प्रयाग V/s अल्लाहबाद : फ़र्क तो पड़ता है साहब, नाम से ही तो सब-कुछ है
फ़र्क नहीं पड़ता तो प्रयाग को इलाहाबाद करने की ही ज़रूरत क्यों होती? शहरों-गाँवो के हिन्दू नाम बदल कर मुगलों ने दूसरे नाम क्यों रखे? इसलिए क्योंकि दूसरे के नाम वाली रजिस्ट्री वाले घर में रहा नहीं जा रहा था, लग रहा होगा मानों दूसरों का छीन कर रह रहे हैं।
फ़र्क नहीं पड़ता तो प्रयाग को इलाहाबाद करने की ही ज़रूरत क्यों होती? शहरों-गाँवो के हिन्दू नाम बदल कर मुगलों ने दूसरे नाम क्यों रखे? इसलिए क्योंकि दूसरे के नाम वाली रजिस्ट्री वाले घर में रहा नहीं जा रहा था, लग रहा होगा मानों दूसरों का छीन कर रह रहे हैं।
फ़र्क तो पड़ता है साहब, नाम से ही तो सब-कुछ है!
फ़र्क नहीं पड़ता तो बुरा क्यों लग गया। प्रयाग हो या अल्लाहबाद, नाम ही तो है।
शायद इसलिए कि अल्लाह को कृष्ण और कृष्ण को अल्लाह नहीं कहा जा सकता। कबीर भी नहीं कह सके, और उन्हें भी पंडित और मुल्ला कहना पड़ गया।
ईश्वर एक है भी, तो नाम तो अलग हैं और नाम ही जन्मना और कर्मणा है। इसी नाम के लिए कर्म किये जा रहा है आदमी चाहे वो ऊँचा तबका हो या निचला।
फ़र्क नहीं पड़ता तो प्रयाग को इलाहाबाद करने की ही ज़रूरत क्यों होती? शहरों-गाँवो के हिन्दू नाम बदल कर मुगलों ने दूसरे नाम क्यों रखे? इसलिए क्योंकि दूसरे के नाम वाली रजिस्ट्री वाले घर में रहा नहीं जा रहा था, लग रहा होगा मानों दूसरों का छीन कर रह रहे हैं।
तो ताबड़तोड़ नाम बदले गए, मंदिरों को तोड़ दिया गया या फिर उनके ऊपर मुगलों की शानों को खड़ा कर दिया गया। उनके आर्किटेक्चर खूबसूरत हैं, तो मंदिरों के आर्किटेक्चर और डिज़ाइन, राजाओं के महल ही कहाँ बुरे रहे।
नाम बदलने से फ़र्क नहीं भी पड़ता है पर सांस्कृतिक महत्व तो दिखता ही है। अयोध्या और मक्का केवल नाम नहीं, सांस्कृतिक और धार्मिक राजधानियां हैं। जिस तरह मक्का को अयोध्या नहीं कहा जा सकता, उसी तरह अयोध्या को मक्का नहीं कहा जा सकता।
यह नाम बदल देने की प्रकिया उसी सांस्कृतिक विरासत को वापस स्थापित करने की एक छोटी-सी कोशिश है जिसे वामपंथियों की कुचेष्टाओं ने तार-तार कर दिया था। विशेष समुदाय की चाटुकारिता वामपंथियों ने हिंदुओ को हर जगह से हटाने को की। हिंदुओ से और उनकी पहचान से निजात पाने को ही उंन्हे हर जगह से हटाने की कोशिशें हुई चाहे वो शहर हो, गांव हो या गाँव और शहर का इतिहास।
नाम बदल देने से आपके वर्चस्व को ठेस पहुँची हो, तो यही ठेस इस भारतीय संस्कृति को कई सौ साल तक लगती रही है।
यह छोटी-सी बात और बेमतलब की बात तब हो जाती है जब हम इसे करते हैं वरना आपका किया धरा तो इतिहास में सुनहरे अक्षरों में है ही, जिसमें हमारी उपस्थिति ही नगण्य है।
हम अत्यंत बुरे शोषक समाज़ रहे होते तो हजारों वर्षों की संस्कृति के साथ अभी तक जीवित नहीं रहे होते और न ही आपकी तथाकथित गंगा-जमुनी संस्कृति स्थापित हुई होती। आपने जितना ही हमें नगण्य माना, हम उतने ही इस बात से ख़ौफ़ खाते रहे कि हमारी कही कोई बात आपको बुरी न लग जाए और आपकी गंगा-जमुनी आहत न हो जाए। हम जितना डरते रहे, आप उतना ही ऐंठते रहे अपनी प्रगतिशीलता की ऐंठ में।
पर गंगा-जमुनी की ख़ातिर "परवीन बी" "पल्लवी" तो नहीं हो जाएंगी और न ही "पल्लवी" "परवीन बी"।
काम में तो आपने हमें निठल्ला घोषित कर ही रखा है, सारे काम तो मुग़ल कर गए, हमारे लिए कुछ बचा ही नहीं। तो नाम का बदलना ही स्वीकार कर लीजिए।