कौन और कैसे सुलझाए कश्मीर मुद्दा?

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सरकारें आती गई और जाती गई, कुछ स्थिर रहा है तो वह है मुद्दा कश्मीर का

जब भी कश्मीर में किसी हमले या जवान के शहीद होने की बात आती है तो कुछ सवाल खड़े होते हैं-

सवाल कि क्या आज तक किसी सरकार ने कश्मीर मसले को हल करने के लिए कोई रणनीति बनाई है या सरकार ने सेना को बिना किसी रणनीति के, शहीद होने के लिए छोड़ दिया है? क्या कश्मीर का मुद्दा चंद दिनों में सुलझाया जा सकता है या कश्मीर की हालत सुधारने के लिए कुछ वर्षों की रणनीति की आवश्यकता पड़ेगी? कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए किन पक्षों से बातचीत करने की जरूरत है? क्या पाकिस्तान से बात करने की जरूरत है? पाकिस्तान से बात करें तो किससे करें?

यहां स्थिति उत्तर कोरिया-दक्षिण कोरिया जैसी नहीं है, जब इन दोनों देशों की सहमति बनी थी तब यह कहा जा रहा था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान भी इस तरह से आपसी सहमति बनाए। लेकिन यहां स्थिति काफी अलग है क्योंकि पाकिस्तान में बात करने वाली कोई केंद्रीकृत शक्ति नहीं है जबकि किम एक तानाशाह है जिनका निर्णय सर्वमान्य था। भारत के प्रधानमंत्री जब पाकिस्तान से बातचीत करके सहमति बना कर लौटते हैं तो पहुंचने से पहले ही लङाई चालू हो जाती है।

ऐसे और भी कई सवाल उठते हैं, कश्मीर की खबरों को देखते हुए, पाकिस्तान के रवैये को देखते हुए और चीन के सहयोग को देखते हुए।

कश्मीर के घटनाक्रमों को लेकर राजनीति के सिवाय कुछ नहीं किया जाता, सही बताएं तो राजनीति भी नहीं की जाती, क्योंकि प्रधानमंत्री बनने का रास्ता उत्तर प्रदेश से निकलता है कश्मीर से नहीं। उनको कश्मीर के वोट नहीं, उनको उत्तरप्रदेश के वोट चाहिए, तो काम किसके लिए करेंगे उत्तरप्रदेश के लिए या फिर कश्मीर के लिए? उत्तर प्रदेश से वोट बटोरने के लिए कश्मीर मुद्दे की बात भले ही कर ली जाती है पर काम नहीं किया जाता। पता ही नहीं चला कि आईडी इतना सारा आ कहाँ से गया? कैसे इतने जवान इस तरीके से शहीद हो गए कैसे आईडी बम लगा हुआ था, जिसमें सेना का मेजर शहिद हो गया? कौन 370 को हटाएगा और कश्मीरी मुद्दे को सुलझाने के लिए एक रणनीति तैयार करेगा? कश्मीर का मुद्दा इतना अनसुलझा है कि बिना किसी रणनीति के उthe से सुलझाया नहीं जा सकता।

अब जनता अपनी समझदारी दिखाते हुए धीरे-धीरे सरकार से कश्मीर मुद्दे की बात करने लगी है। 2014 के चुनाव में 370 हटाने को लेकर बात की गई थी लेकिन सरकार में उसको लेकर किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं देखी गई।

धीरे-धीरे राजनीतिक दल भी कश्मीरी मुद्दे को अपने मेनिफेस्टो में लाने लगे हैं। समय ऐसा है कि जनता अपने निजी हितों को न देखते हुए, सेना के हित को देखने लगी है,राष्ट्र हित को देखने लगी है।

भारत सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया दिखाते हुए MFN का दर्जा पाकिस्तान से वापस लिया है, वहीं पाकिस्तान अफएटीअफ में ग्रे लिस्ट से ब्लैक लिस्ट में जाने के अंतिम क्षोर पर खङा है। अलगाववादियों से सुरक्षा वापसी बहुत पहले ही ली जानी चाहिए थी।

