"1772ई॰ के एकलव्यों" का अंगूठा किस द्रोणाचार्य ने काटा था? मर्कसिये इतिहासकारों?
उस दृश्य को बंगाल के नवाब द्वारा मई 1762 को ईस्ट इंडिया कंपनी को लिखे पत्र से समझा जा सकता है। "हर जिले, हर परगना, और हर फ़ैक्ट्री मे वे (कंपनी के गुमाश्ते) नमक, सुपाड़ी, घी, चावल धान का पुवाल (सूखा डंठल, जरा सोचिए क्या-क्या खरीद कर ये दरिद्र समुद्री डकैत खरीद कर यूरोप ले जाते थे)
Dr. Tribhuwan Singh | Updated on:10 Jan 2018 10:23 AM GMT
उस दृश्य को बंगाल के नवाब द्वारा मई 1762 को ईस्ट इंडिया कंपनी को लिखे पत्र से समझा जा सकता है। "हर जिले, हर परगना, और हर फ़ैक्ट्री मे वे (कंपनी के गुमाश्ते) नमक, सुपाड़ी, घी, चावल धान का पुवाल (सूखा डंठल, जरा सोचिए क्या-क्या खरीद कर ये दरिद्र समुद्री डकैत खरीद कर यूरोप ले जाते थे)
मिथक के एक एकलव्य के अंगूठा काटने को लेकर भारत मे 3000 साल की अत्याचार का रंडी रोना मचाए वामियों और दलित चिंतको, मात्र 250 साल पहले सिल्क के कपड़े बनाने वाले भारतीयों ने अपने अंगूठे खुद काट लिए।
ये भूल गए?
ये तो मिथक नहीं है न? शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली पुस्तक "जाति का अछूत इतिहास" का एक अंश:
"18वी शताब्दी मे विश्व के अन्य देशों की तरह ही, भारत मे भी सड़क या नदी से होने वाले व्यापार पर ड्यूटी लगा करती थी। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक सरकारी फरमान प्राप्त कर लिया था जिसके माध्यम से आयातित या निर्यात होने वाली वस्तुओं को टैक्स फ्री कर दिया था। अतः कंपनी द्वारा निर्यातित या आयातित किसी भी वस्तु पर टैक्स नहीं लगता था"। (रिफ्रेन्स – रोमेश दुत्त इकनॉमिक हिसटरि ऑफ ब्रिटिश इंडिया, पेज -18)
1757 मे मीर जफर को बंगाल का नवाब बनाया गया लेकिन मात्र 3 साल बाद 1760 मे उसके ऊपर असमर्थ बताकर मीर कासिम को नवाब बनाया, जिसने कंपनी को बर्धमान मिदनापुर और चित्तगोंग नामक तीन जिलों का रवेनुए तथा मीरजाफ़र पर द्वारा दक्षिण भारत मे हुये युद्ध मे कंपनी द्वारा खर्च किए गए, देय उधार धन 5 लाख रुपये कंपनी के खाते मे जमा करवाया। (रोमेश दुत्त – पेज -19)
लेकिन उसके बाद सभ्य अंग्रेजों ने जो आम जनता के द्वारा निर्मित वस्तुओं की लूट मचाई, वो किसी भी सभ्य समाज द्वारा एक अकल्पनीय घटना है।
उस दृश्य को बंगाल के नवाब द्वारा मई 1762 को ईस्ट इंडिया कंपनी को लिखे पत्र से समझा जा सकता है। "हर जिले, हर परगना, और हर फ़ैक्ट्री मे वे (कंपनी के गुमाश्ते) नमक, सुपाड़ी, घी, चावल धान का पुवाल (सूखा डंठल, जरा सोचिए क्या-क्या खरीद कर ये दरिद्र समुद्री डकैत खरीद कर यूरोप ले जाते थे)।
