हिंदू रणनीतिक संस्कृति

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पिछले दो-चार दशकों में अध्ययन की एक नई विधा ने जोर पकड़ा है और वह है रणनीतिक संस्कृति (strategic culture)। यह मूलत: इस बात का अध्ययन है कि युद्ध के लिए किस देश का समाज कितना तत्पर है और किस तरह से लड़ता है और वहां की सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था इसमें कितनी सहायक होती है। यहां कल्पनाशीलता की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। यह विधा इतिहास, भूगोल, समाज, राजनीतिक व्यवस्था और युद्धों के परिणाम का निचोड़ है। मसलन रूस को लें। भौगोलिक, राजनीतिक व्यवस्था व सामाजिक ढांचा ऐसा है कि रूस को युद्ध को लिए हमेशा तत्पर और तैयार रहना होगा। इतना बड़ा महादेश और कोई भौगोलिक सुरक्षा नहीं सिवाय बर्फ के। माने आप वारसा या कीव से घोड़े पर बैठकर पूरा रूस पार कर लें और काबुल होते हुए लाहौर और दिल्ली पहुंच जाएं। बीच में न कोई समंदर, न कोई हिमालय जैसा पहाड़ मिलेगा। बस ठंड से निपटना है। इसलिए रूस को अपनी सीमाओं के सतत विस्तार की जरूरत है ताकि मुख्यभूमि यानी रशियन कोर सुरक्षित रहे। इसीलिए रूस किसी भी युद्ध में अपने 100 प्रतिशत आदमी और संसाधन झोंक देता है जो किसी और देश के लिए संभव नहीं। तभी तो रूस ने जैसे ही ट्रांस साइबेरियन रेलवे लाइन बनाई, जियोपालिटिक्स के जनक सर हालफोर्ड एस मैककाइंडर के दिमाग में खतरे की घंटी बज गई। उन्होंने लिखा कि यह पूरी लोकतांत्रिक दुनिया के लिए खतरा है क्योंकि रूसी कम्युनिस्ट सेना अब चीन की सीमा से लेकर से लेकर तुरत फुरत पश्चिमी यूरोप के गेट तक पहुंच सकती है।
इसके मुकाबले दूसरों को देखें। रूस के पड़ोस में पोलैंड है जहां ठाकुर रहते हैं। बड़े सूरमा हैं पर गदहा किस्म के। समर्पण करना नहीं सीखे, मरना जानते हैं लेकिन लड़ना नहीं सीख पाते। तो जहां तोप से गोले दागे जा रहे हों वहां वो घुड़सवार सेना (कैवेलरी) लेकर मुकाबला करने पहुंच जाते थे। पड़ोस में रोमानिया भी है जो पोलों के ठीक विपरीत हैं। शुद्ध सेकुलर भारतीय हैं। वो बस हवा के रुख के साथ चलते हैं पर कभी कभार हवा का रुख पढ़ने में भी गलती कर बैठते हैं (कांग्रेसी मार्का निरपेक्ष उदासीनता)। फिर रूस का एक और पड़ोसी जर्मनी है। ये युद्धकला के पंडित हैं। बहुत पहले से युद्ध को उन्होंने लड़ाई झगड़े के बजाय विज्ञान के रूप में लिया। शांतिकाल में भी पड़ोसी देशों के भौगोलिक सर्वे करते रहे कि हमारी फौज कहां से घुसे, कहां मोर्चेबंदी करे, कहां हमला करे। मैककाइंडर की थ्योरी से पहले ही वे जियोपालिटिक्स को युद्धकला का रूप दे चुके थे। इनकी एकता उम्मा को भी मात देती थी। फिलहाल हमारे जैसे हो चुके हैं। उनका पड़ोसी फ्रांस है जो एक अलग नमूना है। फ्रेंच गर्वीले हैं, शूरवीर हैं, तकनीकी रूप से निष्णात हैं, युद्धकला भी जानते हैं पर लोच की कमी है। संकट में फंसने पर गद्दारों की संख्या भी बढ़ जाती है। वो आमने-सामने के युद्ध की बहादुरी से बाहर नहीं निकल पाए। सो प्रथम विश्वयुद्ध में जब मशीनगन जैसे हथियारों का अविष्कार हो चुका था, तब भी वे अपने बंकर जर्मनों के दस-बीस सामने ही बनाते रहे। बहुत बड़ी कीमत चुकाने के बाद गलती समझ में आई।
एक और खिलाड़ी इंग्लैंड है जहां बस योगी रहते हैं। युद्ध में उन्हें कोई उत्तेजना नहीं होती। संयम-अनुशासन उनकी रगों में है। परेड वाली नहीं बल्कि सांस्कृतिक एकजुटता है वहां। ना किसी को धमकाते हैं, ना किसी से डरते हैं। ध्यानमग्न होकर युद्ध करते हैं। गीता पढ़े बिना वे इसका रहस्य जानते हैं। इसलिए द्वितीय विश्वयुद्ध में महीनों तक लंदन पर बमबारी के बावजूद ना डिगे ना टूटे और आखिर में जीते।
इसमें भारत को कहां रखें। हमारी रणनीतिक संस्कृति ये है कि अपनी मौत का सामान हम हमेशा खुद ही जुटाते हैं। 1948 में जब कश्मीर में झड़पें शुरू हो चुकी थीं तब गांधी जी पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने की मांग को लेकर अनशन की धमकी दे रहे थे। उधर, यथार्थवादी लोग और फौज वाले कह रहे थे कि ये तो अपने कत्ल की सुपारी देने जैसा है। फिर 1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया लेकिन 1952 में हमने मानवीय आधार पर चीन को कलकत्ता के बंदरगाह से तिब्बत के लिए जरूरी राशन पानी की आपूर्ति की अनुमति भी दे दी। यह तिब्बत तक रसद पहुंचाने का सबसे छोटा रास्ता था जब चीनी मुख्यभूमि से ल्हासा के बीच कोई सड़क संपर्क नहीं बना था।1960 से लेकर 1962 के बीच कलकत्ता बंदरगाह से तिब्बत के बीच व्यापार में भारी वृद्धि हुई। 1962 में युद्ध से ठीक पहले चीन से कोलकाता आने वाले माल में सैकड़ों गुना बढ़ोतरी हो गई। पर भारी तनाव के उन दिनों में भी हमने यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर साबुन-तेल आ रहा है या कुछ और? चीनियों ने ठीक हमारी नाक के नीचे से कोलकाता बंदरगाह से सिक्किम के रास्ते सारी युद्ध सामग्री और रसद तिब्बत पहुंचा दी। फिर हमें पटक कर मारा। ये हिंदुओं की रणनीतिक संस्कृति है या सनातन काल से इसका अकाल?
आदर्श सिंह

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