासी रहनुमाओं का जो तुष्टिकरण ही ओढ़ते बिछाते हैं?

क्या होगा उन फेक नैरेटिव्स का जो सेलेक्टिव आउटरेज के साथ बनाए और पाले पोसे जाते हैं?

चलिए थोड़ा पीछे चलते हैं:

दरअसल आज़ादी के बाद से ही हिंदुओं को असंगठित कर उन्हे जाति और क्षेत्र के आधार पर विभाजित करने का जो षडयंत्र हुआ उसने बहुत से राजनीतिक दलों को फलने-फूलने में बड़ा लाभ दिया। स्वघोषित सेक्युलर/चाटुकार साहित्यकारों ने देश की शीर्ष राजनीतिक सत्ता की सराहना में लेख लिखे और सत्ता के शीर्ष पर काबिज एक परिवार विशेष ने उनके लेखों के एवज में एवार्ड्स दिए।

यह चक्र दशकों यूं ही चलता रहा जब तक 2014 में संपूर्ण भारत की बात करने वाला एक प्रधानमंत्री देश को नहीं मिला। लेकिन जिनकी रोटी ही समाज के बंटवारे से चलती थी उन्हें यह कैसे सहन होता तो लीजिए आ गया एक नया नैरेटिव - असहिष्णुता। एवार्ड्स वापस किए गए इस उम्मीद में कि 2019 में सरकार बदल जाएगी तो फिर एवार्ड्स मिल सकेंगे। इंटरनेशल मीडिया में लेख लिखे गए और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर देश की छवि खराब करने की कोशिश हुई ताकि अगर ग़लती से कहीं दुकाने बंद हो जाएं तो भी इन सेलेक्टिव आउटरेज मचाने वालों की इंटरनेशनल मार्केट से ही रोटी चलती रह सके।

2015 में जब अखलाख की लिंचिग हुई, ग़लत था सबने माना, किसी भी सभ्य समाज और लोकतंत्र में यह नहीं होना चाहिए था, यह बात बहुसंख्यक तो बोले लेकिन अल्पसंख्यकों के रहनुमा प्रशांत पुजारी, कमलेश तिवारी, बंधु प्रकाश, डॉ पंकज नारंग, अंकित सक्सेना, चंदन गुप्ता जैसे सैकड़ों अखलाखों पर न अपनी जीभ हिला सके और न ही की-पैड से संवेदना के दो शब्द लिख सके तो यह सवाल ज़रूर जन्मा कि क्या हिंदू देश में बहुसंख्यक है तो यह उसका अपराध है?

अफगानिस्तान, बर्मा, तिब्बत तो हमने सदियों पहले हीं गंवा दिया था, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी !! सुन-सुनकर 1947 में देश के दो टुकड़े हमने होने दिए और आज़ादी के बाद मां पार्वती और शिव का निवास कैलाश भी हाथ से जाने दिया। भारत शांति और सहिष्णुता का देश है यह नैरेटिव कुछ इस तरह पाला पोसा गया कि 'सर्वधर्म समभाव' के नाम पर तुष्टिकरण का खुला खेल खेलने वालों से हम खुलेआम यह कहने की हिम्मत दशकों नहीं कर पाए कि जब "भारत माता" के 1947 में दो टुकड़े किए गए तो वह विभाजन 'सर्वधर्म समभाव' की अवधारणा पर आधारित नहीं था और न हि तब 'लोका: समस्ता: सुखिनो भवन्तु' की कामना की गई थी।

लाशों से भरी रेलगाड़ियां जब भारत पहुंची थी तो वह 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' की आत्मा पर सीधा प्रहार था, वह तुष्टिकरण का वह नासूर था जिसकी सड़ांध आज भी भारतीय समाज को घेरे है। इस सड़ांध से निकलना ज़रूरी है लेकिन यह निकलना गंगा जमुनी तहज़ीब की वकालत करते हुए, गंगा को मैला छोड़ केवल जमुना की सफाई का बीड़ा उठाने से नही होगा।

हमें यह ज़रूर सोचना होगा कि जिन समाज के ठेकेदारों को हमारे अग्रवाल महासभा, ब्राह्मण सभा, कायस्थ समाज, हरिजन एकता, पिछड़ा समाज जैसे मंच बनाने से कभी कोई दिक्कत नही हुई वह आज जब यह सारे अग्रवाल, कायस्थ, ब्राह्मण, हरिजन और पिछड़े आदि 'हिंदु एकोसिस्टम' के नाम पर साथ आ रहे हैं तो इतने हिले हुए क्यों हैं?

सोचिए और समझिए क्योंकि इस सवाल के उत्तर में ही उनकी घबराहट का कारण छुपा है।

Share it