बांस, मछली, gunnies, अदरक, खांड (उस समय की चीनी), तंबाकू, अफीम, और अन्य ढेर सारी वस्तुयेँ, जिनको लिख पान संभव नहीं है, को खरीदते बेंचेते रहते हैं। वे रैयत (जनता) और व्यापारियों की वस्तुए ज़ोर जबर्दस्ती हिंसा और दमन करके, उनके मूल्य के एक चौथाई मूल्य पर ले लेते हैं, पाँच रुपये कि वस्तु एक रुपए मे लेकर भी वे रैयत पर अहसान करते हैं। प्रत्येक जिले के ओफिसर अपने कर्तव्यो का पालन नहीं करते और उनके दमानात्मक रवैये और "मेरा टैक्स न चुकाने के कारण मुझे प्रत्येक वर्ष 25 लाख रुपयों का नुकसान हो रहा है"। मैं उनके द्वारा किए गए किसी समझौते का न उल्लंघन करता हूँ न भविष्य मे करूंगा, तो फिर क्यूँ अंग्रेजों के उच्च अधिकारी मेरा अपमान कर रहे हैं, और मेरा निरंतर नुकसान कर रहे हैं"। ( रोमेश दुत्त पेज – 23 )
सभ्य बनाने आए ईसाईयों के नैतिक ऊंचाई को आप इस एक उद्धरण से ही माप सकते हैं।
यही बात ढाका के कलेक्टर महोम्मद अली ने कलकत्ता के अंग्रेज़ गवर्नर को 26 मई 1762 में लिखा "पहली बात तो ये है कि व्यापारियों ने फ़ैक्टरी मे रुचि दिखा रहे हैं और अपने नावों पर अंग्रेजों का झण्डा लगाकर अपने को अंग्रेजो का समान होने का दिखावा करते हैं, जिससे कि उनको duty न देना पड़े। दूसरी बात ढाका और लकीपुर की फ़क्टरियाँ व्यापारियों को तंबाकू सूती कपड़े, लोहा और अनेक विविध वस्तुओं को बाज़ार से ज्यादा दामों मे खरीदने का प्रलोभन देते हैं, लेकिन बाद मे जबर्दस्ती वो पैसा उनसे छीन लेते हैं; वे व्यापारियों को पैसा एडवांस मे देते हैं, लेकिन फिर उनके ऊपर एग्रीमंट तोड़ने का बहाना बनाकर उनके ऊपर फ़ाइन लगाते हैं। तीसरी बात लकीपुर फैक्ट्री के गुमाश्ते तहसीलदार से ताल्लूकदारों से उनके ताल्लूक (कृषि योग्य जमीन) को निजी प्रयोग के लिए जबरन कब्जा कर लेते हैं, और उसका भाड़ा भी नहीं देते। कुछ लोगों के कहने पर, कोई शिकायत होने पर वे यूरोपेयन लोगों को एक सरकारी आदेश का परवाना लेकर गावों मे जाकर उपद्रव करते हैं। वे टोल स्टेशन बनाते हैं और जो भी किसी गरीब के घर समान मिलता है उसको बैंचकर पैसा बनाते हैं। इन उपद्रवों के कारण पूरा देश नष्ट हो गया है और रैयत न अपने घरों मे रह सकते हैं और न ही मालगुजारी चुका सकते हैं। मिस्टर चवालीर ने कई स्थानों पर झूँटे बाजार और झूंठे फक्ट्रिया बनाया हैं, और अपनी तरफ से झूंठे सिपाही बनाए हैं जो जिसको चाहे उसको पकड़कर उनसे जबरन अर्थदण्ड वसूलते हैं। उनके इस जबर्दस्ती के अत्याचारों के कारण कई हाट बाजार और परगना नष्ट हो गए हैं " (रोमेश दुत्त पेज 24- 25)
"इस तरह बंगाल के प्रत्येक महत्वपूर्ण जिले के व्यापार को कंपनी के नौकरों और अजेंटों ने नष्ट किया और इन वस्तुओं के निर्माताओं को निर्दयता के साथ अपना गुलाम बनाया। उसका वर्णन एक अंग्रेज़ व्यापारी विलियम बोल्ट्स ने आंखो देखी का हाल खुद लिखा है।
