कला बनाम संस्कृति : फ्रैकफर्ट स्कूल की नजर में

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कला बनाम संस्कृति : फ्रैकफर्ट स्कूल की नजर में
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Frankfurt School-Institute of Social Research, University of Frankfurt 1923

1923 में कुछ वामपंथी विचारकों, सांस्कृतिक आलोचकों और समाजशास्त्रियों ने मिलकर फ्रैकफर्ट में Institute of Social Research की स्थापना की जिसे हम फ्रैंकफर्ट स्कूल के नाम से जानते हैं। इस संस्थान की स्थापना उन थ्योरी वीरों ने की थी जो मार्क्स की भविष्यवाणी फेल हो जाने से सदमे में थे। इनका अटल विश्वास था कि मार्क्सवादी थ्योरी के हिसाब से सबसे पहले जनवादी क्रांति जर्मनी में होनी चाहिए थी। दुखद! सर्वहारा ने बाजी मार ली रूस में। और जब थ्योरी के हिसाब से जर्मनी में सर्वहारा की सत्ता होनी चाहिए तो नाजी कहां से प्रकट हो गए? इनका इतिहास और काल बोध मार्क्स से परे नहीं देख सकता था। प्रथम विश्व युद्ध और वर्साई की संधि कुछ ऐसी मामूली दुर्घटनाएं थीं जो इस लायक नहीं थीं कि उन पर ध्यान दिया जाए। जो चीज उन्हें बेचैन किए रही वो यह कि जर्मनी जिसे सबसे पहले जनवादी क्रांति का अमृत पीना चाहिए था, वह चूक कैसे गया? समाधान स्वरूप उन्होंने "क्रिटिकल थ्योरी" गढ़ी और कहा, सारा दोष मीडिया का है। रूसी मीडिया सर्वहारा के साथ था पर जर्मनी में उनकी मति भ्रष्ट हो गई थी, यहां मीडिया सत्ता के साथ हो गया। अब समझ सकते हैं कि मीडिया में वर्चस्व वामपंथियों के लिए जीवन-मरण का सवाल क्यों है?


सांस्कृतिक वामपंथ की शब्दावली और व्याकरण गढ़ने में फ्रैंकफर्ट स्कूल का योगदान अनन्य है। हम इनकी पोलिटिकली करेक्ट लैंग्वेज पर बहस करते रहे पर जो असल चीज नजर से चूक गई, वह है कला और संस्कृति पर उनके उच्च विचार। कला व संस्कृति की उनकी इस अवधारणा में वह सार तत्व छिपा है जो अब भी ओझल है। जबकि यही वो चीज थी जिसने वाम के चाल-चरित्र को तय किया और हम वामपंथी बहेलियों के जाल में फंसे हाथ पैर मार रहे हैं।
फ्रैंकफर्ट स्कूल की राय में कला व संस्कृति एक नहीं बल्कि दो धुर विरोधी चीजें हैं। उनके अनुसार ये दोनों युद्धरत हैं। संस्कृति सैकड़ों हजारों साल से चली आ रही मान्यताओं व परंपराओं का समुच्चय है। एक गतिशील सांस्कृतिक समाज में भी कुछ चीजें सर्वस्वीकृत-सर्वमान्य होती हैं तो कुछ का सर्वथा निषेध। फ्रैंकफर्ट स्कूल की नजर में जहां का समाज अपनी सांस्कृतिक परंपराओं में रूढ़ और आबद्ध हो, वहां जनवादी क्रांति की संभावनाएं नगण्य हैं। इसलिए वामपंथियों के लिए एक सांस्कृतिक समाज रूढ़, ठहरा हुआ और आदिम है। इसके मुकाबले कला एक रचनात्मक आवेग है इसलिए जरूरी नहीं कि यह सांस्कृतिक मान्यताओं के दायरे में ही हो। यह उससे परे भी जा सकती है, उसका अतिक्रमण और अवमानना भी कर सकती है। इसलिए यह आधुनिक (मार्क्सवादी पढ़ें) है।
तो इसीलिए वामपंथियों के लिए कला पवित्र है और संस्कृति पागान (आदिम)। हमारी सहस्राब्दियों से अनवरत जारी और जीवंत सांस्कृतिक यात्रा इनकी नजर में आदिम है और इसलिए त्याज्य है। यही कारण है कि सनातन संस्कृति हमेशा इनके निशाने पर रहती है और कला का उत्सव मनाया जाता है। इसीलिए वे जातीय, क्षेत्रीय-भाषाई सांस्कृतिक फाल्टलाइनों की अनवरत खोज में रहते हैं। तो मां दुर्गा की उपासना-आराधना करने वाला हिंदू आदिम है तो उनका नंगा चित्रण करने वाला दोटकिया इंकलाबी कलाकार हो जाता है।
हिंदू सभ्यता पर इन इंकलाबी कलाकारों (आजकल ये खुद को संस्कृति कर्मी कहने लगे हैं- एक और धोखा) के सतत हमलों और हमलावरों के महिमामंडन को वामपंथियों के कला बनाम संस्कृति के युद्ध के संदर्भ में ही समझें। जब तक हमारी संस्कृति प्राणमान रहेगी, तब तक उनके रास्ते बंद रहेंगे। संस्कृति ध्वस्त हो जाएगी तो जीत के नगाड़े बजाते जड़ों से उखड़े कलाकार जलवे दिखाएंगे।
"ज्यादा कलाकार मत बनो", ये हम कई बार आजमगढ़ और बनारस में अपने वरिष्ठों से सुन चुके हैं। बात अब समझ में आई।

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