खण्डन – संस्कृत से पुरानी प्राकृत भाषा
सपष्ट है कि वैदिक संस्कृत से उत्पन्न लौकिक संस्कृत में इन सभी शब्दो से शुरू होने वाले श्लोक और शब्द है जिससे सिद्ध होता है कि प्राकृत भाषा से प्राचीन संस्कृत है।। अब प्रश्न उठता है कि वैदिक संस्कृत में इन शब्दों का प्रयोग क्यों नही मिलता है आइये देखते है।।
अजेष्ठ त्रिपाठी | Updated on:20 Dec 2017 10:29 PM IST
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सपष्ट है कि वैदिक संस्कृत से उत्पन्न लौकिक संस्कृत में इन सभी शब्दो से शुरू होने वाले श्लोक और शब्द है जिससे सिद्ध होता है कि प्राकृत भाषा से प्राचीन संस्कृत है।। अब प्रश्न उठता है कि वैदिक संस्कृत में इन शब्दों का प्रयोग क्यों नही मिलता है आइये देखते है।।
आप लोगो को हमेशा सुनने को मिलता होगा कि संस्कृत भाषा से भी पुरानी भाषा प्राकृत भाषा है इसके पीछे एक तर्क दिया जाता है --
चारों वेद की कोई 22443 ऋचाओं में से एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो ट, ठ, ड, ढ से आरंभ होता है, जबकि प्राकृत भाषाओं में ट, ठ, ड, ढ से आरंभ होनेवाले शब्दों की संख्यार सैकड़ों है।
यदि वैदिक भाषा ही प्राकृत भाषाओं का भी स्रोत है तो फिर वैदिक शब्दावली से एकदम अलग ट, ठ, ड, ढ से आरंभ होनेवाले इतने सारे शब्द प्राकृत भाषाओं में कहाँ से आए हैं?
आइये इसका खंडन करते है -
खंडन से पूर्व कुछ संस्कृत के वो श्लोक देख लेते है जो
ट, ठ, ड, ढ से शुरू होते है --
ट से शुरू - टंङकैर्मन शिलगुहेव - मृच्छकटिक 1/20
टकि बंधने - धातुपाठ 10/105
टल वैक्लव्ये -धातुपाठ 1/156
ठ से शुरू - ठालिनी - शिवराम वामन आप्टे कोष 413
ड से शुरू - डम्बयामस ... - रघुवंश 4/17
डप संघाते - धातु. 10/147
ढ से शुरू - ढूढि अन्वेषणे -धातुपाठ 1/74
सपष्ट है कि वैदिक संस्कृत से उत्पन्न लौकिक संस्कृत में इन सभी शब्दो से शुरू होने वाले श्लोक और शब्द है जिससे सिद्ध होता है कि प्राकृत भाषा से प्राचीन संस्कृत है।। अब प्रश्न उठता है कि वैदिक संस्कृत में इन शब्दों का प्रयोग क्यों नही मिलता है, आइये देखते है -
वैदिक संस्कृत की भाषा यौगिक है इसमें वही शब्द पाए जाते है जिनके अनेक अर्थ निकल सके किसी एक अर्थ सीमा में इसके शब्द बंधे नही होते है। अत: वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में स्पष्ट भेद है - "तदव्यावर्तयति दैवी च मानुषी च" - ऐ.आ. 1/3/6
दूसरी बात वैदिक संस्कृत में 63 अक्षर है और पाली में 43 है जो निम्न सूत्र से सिद्ध है -
पालि में अक्षरों की गणना के बारे में मौदग्लायं लिखता है - "अआदयो तितालीसवण्णा - १/१ मोद्ग्लायन व्याकरण
अर्थात अ, आ आदि ४३ वर्ण पालि में है। श, ष ये दो पालि में नही है। इसलिए पालि में ईश्वर के स्थान पर "ईस्सर" लिखा जाता है। लेकिन संस्कृत में यह श, ष, स तीनों होते हैं।
जिस तरह ये आक्षेप लगाया जाता है कि प्राकृत भाषाओं में ट, ठ, ड, ढ से आरंभ होनेवाले शब्दों की संख्याे सैकड़ों है और वैदिक साहित्य में ये शब्द है ही नही उसी प्रकार वैदिक संस्कृत और संस्कृत के ई, ऐ, श, ष, ऋ आदि शब्द पाली प्राकृत में नही पाए जाते हैं ऐसे अन्य शब्द और भी हैं जो प्राकृत भाषा मे नही मिलते हैं तो प्राचीन पाली है वो भी उपरोक्त आधार पर ये सरासर गलत है।।
तो प्राकृत भाषा किससे और कैसे बनी ?
वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत बनी और लौकिक संस्कृत से प्राकृत पाली आदि बनी लेकिन कुछ शब्द प्राकृत पाली वालों ने संस्कृत से भिन्न अपने गढ़ लिए जिन्हें देशज शब्द कहते हैं "तदभव: तत्समो देशी त्रिविध: प्राकृतकम" - हरिपाल कृत गौड़वहो टीका पृष्ठ 71 अर्थात प्राकृत में संस्कृत से विकृत, संस्कृत सदृश और स्थानीय (देशज) शब्द होते हैं। जो शब्द प्राकृत पाली में संस्कृत भिन्न मिलते हैं वो परिकल्पित देशज शब्द हैं।
जैसे एक आसान सा उदाहरण देता हूँ --
उत्तर प्रदेश की राजधानी 'लखनऊ' है जिसे बरेली मुजफ्फरनगर के आसपास के लोग 'नखलऊ' बोलते हैं यानी विकृत स्थानीय भाषा मे अपने हिसाब से एक नया वाक्य बना लिया 'ल' की जगह 'न' ऐसे ही लौकिक संस्कृति से पाली का जन्म हुआ अब संस्कृत से अपभ्रंश शब्दों के कुछ उदाहरण देखते हैं -
प्राकृत को संस्कृत से न मानने वाले अधिकतर व्यक्ति जिस नामिसाधू का उल्लेख करते हैं वो भाषा को पशु पक्षी से बताते हुए भी अनेको शब्दों की व्युत्पति संस्कृत के शब्दों से ही बताता है-
मागधी में संस्कृत के 'स' के स्थान पर 'श' कर कुछ शब्द बना लिए गये – जैसे 'सामवेद' से 'शामवेद' इस पर नामिसाधू श्लोक 12 में व्याख्यात है – "रसयोर्लशौ मागधिकायाम"
अर्थात 'र' के स्थान पर 'ल' और 'स' के स्थान पर 'श' अर्थात संस्कृत में पुरुष शब्द 'ष' का 'ल' विकार हो मागधी प्राकृत में – पुलिश हो गयी ।
निष्कर्ष -- प्राकृत भाषा संस्कृत से बहुत बाद कि है जो लौकिक संस्कृत से बनी है जबकि लौकिक संस्कृत से भी प्राचीन वैदिक संस्कृत है।। प्रकृति से बनी चीज़ें प्राकृत कहलाती हैं। अर्थात प्राकृत मूल तत्व नही होती उसका मूल प्रकृति होती है। घट की प्रकृति मृदा है। इसी तरह प्राकृत नामक भाषा स्वयम मूल न हो कर किसी अन्य प्रकृति की प्राकृत है। जैसे द्रव्य की प्रकृति द्रव्य है उसी तरह भाषा की प्रकृति भाषा है। सभी प्राचीन संस्कृत प्राकृत व्याकरणकार इस बात पर एक मत हैं कि प्राकृत की प्रकृति संस्कृत है अर्थात प्राकृत संस्कृत से निकली है।। -
प्रसिद्ध जैन व्याकरणकार हेमचन्द्र लिखता है –
"प्रकृति: संस्कृतं | तत भव तत आगतं वा प्राकृतं" - हेम.प्रा. १/१
अर्थात प्राकृत की प्रकृति संस्कृत है इस संस्कृत से प्राकृत निकली।।
विशेष --
अब इंग्लिश को ही ले लीजिए अंग्रेजी भाषा में टकार से शुरू होने वाले अनेक शब्द है जैसे - टीचर, ट्री, टॉय इत्यादि अब कौन विद्वान मानेगा कि अंग्रेजी वैदिक वाक् से पूर्व प्रकट हुआ? इसलिए शुरू होने वाले अक्षरों से आप किसी भाषा के पूर्व या अंत का निर्णय नही कर सकते हैं।।
शिलालेखों से भी किसी प्राकृतभाषा को प्राचीन बताने वाले असफल हैं - जैन ग्रन्थ पन्नवणासूत्र में 18 लिपियों के नाम हैं - बन्भी, जवणालि, दोसापुरिया, खरोट्ठी, पुक्खरसारिया, भोगवइया, पहरैया, उपअन्तरिक्खिया, अक्खपिट्टीया, माहेसरी आदि इसी तरह बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तार सुत्त में 64 लिपियों का उल्लेख है - ब्राह्मी, खरोष्टि, अंग, वंग, पुष्कर, उग्रलिपि, ब्रह्मवल्लीं, देवलिपि, नागलिपि, असुरलिपि, शास्त्रावर्त लिपि, ऋषितपस्तप्तलिपि आदि। अब क्या दुनिया का कोई भी भाषा वैज्ञानिक मुझे जैन ग्रन्थ में लिखी 18 लिपियों और बौद्ध ग्रन्थ में लिखी 64 लिपियों को मिलाकर कुल 82 लिपियों के शिलालेख या प्राचीन अभिलेख दिखा सकते है? इसका उत्तर होगा मात्र 10-12 के भी मुश्किल से दिखा पायेंगे उनमें से भी अधिकाँश ब्राह्मी और खरोष्टि के.. और बाकी लिपियों के एक भी अक्षर का कोई शिलालेख दिखा ही नही सकता है।
सोर्स -
ऋग्वेद (मूल )
धातुपाठ - पाणिनि
पालि व्याकरण - भिक्षु धर्मरक्षित
महाभाष्य - अनुवादक पंडित चारुदत्त शास्त्री
ऐतरेय आरण्यक - अनुवादक जमुनादास पाठक