भारतीय मानसिकता
मेरी ये पोस्ट उन पढ़े लिखे मानसिक विकलांगो को समर्पित है जो आज भी सोचते है कि, भारत एक पिछड़ा हुआ देश था, है और हम ऐसे ही वैदिक वैदिक की रट लगाते रहे तो...
अजेष्ठ त्रिपाठी | Updated on:13 Dec 2017 6:33 PM IST
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मेरी ये पोस्ट उन पढ़े लिखे मानसिक विकलांगो को समर्पित है जो आज भी सोचते है कि, भारत एक पिछड़ा हुआ देश था, है और हम ऐसे ही वैदिक वैदिक की रट लगाते रहे तो...
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मेरी ये पोस्ट उन पढ़े लिखे मानसिक विकलांगो को समर्पित है जो आज भी सोचते है कि, भारत एक पिछड़ा हुआ देश था, है और हम ऐसे ही वैदिक वैदिक की रट लगाते रहे तो आगे भी रहेगा।
पिछले दिनों एक मित्र से कुछ किताबे पढ़ने को मिली इस मामले में मैं थोड़ा लालची हूँ और आप कह सकते है कि मैं और किताबे बिल्कुल चुम्बक की तरह, इसमें से एक किताब को पढ़ने के बाद मुझे आप सच मानिए भारतीय मानसिकता पे रोना आया ये किताब थी -
भूतपूर्व राष्ट्रपति आदरणीय डॉ॰ ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम द्वारा लिखित (स्व. इसलिए नही लिखा क्योंकि मैं उन्हें अभी भी जीवित मानता हूँ) -
इण्डिया 2020 ए विजन फॉर न्यू मिलेनियम
डॉ कलाम लिखते है - मेरे घर की दीवार पर एक कैलेंडर टँगा है, इस कलरफुल कैलेंडर में सैटेलाइट द्वारा यूरोप, अफ्रीका महाद्वीपों के लिए गए बहोत से चित्र छपे हैं। ये कैलेंडर जर्मनी में पब्लिश किया गया था। जब भी कोई व्यक्ति मेरे घर में आता था तो दीवार पर लगे कैलेंडर को देखता था, तो वाहवाही जरूर करता था और प्रथम दृष्टि में उसके मुंह से निकलता था वाह! बहुत सुन्दर कैलेंडर है तब मैं कहता था कि यह जर्मनी में छपा है। यह सुनते ही उसके मन में आनन्द के भाव जग जाते थे। वह बड़े ही उत्साह से कहता था कि सही बात है, जर्मनी की बात ही कुछ और है उसकी टेक्नालॉजी बहुत आगे है।
सेम टाइम जब मैं उससे यह कहता कि कैलेंडर जरुर जर्मनी में पब्लिश किया गया है किन्तु जो चित्र छपे हैं उसे भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, तो दुर्भाग्य से कोई भी ऐसा आदमी नही मिला जिसके चेहरे पर वही पहले जैसे आनन्द के भाव आये हों। आनन्द के स्थान पर आश्चर्य के भाव आते थे, वह बोलता था कि अच्छा! ऐसा कैसे हो सकता है? और जब मै उसका हाथ पकड़कर कैलेंडर के पास ले जाता था और जिस कम्पनी ने उस कैलेंडर को छापा था, उसने नीचे अपना कृतज्ञता ज्ञापन छापा था ''जो चित्र हमने छापा है वो भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, उनके सौजन्य से हमें प्राप्त हुए हैं।'' जब व्यक्ति उस पंक्ति को पढ़ता था तो बोलता था कि अच्छा! शायद, हो सकता है।
डॉ कलाम इस भारतीय मानसिकता को लिखते हुए वाकई दुखी थे क्योंकि इस पूरे लेखन में इस पेज पर उनका दुःख आप सपष्ट महसूस कर सकते है।
डॉ॰ कलाम लिखते है कि -
दुनिया के कुछ वैज्ञानिक रात्रिभोज पर आये हुए थे (तब डॉ कलाम सिर्फ वैज्ञानिक थे), उसमें भारत और दुनिया के कुछ वैज्ञानिक और भारतीय नौकरशाह थे। उस भोज में विज्ञान की बात चली तो राकेट के बारे में चर्चा चल पड़ी। डॉ॰ कलाम नें उस चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि कुछ समय पूर्व मैं इंलैण्ड गया था वहाँ उन्हें बुलिच नाम की जगह पे रोटुण्डा नामक म्युजियम घूमने का सौभाग्य मिला। जिसमे पुराने समय के युध्दों में जिन हथियारों का प्रयोग किया गया