बड़ा दिन और ईसा मसीह
जुलियस सीजर ने ४५ ई.पू. में दिव्य दिन (उत्तरायण) से ही वर्ष का आरम्भ करने का आदेश दिया था। पर लोगों ने ७ दिन बाद जब विक्रम सम्वत् ११ की पौष अमावास्या थी तब वर्ष का आरम्भ किया। (Report of Calendar Reform Committee, CSIR, 1955, page 168)। जो मूल वर्ष आरम्भ का दिन था वह २५ दिसम्बर हो गया। यदि ईसा मसीह वास्तविक भी थे, तो उनका जन्म इसके करीब ५० वर्ष बाद हुआ था।
Arun Upadhyay | Updated on:26 Dec 2017 2:30 PM IST
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जुलियस सीजर ने ४५ ई.पू. में दिव्य दिन (उत्तरायण) से ही वर्ष का आरम्भ करने का आदेश दिया था। पर लोगों ने ७ दिन बाद जब विक्रम सम्वत् ११ की पौष अमावास्या थी तब वर्ष का आरम्भ किया। (Report of Calendar Reform Committee, CSIR, 1955, page 168)। जो मूल वर्ष आरम्भ का दिन था वह २५ दिसम्बर हो गया। यदि ईसा मसीह वास्तविक भी थे, तो उनका जन्म इसके करीब ५० वर्ष बाद हुआ था।
ज्योतिष में दिन-मास-वर्ष में कोई सरल अनुपात नहीं है और यह बदलता रहता है। अतः समय के शुद्ध निर्धारण के लिये भारतीय पञ्चाङ्ग में कई प्रकार से इनकी गणना की जाती है। जब सभी सही मिल जायें तो ठीक समय होगा। दिन का निर्धारण ५ प्रकार से होता है, अतः इसे पञ्चाङ्ग कहते हैं। मास भी २ प्रकार के हैं। गणना का आधार सौर मास है। इससे दिन गणना में सुविधा होती है। १ दिन या संख्या को कुश से व्यक्त करते हैं। दिनों का समूह (अहर्गण) कुश के गट्ठर जैसा है जो शक्तिशाली हो जाता है, अतः इस पद्धति को शक कहते हैं। यहां शक = एक निर्दिष्ट समय विन्दु से दिनों का समूह। इसके बाद चान्द्र तिथि की गणना की जाती है। चन्द्रमा मन का नियन्त्रण करता है, अतः पर्व निर्धारण चान्द्र तिथि से होता है। समाज इसी के अनुसार चलत है, अतः इसे सम्वत्सर कहते हैं। इसे सौर मास-वर्ष से मिलाने के लिये प्रायः ३०-३१ मास के बाद अधिक मास जोड़ते हैं। जिस मास में सूर्य संक्रान्ति (राशि परिवर्तन) नहीं हो वह अधिक मास होता है। इसके लिये भी पहले सौर मास की गणना करनी पड़ती है। चान्द्र मास गणित के अनुसार शुक्ल पक्ष से आरम्भ होता है। पर कलियुग के प्रायः ३००० वर्ष बाद विक्रम सम्वत् के आरम्भ के समय ऋतु चक्र प्रायः १.५ मास पीछे खिसक गया था, अतः विक्रम सम्वत् में चान्द्र मास कृष्ण पक्ष से आरम्भ होता है। यह एकमात्र वर्ष गणन है जिसमें कृष्ण पक्ष से चान्द्र मास आरम्भ होता है।
वेदाङ्ग ज्योतिष में कहा गया है-पञ्च सम्वत्सरमयं युगम्। इसके कई अर्थ हैं-(१) १ प्रकार के युग में ५ वर्ष होते हैं।
(२) ऋक् ज्योतिष में १९ वर्ष का युग होता है। याजुष ज्योतिष में ५-५ वर्षों के ५ युग मिलाने पर उनमें ६ क्षय वर्ष होते है। अतः उसमें भी १९ वर्ष का युग हुआ। इसमें ५ वर्ष सम्वत्सर हैं जिनका आरम्भ प्रायः चान्द्र मास के साथ (०-५ दिन का अन्तर) होता है। बाकी १४ वर्ष अन्य ४ प्रकार के हैं-परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर, इद्वत्सर।