कश्मीर आंतकवादी तो मारे जा रहे पर साथ ही बङी संख्या में हमारे जवान भी शहीद होते है, पुलवामा हमले के मास्टरमाइंड कामरान को खाक करने में भी 4 सैनिक और एक नागरिक का बलिदान देना पड़ा। वही भारत की एयर स्ट्राइक और 2016 का बंदर ऑपेरेशन पाकिस्तान को अच्छा सबक है, पाक को अच्छा सबक सिखाकर औऱ अंतरराष्ट्रीय प्रेशर बनाकर ही आतंकवाद के मुद्दे को सुलझाया जा सकता है। कश्मीर की इस हालत के कई कारण है और इसके सारे कारण पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं।

आज कश्मीर के युवाओं की बेरोजगारी, खून-खराबा, अशांति और पत्थरबाजी सब पाकिस्तान की बेबुनियादी और गलत नीतियों के कारण है। कश्मीर के लिए किए गए अस्थायी प्रतिबंधों में अनुच्छेद 370 और 35a को हटाने के लिए संविधान संशोधन बिल पहले लोकसभा और राज्यसभा से फिर जम्मू और कश्मीर की विधानसभा से पारित करवाना होगा। जम्मू विधानसभा से बिल को पारित करवाना इतना आसान नहीं होगा विधानसभा में 89 सीटें हैं इनमें से करीब आधी सीटें (46) कश्मीर से है जबकि आधी सीटें रखने वाला कश्मीर आधी जनसंख्या प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि करीब 25% जनसंख्या प्रतिनिधित्व करता है। यहां के लोग भारत समर्थित नहीं है। खाली दिमाग और बेरोजगारी के कारण यह लोग पत्थर फेंकते हैं और कहीं न कहीं वे इस काम को करने के लिए मजबूर भी है। अगर किसी इंसान को ₹10000 देकर पत्थर फेंकने का कहा जाए तो वह पत्थर ही फेंकेगा, ऐसी स्थिति में तो और भी अधिक। 1989 के बाद से कश्मीर की हालत बिगड़ी है, इसी समय से आतंकवाद बढ़ने लगा और अब तक हम काबू नहीं पा सके हैं। भारत की राजनीतिक स्थिरता का कश्मीर के हालात से सीधा संबंध नजर आता है। अब फिर भारत की राजनीति में स्थायित्व आया है लेकिन कश्मीर मुद्दा सुलझाने के लिए पाकिस्तान में भी एक अच्छी मजबूत औऱ निष्पक्ष चुनावों द्वारा बनी सरकार की जरूरत है।


पुलवामा हमले बाद

देहरादून के विश्वविद्यालयों द्वारा कश्मीरी विद्यार्थियों का बहिष्कार कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता। ऐसे ही देश में कई स्थानों पर कश्मीरी लोगों का बहिष्कार किया जा रहा है उन पर अत्याचार किया जा रहा है। यह बात बिल्कुल स्वीकार्य है कि कश्मीरी लोगों ने भारतीयों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अत्याचार किए हैं। उनके समाज, उनके क्षेत्र के लोगों के द्वारा आतंकवाद को महत्व दिया जाता है इस बात में कोई दो राय नहीं। लेकिन युवा वर्ग जितना कश्मीर से बाहर निकलेगा उतने ही कश्मीर के हालात सुधरेंगे। इस डर से और अत्याचार से तो कश्मीर की समस्या बढेगी। व्हाट्सएप पर मैसेज फैलाए गए कि कश्मीरी लोगों का बहिष्कार किया जाए, सामान का प्रयोग नहीं किया जाए। जबकि इसका उल्टा किया जाना चाहिए हमें अधिक से अधिक कश्मीर के वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए और कश्मीरी लोगों को सम्मान देना चाहिए।

कुछ समय पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि हम असम को कश्मीर नहीं बनने देंगे, कहीं ना कहीं वे मानते हैं कि भारत के पूर्वी क्षेत्र कश्मीर बनने जैसी हालात में आ सकते हैं।

ऐसा नजर आता है कि शायद ही भारत सरकार के पास कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए कोई रणनीति है । अब आगे देखना यह है कि मोदी सरकार किस तरह से बदला लेगी? ऐसी स्थिति में आज रणनीति की जरूरत है प्रतिक्रियाओं की नहीं ।