था, उसकी प्रदर्शनी भी लगायी गयी थी। वहाँ उन्होंने देखा कि एक रॉकेट का खोल रखा गया था और जब उन्होंने उसका डिस्क्रिप्शन पढ़ा तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ उसपे लिखा था पर आधुनिक युग में छोड़े गये प्रथम राकेट का खोल। और आपको जानकर आश्चर्य होगा इसका प्रयोग भारतीय सेना (तत्कालीन टीपू सुल्तान की सेना) ने श्रीरंगपट्टनम के युद्ध मे टीपू सुल्तान और अंग्रेजों की लड़ाई में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इस्तेमाल किया था ।
इस प्रकार आधुनिक युग में प्रथम राकेट का प्रक्षेपण भारत नें किया था।
डॉ. कलाम लिखते हैं कि, जैसे ही मैने यह बात कही एक भारतीय नौकरशाह बोला मि. कलाम! आप गलत कहते हैं, वास्तव में तो फ्रेंच लोगों ने वह टेक्नोलॉजी टीपू सुल्तान को दी थी। डॉ. कलाम नें कहा ऐसा नही है, आप गलत कहते हैं! मैं आपको प्रमाण दूंगा। और सौभाग्य से वह प्रमाण किसी भारतीय का नही था, नही तो कहते कि तुम लोगों ने अपने मन से बना लिया है (भारतीय मानसिकता)। एक ब्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लावेल ने एक पुस्तक लिखी थी --
''द ओरिजन एण्ड इंटरनेशनलइकोनॉमिक्स ऑफ स्पेस एक्सप्लोरेशन''
उस पुस्तक में वह लिखते हैं कि 'भारतीय शासक टीपू सुल्तान और अंग्रेजी हुकूमत के बीच हुए युध्द में जब भारतीय सेना नें राकेट का उपयोग किया तो एक ब्रिटिश वैज्ञानिक विलियम कांग्रेह्वा ने राकेट का खोल लेकर अध्ययन किया और उसकी नकल करके एक राकेट बनाया। उसने उस राकेट को 1805 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट के सामनें प्रस्तुत किया और उन्होने इसे सेना में प्रयुक्त करनें की अनुमति दी।' जब नैपोलियन के खिलाफ ब्रिटेन का युध्द हुआ तब ब्रिटिश सेना नें राकेट का प्रयोग किया।अगर फ्रेंचो के पास वह टेक्नोलॉजी होती तो वे भी सामने से राकेट छोड़ते, लेकिन उन्होने नही छोड़ा। जब यह पंक्तियाँ डॉ. कलामनें उस नौकरशाह को पढ़ाई तो उसको पढ़कर भारतीय नौकरशाह बोला, बड़ा दिलचस्प मामला है। डॉ. कलाम नें कहा यह पढ़करउसे गौरव का बोध नही हुआ बल्कि उसको दिलचस्पी का मामला लगा।
ये दो उदाहरण आपको मैंने भारतीय मानसिकता समझने के लिए दिये , भारत आज भी विश्वगुरु बन सकता है लेकिन उसके लिए हमे अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा।
विशेष -
बात मानसिकता की करते है - यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि जिस ब्रिटिश वैज्ञानिक नें नकल कर के राकेट बनाया उसे इंलैण्ड का बच्चा-बच्चा जानता है,किन्तु जिन भारतीय वैज्ञानिकों ने भारत के लिए पहला राकेट बनाया उन्हे कोई भारतीय नही जानता। यह पूरी तरह से प्रदर्शित करता है कि हम क्या पढ़ रहे हैं? और हमे क्या पढ़ना चाहिए? जबतक प्रत्येक भारतीय पश्चिम की श्रेष्ठता और अपनी हीनता के बोध की प्रवृत्ति को नही त्यागता तब तक भारत विश्व के सर्वोच्च शिखर पर नही पहुँच सकता। ऐसे में हमे आवश्यकता है यह जानने की कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत नें इस विश्व को क्या दिया। इसके बारे में बताने के लिए सर्वप्रथम भारत की प्राचीन स्थिति को स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि प्राचीन भारत के प्रतिमानों के नकारने के कारण हम वर्तमान में पश्चिम की नकल करने पर मजबूर हैं। जबकि हमारे प्राचीन ज्ञानों का नकल एवं शोध करके पश्चिम, विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर विराजमान है।