(३) ५ प्रकार के वत्सरों से युग निर्धारण होता है-बार्हस्पत्य, दिव्य, सप्तर्षि, ध्रुव, अयनाब्द।
(४) बार्हस्पत्य वर्ष के ६० वर्ष चक्र में भी ५-५ वर्षों के १२ युग होते हैं।
वर्ष का आरम्भ ४ प्रकार से हो सकता है जो पृथ्वी कक्षा के चतुर्थांश के विन्दु हैं। जब सूर्य सबसे दक्षिण हो या उसकी किरण दक्षिणी अक्षांश वृत्त पर लम्ब हो। पृथ्वी का अपने अक्ष पर जितना झुकाव होगा, उतने ही उत्तर या दक्षिण अक्षांश तक सूर्य की किरन लम्ब रूप से पड़ सकती है। विक्रम सम्वत् के आरम्भ में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता था तो सूर्य सबसे दक्षिण होता था। अतः उसे मकर रेखा कहते हैं। सबसे उत्तर सूर्य किरण तब लम्ब होती है जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करे। यह कर्क रेखा है। पृथ्वी का झुकाव प्रायः २६ अंश से २२ अंश तक घटता बढ़ता है। अभी यह घट रहा है तथा प्रायः २३ अंश २६ कला है। यह उत्तर में जहां तक गया था अर्थात् सूर्य रथ कॆ नेमि (धुरा) जहां शीर्ण हो गयी थी उसे नैमिषारण्य कहते हैं। इक्ष्वाकु के समय यह मिथिला तक जाती थी। सूर्य विश्व की आंख है। विषुव रेखा पर आंख बन्द रहती है। मिथिला पहुंचने पर पूरी तरह खुल जाती थी। अतः कहा गया कि इक्ष्वाकु के पुत्र मिथिला राजा निमि की पलक सदा खुली रहती थी। वहां आज भी जब सूर्य सबसे उत्तर हो तब वर्ष आरम्भ होता है।
मकर रेखा से सूर्य उत्तर चलना आरम्भ करता है और ६ मास तक उत्तर गति रहती है जब वह कर्क रेखा पर पहुंचता है। उत्तरायण से जो वर्ष आरम्भ होता है वह दिव्य वर्ष है। उत्तरायण गति के मध्य में जब विषुव रेखा को पार करता है, तब सावन (लौकिक या व्यावहारिक) वर्ष होता है। दक्षिणायन से जो वर्ष आरम्भ होता है वह दिव्य का विपरीत असुर वर्ष कहते थे। इस समय वर्षा आरम्भ होती है, अतः सम्वत्सर को वर्ष कहा गया। एक वर्षा का क्षेत्र भी वर्ष है जैसे भारतवर्ष है।
दिव्य वर्ष दो प्रकार के हैं-एक तो उत्तरायण आरम्भ से अगले उत्तरायण आरम्भ तक। यह सौर ऋतु वर्ष हुआ। दूसरी पद्धति में इस वर्ष को ही दिन मान लेते हैं तथा ऐसे ३६० दिन (३६० सौर वर्ष) का दिव्य वर्ष कहते हैं। दोनों के उदाहरण पुराणों में हैं। ब्रह्माण्ड और वायु पुराणॊं में ३०३० मानुष वर्ष या २७०० दिव्य वर्ष का सप्तर्षि वर्ष कहा गया है। इसमें मानुष वर्ष का अर्थ है चन्द्र की १२ परिक्रमा का काल ३२७ दिन। चन्द्र मन का नियन्त्रक है अतः चान्द्र वर्ष को मानुष वर्ष कहा है। दिव्य वर्ष ३६५.२२ दिन का सौर वर्ष है। इस परिभाषा से ३०३० मानुष वर्ष = २७०० दिव्य वर्ष।
