लोकतंत्र का इफ़्तार, बाकी सब बेकार
जैन, बौद्ध, सिक्ख, पारसी के त्योहार पर कौन से राजनीतिक दल इस तरह के आयोजन करते हैं? इस दुहरे धर्मनिरपेक्षता से ज्यादा खतरा है लोकतंत्र को अपेक्षाकृत साम्प्रदायिकता के
जैन, बौद्ध, सिक्ख, पारसी के त्योहार पर कौन से राजनीतिक दल इस तरह के आयोजन करते हैं? इस दुहरे धर्मनिरपेक्षता से ज्यादा खतरा है लोकतंत्र को अपेक्षाकृत साम्प्रदायिकता के
यह परंपराओं का देश रहा है। प्रकृति-प्रेम, आदर्श-रिश्ते, परिवार, त्योहार सभी के लिए उत्सव की परम्परा रही है। और जबसे यह देश धर्म-निरपेक्ष लोकतंत्र हुआ, तब से तो कितनी ही स्वस्थ परम्पराएं इससे जुड़ गईं।
आतिथ्य की परंपरा सर्वोपरि है इस देश में। अपने अतिथि का उचित सम्मान, अपने आस-पड़ोस के लोगों की चिंता सभी कुछ। हाल ही में हमने लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा का अनुपालन देखा, जब कुछ मठाधीश संतों ने मंदिर में इफ्तारी की स्वस्थ परम्परा शुरू की।
भाईचारे और एकरुपता, सौजन्य का एक उम्दा उदाहरण प्रस्तुत हुआ हमारे सम्मुख और देश के सामाजिक इतिहास में अंकित हो गया। फ़िर यह ख्याल आया कि ऐसी स्वस्थ परंपरा यह देश अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के साथ क्यों नहीं कायम कर पाता। इस देश में, बौद्ध हैं, पारसी हैं, सिख है। न जाने क्यों इस तरह का वृह्द आयोजन पूरे देश में उनके त्योहारों पर क्यों नहीं दिखता?
उनके त्योहारों पर इतनी उत्सुकता, मीडिया-कवरेज, इतना आह्लाद, इतनी प्रेम भरी नफ़ासत और भाईचारा क्यों नहीं दिखता। कोई भी तबका राजनैतिक, पत्रकार, आम और ख़ास परेशान नहीं दिखता कि कैसे इन अल्पसंख्यक समुदायों के आयोजन को प्रमुख और आकर्षण का केंद्र बनाया जाए।बस, एक छोटा-सा शुभकामनाओं भरा संदेश जारी किया जाता है और फिर छुट्टी।
जैन, बौद्ध, सिक्ख, पारसी के त्योहार पर कौन से राजनीतिक दल इस तरह के आयोजन करते हैं? इस दुहरे धर्मनिरपेक्षता से ज्यादा खतरा है लोकतंत्र को अपेक्षाकृत साम्प्रदायिकता के
क्यों, ऐसा क्या किया है इन दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने, या ऐसा क्या नहीं किया है इस देश की तरक्की और विकास के लिए। ऐसी उपेक्षा उनके साथ क्यों? यहीं पर लोकतंत्र की यह स्वस्थ परम्पराएं मानसिक क्षय से ग्रस्त लगने लगती हैं।
रोजा के बाद इफ्तार पार्टियां देते देखा है लोगों को। ऊँचे-ऊँचे लोग, ऊँची-ऊँची पसंद, ऊँचे-ऊँचे दोस्त, ऊँचे-ऊँचे मेहमान, बड़े-बड़े आयोजन-स्थल। बड़े-बड़े मौलानाओं, मौलवी, रसूखदार लोग। बस, इन इफ्तार पार्टियों में नहीं दिखता तो वो है गरीब, निचला तबका। ये बड़े-बड़े लोग छोटे लोगों के लिए इफ्तार का ख्याल नहीं रखते दिखे कभी।
समानता और भाईचारा की बात करने वाले धर्म के मौलाना और दल के अध्यक्ष इस इफ्तार पार्टी में अपने गरीब मुस्लिम भाई को क्यों भूल जाते हैं। लोकतांत्रिक परंपराओं का त्यौहार लोक और अपने अन्य लोगों को लेकर ज़रा कम उत्साहित दिखता है।लोकतंत्र के स्वास्थ के लिए ये भेद-भाव सही नहीं लगता।