"अब इस बात को सत्यता के साथ बताया जा सकता है कि वर्तमान मे यह व्यापार जिस तरह इस देश मे हो रहा है, और जिस तरह कंपनी अपना इनवेस्टमेंट यूरोप मे कर रही है, वो एक दमनकारी प्रक्रिया है; जिसका अभिशाप इस देश का हर बुनकर और निर्माता भुगतने को मजबूर है, प्रत्येक उत्पाद को एकाधिकार मे बदला जा रहा है; जिसमें अंग्रेज़ अपने बनियों और काले गुमाश्तों के मदद से, मनमाने तारीके से यह तय करते हैं कि कौन निर्माता किस वस्तु का कितनी मात्रा मे, और किस दर पर निर्मित करेगा... गुमाश्ते औरंग या निर्माताओं के कस्बे में पहुँचने के बाद वो एक दरबार लगाता है जिसको वह अपनी कचहरी कहता है; जिसमें वो अपने चपरासी और हरकारों की मदद से दलाल और पयकार और बुनकरों को बुलाता है, और अपने मालिक द्वारा दिये गए धन मे से कुछ पैसा उनको एडवांस मे देता है और उनसे एक एग्रीमेंट पर दस्तखत करवाता है जिसके तहत एक विशेष प्रॉडक्ट, एक विशेष मात्रा मे, एक विशेष समय के अंदर डेलीवर करना है। उस मजबूर बुनकर की सहमति आवश्यक नहीं समझी जाती है; और ये गुमाश्ते, जो कंपनी के वेतनभोगी थे, प्रायः इस तरह के एग्रीमेंट उनसे अपने मन मुताबिक करवाते रहते थे; और यदि बुनकरों ने ये एडवांस रकम स्वीकार करने से इंकार किया तो उनको बांधकर शारीरिक यातना दी जाती है.... कंपनी के गुमाश्तों के रजिस्टर मे बहुत से बुनकरों के नाम दर्ज रहते थे, जो किसी दूसरे के लिए काम नहीं कर सकते थे, और वे प्रायः एक गुलाम की तरह एक गुमाश्ते से दूसरे गुमाश्ते के हाथों तब्दील किए जाते रहते हैं, जिनके ऊपर दुष्टता और अत्याचार हर नए गुमाश्ते के हाथों बढ़ता ही जाता है... इस विभाग मे जो अत्याचार होता है वो अकल्पनीय है; लेकिन इसका अंत इन बेचारे बुनकरों को धोखा देने मे ही होता है; क्योंकि गुमाश्तों और जांचकारो (कपड़े की क्वालिटी जाँचने वाला) द्वारा जो दाम उनके प्रोडक्टस का तय किया जाता था वो कम से कम बाजार के दाम से 15 से 40 % कम होता है.... बंगाल के बुनकरों के साथ, कंपनी के एजेंटों द्वारा जबर्दस्ती किए गए इन एग्रीमेंट्स को पूरा न करने की स्थिति मे, उनके खिलाफ मुचलका जारी किया जाता था, उसके तहत उनके सारे सामान (कच्चा और पक्का माल) उस एग्रीमेंट की भरपाई के लिए कब्जा कर लिया जाता है और उसी स्थान पर उनको बेंच दिया जाता है; कच्चे सिल्क को कपड़ों मे बुनने वाले लोगों के, जिनको Nagoads कहते हैं, उनके साथ भी इसी तरह का अन्याय होता है, और ऐसी घटनाए आम बात हैं जिसमे उन्होने जबर्दस्ती सिल्क के कपड़े बनाने की मजबूरी से बचने के लिए अपने अंगूठे काट लिए। (and the winders of raw silk , called Nagoads, have been known of their cutting off their thumbs to prevent their being forced to wind silk) (Ref: Consideration on India affairs (London 1772), p 191 to 194 : from Romesh Dutt ; Economic History of British India , page 25-27)
©त्रिभुवन सिंह
जिग्नेश पढ़ ले बे।