जुलियस सीजर ने ४५ ई.पू. में दिव्य दिन (उत्तरायण) से ही वर्ष का आरम्भ करने का आदेश दिया था। पर लोगों ने ७ दिन बाद जब विक्रम सम्वत् ११ की पौष अमावास्या थी तब वर्ष का आरम्भ किया। (Report of Calendar Reform Committee, CSIR, 1955, page 168)। जो मूल वर्ष आरम्भ का दिन था वह २५ दिसम्बर हो गया। यदि ईसा मसीह वास्तविक भी थे, तो उनका जन्म इसके करीब ५० वर्ष बाद हुआ था। काल्पनिक या असम्भव अर्थ में शंकराचार्य ने वन्ध्या-पुत्र शब्द का प्रयोग किया है। उसी प्रकार इनके लिये कुमारी पुत्र का प्रयोग है। भविष्य पुराण के अनुसारये शालिवाहन के समय (७८-१३८ ई.) में कश्मीर आये थे तथा उसराजा से भेंट हुई थी।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, खण्ड ३, अध्याय २-एकदा तु शकाधीशो हिमतुंगं समाययौ॥२१॥
हूणदेशस्य मध्ये वै गिरिस्थं पुरुषं शुभम्। ददर्श बलवान् राजा गौरांगं श्वेतवस्त्रकम्॥२२॥
को भवानिति तं प्राह होवाच मुदान्वितः। ईशपुत्रं च मां विद्धि कुमारीगर्भसम्भवम्॥२३॥
म्लेच्छधर्मस्य वक्तारं सत्यव्रतपरायणम्। इति श्रुत्वा नृपः प्राह धर्मः को भवतो मतः॥२४॥
श्रुत्वोवाच महाराज प्रापे सत्यस्य संक्षये। निर्मर्यादे म्लेच्छदेशे मसीहोऽहं समागतः॥२५॥
ईशामसी च दस्यूनां प्रादुर्भूता भयंकरी। तामहं म्लेच्छतः प्राप्य मसीहत्वमुपागतः॥२६॥
म्लेच्छेषु स्थापितो धर्मो मया तच्छृणु भूपते। मानसं निर्मलं कृत्वा मलं देहे शुभाशुभम्॥२७॥
नैगमं जपमास्थाय जपेत निर्मलं परम्। न्यायेन सत्यवचसा मनसैक्येन मानवः॥२८॥
ध्यानेन पूजयेदीशं सूर्यमण्डलसंस्थितम्। अचलोऽयं प्रभुः साक्षात्तथा सूर्योऽचलः सदा॥२९॥
तत्त्वानां चलभूतानां कर्षणः स समन्ततः। इति कृत्येन भूपाल मसीहा विलयं गता॥३०॥
ईशमूर्तिर्हृदि प्राप्ता नित्यशुद्धा शिवंकरी। ईशामसीह इति च मम नाम प्रतिष्ठितम्॥३१॥
इति श्रुत्वा स भूपालो नत्वा तं म्लेच्छपूजकम्। स्थापयामास तं तत्र म्लेच्छस्थाने हि दारुणे॥३२॥
दिव्य दिन का आरम्भ होने से यह बड़ा दिन कहलाता है। इस समय उत्तरी गोलार्ध में सबसे बड़ी रात होती है और यह मार्गशीर्ष में प्रायः आता है अतः इसे कृष्ण मास कहते हैं-मासानां मार्गशीर्षोऽहं (गीता, १०/३५)। कृष्णमास से क्रिस्मस हुआ है। तथाकथित इसाई कैलेन्डर जुलियस सीजर का ४६ ई.पू. का कैलेन्डर था जिसे करीब ५००वर्ष बाद इसाइयों ने प्रचलित किया। ईसा का जन्म वसन्त में वर्णित है। मार्गशीर्ष मास में बड़ा दिन होता है अतः उसका उषा काल १६ दिन पूर्व कार्त्तिक कृष्ण चतुर्दशी को होगा जिसे ओड़िशा में बड़ ओसा कहते हैं। २४ घण्टे के दिन का उषा काल १ घण्टा है, अतः ३६५ दिन के दिन का उषा काल १५ दिन से कुछ अधिक होगा। उत्तरायण आरम्भ होने पर ही भीष्म ने देह त्याग किया था। मूलतः यह भीष्म निर्वाण दिवस था। पहले उत्तरायण आरम्भ २५ दिसम्बर को होता था। आजकल २२ या २३ दिसम्बर को होता है।