इमरजेंसी: इंदिरा गांधी के भय का परिणाम
नयनतारा सहगल ने कहा कि इंदिरा ने भारतीय राजनीति को "हम" और "वो" के खेमों में विभाजित कर दिया था, जहाँ हम का मतलब उनके ख़ुद की राजनैतिक महत्वाकांक्षा थी जिसका विस्तार राष्ट्रीय स्तर तक कर दिया गया था और यह मान लिया गया था कि इंदिरा को गद्दी पर बिठाना भारत की आवश्यकता है। मानों इंदिरा का प्रधानमंत्रित्व राष्ट्र के लिए संजीवनी है। इंदिरा का पूरा जीवन सम्पूर्ण मानसिक सुरक्षा की वह खोज बन गई थी जो हर जगह से स्वयं की स्वीकार्यता पर ख़त्म हो सकती थी। उनके लिए यह काफ़ी नहीं था कि लगभग सभी अखबार उनके पक्ष में ही लिखते हैं, उनके लिए यह सोचनीय हो जाता कि वो इक्का-दुक्का भी उंनके पक्ष में क्यों नहीं लिखते हैं? वह इस बात से संतुष्ट नहीं रहतीं कि ज़्यादातर बुद्धिजीवी उनकी तारीफ़ ही किया करते हैं, वह इस बात से बेचैन रहतीं कि सभी बुद्धिजीवी उनकी तारीफ़ क्यों नहीं करते?
नयनतारा सहगल ने कहा कि इंदिरा ने भारतीय राजनीति को "हम" और "वो" के खेमों में विभाजित कर दिया था, जहाँ हम का मतलब उनके ख़ुद की राजनैतिक महत्वाकांक्षा थी जिसका विस्तार राष्ट्रीय स्तर तक कर दिया गया था और यह मान लिया गया था कि इंदिरा को गद्दी पर बिठाना भारत की आवश्यकता है। मानों इंदिरा का प्रधानमंत्रित्व राष्ट्र के लिए संजीवनी है। इंदिरा का पूरा जीवन सम्पूर्ण मानसिक सुरक्षा की वह खोज बन गई थी जो हर जगह से स्वयं की स्वीकार्यता पर ख़त्म हो सकती थी। उनके लिए यह काफ़ी नहीं था कि लगभग सभी अखबार उनके पक्ष में ही लिखते हैं, उनके लिए यह सोचनीय हो जाता कि वो इक्का-दुक्का भी उंनके पक्ष में क्यों नहीं लिखते हैं? वह इस बात से संतुष्ट नहीं रहतीं कि ज़्यादातर बुद्धिजीवी उनकी तारीफ़ ही किया करते हैं, वह इस बात से बेचैन रहतीं कि सभी बुद्धिजीवी उनकी तारीफ़ क्यों नहीं करते?
यह कहा जा सकता है कि इंदिरा गाँधी के शासन-काल में ही नव-राष्ट्रवाद का उदय हुआ।
1962 में चीन से अपमानजनक सैन्य-युद्ध, 1965 में पाकिस्तान से सैन्य-गतिरोध, बहुत ही धीमा आर्थिक विकास और विदेशों से मिलते अनुदानों पर अत्यधिक निर्भरता ने लोगों में, इंदिरा की कार्य-प्रणाली के प्रति असंतोष और राष्ट्र के लिए चेतनता और फिक्र की भावना को भरा।
"मेरे पिता एक संत थे जो राजनीति की तरफ़ मुड़ गए थे पर मैं शुद्ध राजनीतिज्ञ हूँ," इंदिरा का कहना था।
शुद्ध राजनीतिज्ञ होना यानी आदर्शवादिता से विमुख होना, नीतिहीन और दयाहीन होना है। फिर एक ऐसी राजनैतिक संस्कृति का निर्माण होने लगता है, जहाँ किसी तरह का प्रतिबंध काम नहीं करता, जहाँ किसी तरह की रोक-टोक भी नहीं लगाई जा सकती और इसकी वजह से एक तरह का जंगल-राज चलता है।
शुद्ध राजनीति जब होने लगती तो हर राजनीतिक कार्यकर्ता दूसरे को गिराना, रास्ते से हटाना चाहता है और वही आगे बढ़ पाएगा जिसके भीतर राजनैतिक मोलभाव का गुर ज्यादा मात्रा में मौजूद होगा।
आशीष नंदी का कहना है कि इंदिरा असुरक्षा की भावना को जीती थीं और केवल उन्हीं राजनैतिक विश्लेषकों के सम्मुख खुल कर विचार रखती थीं जो केवल उन्हीं की कार्यप्रणाली के प्रसंशक हों।
नयनतारा सहगल ने कहा कि इंदिरा ने भारतीय राजनीति को "हम" और "वो" के खेमों में विभाजित कर दिया था, जहाँ हम का मतलब उनके ख़ुद की राजनैतिक महत्वाकांक्षा थी जिसका विस्तार राष्ट्रीय स्तर तक कर दिया गया था और यह मान लिया गया था कि इंदिरा को गद्दी पर बिठाना भारत की आवश्यकता है। मानों इंदिरा का प्रधानमंत्रित्व राष्ट्र के लिए संजीवनी है।
इंदिरा का पूरा जीवन सम्पूर्ण मानसिक सुरक्षा की वह खोज बन गई थी जो हर जगह से स्वयं की स्वीकार्यता पर ख़त्म हो सकती थी। उनके लिए यह काफ़ी नहीं था कि लगभग सभी अखबार उनके पक्ष में ही लिखते हैं, उनके लिए यह सोचनीय हो जाता कि वो इक्का-दुक्का भी उंनके पक्ष में क्यों नहीं लिखते हैं?
वह इस बात से संतुष्ट नहीं रहतीं कि ज़्यादातर बुद्धिजीवी उनकी तारीफ़ ही किया करते हैं, वह इस बात से बेचैन रहतीं कि सभी बुद्धिजीवी उनकी तारीफ़ क्यों नहीं करते?
इमरजेंसी तब लगाई गई थी जब ज्यादातर विशेषज्ञ यह मानते थे कि आर्थिक स्थिती बेहतरीन हो चुकी है। कांग्रेस पार्टी में इंदिरा का ओहदा स्थिर था और उनकी जगह कोई नहीं ले सकता था। इस बात को जानते हुए भी उन्होंने इमरजेंसी जैसी भूल केवल अपने मानसिक असुरक्षा की भावना के दवाब में कर डाला।
राजनीतिक समाज को सफलताओं से ज्यादा पूर्व में घटी असफलताओं से सबक लेते हुए आगे बढ़ना चाहिए। इंदिरा की भूलों को अगर भुलाया न जाए तो ऐसी राजनैतिक भूलों से राजनैतिज्ञ बच सकते हैं।