सुशांत सिंह राजपूत : चकाचौंध की दुनिया का नायक जो जीवन में कायर निकला !
यहाँ कोई अपनी दशा से संतुष्ट नहीं, सब "और अधिक" पाना चाहते हैं, इस हवस का कोई अंत नहीं.. यह हवस मृत्यु पर ही समाप्त होती है
यहाँ कोई अपनी दशा से संतुष्ट नहीं, सब "और अधिक" पाना चाहते हैं, इस हवस का कोई अंत नहीं.. यह हवस मृत्यु पर ही समाप्त होती है
एक सफल अभिनेता का नाम था सुशांत। जिसकी फिल्में चल रही थीं, पैसा आ रहा था, प्रसिद्धि के शिखर पर था, ना जाने कितनों का आदर्श था... फिर भी अपने ही जीवन से हार गया और आत्महत्या जैसा कायरता पूर्ण रास्ता अपनाया। अजीब लगता है, पर अजीब है नहीं।
मुम्बई एक शहर का नाम नहीं, अधूरी महत्वकांक्षाओ की बहुत बड़ी भीड़ का नाम है। वहाँ हर साल लाखों लोग चमकने जाते हैं। जो चमक रहे हैं वे और अधिक चमकने का प्रयास करते हैं। यहाँ कोई अपनी दशा से संतुष्ट नहीं, सब "और अधिक" पाना चाहते हैं। इस हवस का कोई अंत नहीं... यह हवस मृत्यु पर ही समाप्त होती है।
सुशांत के आर्थिक हालात कैसे भी रहे हों, पर देश की 95% जनता से तो अच्छी स्थिति में ही थे। क्या नहीं था उसके पास... बस संतुष्टि नहीं थी, जीवन से लड़ने का साहस नहीं था। सिनेमाई नायकों से साथ यही होता है। जीवन थोड़ा सा विपरीत हो जाय तो हार मान लेते हैं। वहाँ अमिताभ बच्चन जैसा महानायक राज ठाकरे के चार पत्थरों पर ही टूट कर माफी मांगने लगता है।
किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति की जिम्मेवारी बड़ी होती है। उनको असँख्य लोग फॉलो करते हैं, आदर्श मानते हैं। वे यदि कोई गलत निर्णय लें तो उनकी गलती भी कइयों के लिए गलती करने के पक्ष में तर्क बन जाती है। फिर आत्महत्या तो शायद संसार का सबसे घृणित कर्म है। सुशांत कितने भी अच्छे अभिनेता रहे हों, उन्होंने अंत में अत्यंत घिनौनी और कायरतापूर्ण प्रस्तुति दी है।
मनुष्य के लिए जीवन से पराजित होना नया नहीं है, हर युग में ऐसा होता रहा है। जीवन जब बहुत कठिन हो जाय तो लोग सांसारिक झंझटों से दूर भागते रहे हैं। पहले लोग ऐसी दशा में घर से भाग कर धर्म की शरण में चले जाते थे, साधु हो जाते थे। पर अब ऐसा नहीं है। फर्जी बुद्धिजीविता के ढोंग में लोग धर्म को नकार देते हैं, फिर जब जीवन भारी पड़ता है तो आत्महत्या के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं दिखता। सुशांत के साथ भी यही हुआ है।
सुशांत सिनेमाई संसार के पहले आत्महत्यारे नहीं हैं, अब हर महीने दो महीने पर कोई स्टार आत्महत्या कर ही लेता है। जिया, प्रत्युषा, सुशांत... सुशांत के बहाने ही सही, पर मुम्बइया शैली के जीवन की कुरूपता पर चर्चा होनी ही चाहिए। जो जीवन शैली सबकुछ होते हुए भी आत्महत्या की ओर ढकेल दे, वह सुन्दर नहीं है।
जीवन कितना भी कुरूप क्यों न हो, मृत्यु की अपेक्षा सुन्दर ही होता है। हमारे आपके आसपास ऐसे असँख्य लोग हैं जिनका जीवन अत्यंत कठिन है। फिर भी वे जी रहे हैं।
अभी कल ही एक फेसबुक मित्र मिले थे, प्रवीण कुमार। हैंडीकैप हैं... पता चला कि मीरगंज में दरिद्र बच्चों के लिए फ्री क्लास चलाते हैं, दिन भर। हँसते हुए बता रहे थे कि लॉक-डाउन में जब सब लोग गरीबों में अनाज बांट रहे थे तो हमने सोचा कि हम सब्जी बांटते हैं। इसी बीच में एक दिन अपने बगान से केला के कई घवद काट कर बांट दिए। उनके दादाजी ने पूछा तो बोले, कोई चोर चुरा ले गया शायद... यह बताते हुए वह बीस-इक्कीस साल का लड़का खिलखिला कर हँस रहा था। उसे देख कर लगा कि जिन्दगी बहुत खूबसूरत है, बस जीने का ढंग बढ़िया होना चाहिए। सुशांत जैसे लोग तो उसकी पोलियो की मारी पतली उंगलियों से भी कमजोर हैं।
जाओ सुशांत। तुमको मुक्ति मिले... आत्महत्या श्रद्धा के योग्य नहीं होती, सो श्रद्धांजलि नहीं दे सकता।