सऊदी अरेबियन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के दो दिवसीय पाकिस्तान-भारत दौरे से भी उम्मीदें की जा सकती है।

कश्मीर की कहानी में अब्दुल्ला

जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय में शेख अब्दुल्ला की कोई भूमिका नहीं थी। राज्य का भारत में विलय 26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह द्वारा 'विलय की संधि' पर हस्ताक्षर से संभव हुआ था। उमर अब्दुल्ला की तरह महबूबा मुफ्ती भी अनुच्छेद 35ए और धारा 370 को खत्म करने की स्थिति में गंभीर नतीजे भुगतने की खुलेआम धमकी दे रही हैं। उन्होंने कहा कि ऐसा करते ही जम्मू-कश्मीर का भारत से रिश्ता खत्म हो जाएगा। वास्तव में जम्मू-कश्मीर की समस्याओं की जड़ें तीन सियासी खानदान से जुड़ी हैं। एक नेहरू गांधी परिवार, दूसरा अब्दुल्ला परिवार और तीसरा मुफ्ती परिवार। समस्याओं का एक सिरा पाकिस्तान से भी जुड़ा है। 1946 में प्रधानमंत्री बनने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने अपने मित्र शेख अब्दुल्ला का खुला समर्थन किया। यह वही अब्दुल्ला थे जिन्होंने जिन्ना की मुस्लिम लीग की तर्ज पर 1932 में ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस की स्थापना की थी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लिए अलग इस्लामी झंडा भी पेश किया। बाद में नेहरू के कहने पर उन्होंने धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़ने के लिए अपने संगठन से मुस्लिम नाम हटाकर 1939 में उसे नेशनल कांफ्रेंस बना दिया। नाम बदलने के बाद भी उसका इस्लामी स्वरूप कायम रहा।

जब राज्य विरोधी गतिविधियों के कारण महाराजा हरि सिंह ने अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया तो उन्हें रिहा कराने के लिए नेहरू ने कश्मीर जाने का फैसला किया और वहां महाराजा के विरोध में उतर आए। यह एक भयावह भूल थी। डीपी मिश्र को प्रेषित एक पत्र में सरदार पटेल ने लिखा, 'उन्होंने (नेहरू) ने हाल में कई ऐसे काम किए जिससे हमें शर्मिदगी उठानी पड़ी है। कश्मीर में उन्होंने जो कदम उठाए वे भावनात्मक आवेग का परिणाम हैं। इससे हालात दुरुस्त करने के लिए हम पर दबाव बढ़ गया है।' सितंबर 1947 में हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय की पेशकश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि नेहरू न केवल अब्दुल्ला की रिहाई, बल्कि जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री पद पर उनकी ताजपोशी भी चाहते थे। महाराजा को यह मंजूर न था। पाकिस्तान ने सितंबर 1947 में जम्मू-कश्मीर पर हमले की योजना बनानी शुरू कर दी। पाकिस्तानी हमले की योजना से संबंधित एक पत्र गलती से मेजर कलकत के हाथ लग गया जो उस समय बन्नू में तैनात थे। वहां से भागकर वह दिल्ली आए और शीर्ष एजेंसियों को अवगत कराया। यह जानकर पटेल और तत्कालीन रक्षा मंत्री बलदेव सिंह घुसपैठियों को रोकने के लिए जम्मू-कश्मीर सीमा पर सेना भेजना चाहते थे, लेकिन नेहरू ने इन्कार कर दिया। जनमत संग्रह पर स्वीकृति और जम्मू-कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र के मंच पर ले जाना भी नेहरू की बड़ी गलतियां रहीं। अगर नेहरू ने अनावश्यक दखल न दिया होता तो आज समूचा जम्मू-कश्मीर भारत के पास होता। अपने रुख पर अड़े रहने के बाद अब्दुल्ला स्वतंत्र रूप से जम्मू-कश्मीर पर शासन करना चाहते थे और उन्होंने पाकिस्तान के साथ अपनी कड़ियां जोड़ लीं। जब नेहरू को उनकी गुप्त योजना की भनक लगी तो उन्हें भी अब्दुल्ला को जेल में डालना पड़ा।

