मैं नंदी : अंतहीन प्रतीक्षा का प्रतीक

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सदियों पुरानी नंदी की मूर्तियाँ, जो मोनोलिथिक सोपस्टोन से तराशी गई हैं, मेसुरु के पास अरासिनकेरे में एक सूखी झील के तल से निकली हैं।

मैं नंदी

प्रतीक्षा का प्रतीक हूँ

अनंतकाल से ही,

भक्ति - प्रतीक्षा का आदर्श रूप जो है।

अंतहीन प्रतीक्षा ही तो है - यह जीवन।

जो होना है, उसके हो लेने में

समय है अभी जिसकी ख़ातिर

जिए जा रहे हैं, बीते जा रहे हैं हम

बहे जा रहे हैं, समय के साथ

नदी की तरह।


नदी की प्रतीक्षा समुद्र तक की

समुद्र की चाँद तक की।

चाँद की प्रतीक्षा

भिन्न कलाओं में

अपने परिणति की।

और उन्हीं घटती, बढ़ती कलाओं में

पूर्ण हो लेने की।


मैं नंदी
प्रतीक्षा की पूर्णता का प्रतीक हूँ।
मुझे कहीं नहीं जाना
कहीं नहीं पहुँचना
बस, बैठ जाना है
चौखट पर
कि पूर्णता
दीप, दिए, धूप की खुशबू
बेल और गंगा जल की धार पर है।

मेरे आराध्य की नगरी काशी का

मैं वह नंदी हूँ

जिसकी प्रतीक्षा की पूर्णता पर

न जाने कितने ही प्रश्नचिन्ह हैं।

मैं क्यों हूँ यहाँ

मैं उठ क्यों नहीं जाता

मैं यहाँ से उठ कर बीत जाना चाहता हूँ

पर उठता नहीं, जाता नहीं

मैं नंदी - शाश्वत प्रतीक्षा हूँ।

मेरी भक्ति बीतता समय नहीं

सत्य का अखण्डित अंश जो है।


इस युग ने

मेरी भक्ति को खण्डित कर देने को

खींच रखी हैं दीवारें

सामने मेरे

न धूप है, न दीप

न ही मेरे आराध्य का धाम।


यह वह युग है

जहाँ खण्डित कर दी गई है

मेरी प्रतीक्षा भी।

वह युग

जहाँ बाँध दी जाती है गंगा की धार भी।

यह वो युग है

जो प्रश्न करेगा अनगिनत

मेरे आराध्य के प्रेम पर

उनके रहस्य बने रहने पर।

संदेह करेगा मेरी भक्ति

और गंगा की शक्ति पर भी।


मैं इस युग की

वह स्थापित चुनौती हूँ

जो मेरी स्थिर प्रतीक्षा से विचलित

अपने प्रश्नों के उत्तर की खोज़ स्वयं करेगा।

विचलित होगा

अपने अस्तित्व में समाहित करने को

मेरे आराध्य पर, मेरी जैसी भक्ति।

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