अगस्त, 1953 में जब शेख अब्दुल्ला गिरफ्तार हुए तब फारूक की उम्र 16 साल थी। उन्हें अपने पिता की सभी योजनाओं की जानकारी थी। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी को पाकिस्तान को पूरी तरह बांट देने का एक बढ़िया अवसर मिला जब 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान के 93,500 सैनिकों ने ढाका में भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। इससे पाक सेना का मनोबल रसातल में था। अगर भारत उस लड़ाई को और 72 घंटे खींच देता तो गिलगित-बाल्टिस्तान सहित पाकिस्तान के कब्जे वाले पूरे कश्मीर को उसके चंगुल से छुड़ा लिया जाता। उन्होंने 1972 के शिमला समझौते में सैन्य मोर्चे पर मिली बढ़त को कूटनीतिक मेज पर तब गंवा दिया जब जम्मू-कश्मीर के स्थाई समाधान के लिए कोई दबाव नहीं बनाया। इसके बाद 1975 में इंदिरा गांधी-शेख अब्दुल्ला समझौता उनकी एक और बड़ी भूल साबित हुई। इस समझौते के तहत शेख को जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया गया। यह समझौता कश्मीर के लिए विध्वंसक साबित हुआ, क्योंकि इससे जनमत संग्रह वाला गिरोह फिर से सक्रिय हो गया और इसका परिणाम राज्य में आंतरिक तबाही, अशांति और इस्लामीकरण के रूप में निकला। पाकिस्तान परस्त लोगों को अहम पदों पर नियुक्त किया जाने लगा और पुलिस बल अल-फतह के शरारती तत्वों से प्रताड़ित होने लगा। शेख के निधन के बाद फारूक उनकी कुर्सी पर काबिज हो गए। उन्हें इंदिरा गांधी ने जुलाई 1984 में बर्खास्त कर दिया और उनके बहनोई जीएम शाह को मुख्यमंत्री बनाया। अक्टूबर 1984 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने 1986 में शाह सरकार को बर्खास्त कर दिया और राजीव-फारूक समझौते के तहत फिर से फारूक अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनाना तय किया। खुफिया एजेंसियों ने इसके लिए चेताया, लेकिन राजीव गांधी ने उनकी अनदेखी की। फारूक को सत्ता में लाने के लिए 1987 के चुनावों में धांधली हुई जिससे कश्मीरी युवाओं ने हथियार उठा लिए। 1989-90 में मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्रीय गृह मंत्री थे। कश्मीर के राष्ट्रविरोधी तत्वों के प्रति वे नरम थे। 8 दिसंबर 1989 को मुफ्ती की बेटी रुबैया सईद का कथित अपहरण हुआ। रुबैया की रिहाई के एवज में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के 13 दुर्दात आतंकियों को रिहा किया गया जिन्होंने अलगाववाद को भड़काने का काम किया।

एक अर्से से सीमा पार से कश्मीर में अलगाववादियों की मदद से पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। कश्मीर में हालिया गतिरोध इन्हीं तत्वों की वजह से पैदा हुआ है। मोदी सरकार ने कई अहम कदम उठाए हैं जिनके चलते जम्मू-कश्मीर में स्थाई समाधान के लिए कूटनीतिक और घरेलू स्तर पर अनुकूल माहौल बनने लगा है। पाकिस्तान की परमाणु धमकी की भी हवा निकल गई है। वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ा पाकिस्तान बालाकोट हमले के बाद सहम गया है। जनवरी 2018 के बाद से सुरक्षा बलों ने भी 300 से अधिक आतंकियों को निपटाकर वर्चस्व कायम किया है। अलगाववादी नेताओं के खिलाफ सख्ती और नियंत्रण रेखा पर हालात को संभालने के सकारात्मक परिणाम हासिल होंगे। वंशवादी प्रभाव से मुक्ति पाने के लिए अगली सरकार को धारा अनुच्छेद 370 और 35ए को निश्चित रूप से समाप्त करना चाहिए। इसके साथ ही राज्य में नए नेतृत्व को भी उभारा जाना चाहिए और पुरानी भूलें नहीं दोहराई जानी चाहिए।

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