शिया मुस्लिम और भारत

  • whatsapp
  • Telegram
  • koo

एक दिन पहले (26/05/18) जब मैंने इस आशय की एक, किंचित विवादास्पद और प्रोवोकेटिव, पोस्ट लिखी कि वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार को 2019 के लोकसभा चुनाव में यह निश्चय कर लेना चाहिए कि उसे "आतंकवाद" के वोट नहीं चाहिए और उसे ध्रुवीकरण पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तो उस पर अनेक भली-बुरी प्रतिक्रियाएं आईं। सभी को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है, उस पर मैं अधिक नहीं कहूंगा।

किंतु उस पोस्ट के भीतर एक बहुत दिलचस्प विमर्श उभरकर सामने आया। मेरे एक बहुत दानिशमंद मित्र ने कहा कि कट्‌टरपंथी जिहादी सोच को सभी भारतीय मुस्लिमों पर लाद देना उचित नहीं है, ख़ासतौर पर इसलिए, क्योंकि शिया मुस्लिम तुलनात्मक रूप से उदारमना और भारत-समर्थक होते हैं। मित्र के ठीक-ठीक शब्द ये थे- "वहाबी व्याख्या को इस्लाम पर सुपरइम्पोज़ करके हम शिया धड़े के अस्तित्व को ही प्रश्नांकित करते हैं।"

अव्वल तो मैंने उस पोस्ट में किसी समुदाय का नाम नहीं लिया था, फिर भी उनके सहित अनेक मित्रों ने समुदाय की शिनाख़्त "इस्लाम" के रूप में की। यह उनकी निजी व्याख्या हो सकती है। किंतु इसी बहाने हमें इस्लाम के भीतर शिया धड़े के अस्तित्व पर बात करने का जो अवसर मिला है, उसे क्यों चूकना चाहिए?

यह सच है कि शियाओं को इस्लाम के भीतर मौजूद एक "लिबरल फ्रैक्शन" माना जा सकता है। इसलिए भी, क्योंकि वे उग्र माने जाने वाले सुन्नियों की तुलना में अल्पसंख्यक हैं। मध्य-पूर्व में ही सुन्नी बहुल अरब मुल्कों के बीच एक अकेला ईरान शिया बहुल है। लेबनॉन भी शिया बहुल है। और यह भी एक आम धारणा है कि वैश्विक संस्कृति में इस्लाम का जो भी योगदान है, उसमें फ़ारसी शियाओं का अहम हिस्सा रहा है। भारत में भी मुख्यधारा में सक्रिय अधिकतर मुस्लिम शिया ही रहे हैं।

वैसे एक सीमा तक इस बात को स्वीकार किया जा सकता है कि हमें सभी भारतीय मुस्लिमों को "मोनोलिथिक" या एकरूप कट्‌टर तबक़े के रूप में नहीं देखना चाहिए और अपने निर्णयों में किंचित सतर्क रहना चाहिए। फ़ाइन!

अब हम ज़रा शिया मुस्लिमों की बात करें, चूंकि बात निकली है तो:

नादिरशाह दुर्रानी शिया था। भारत पर हुए असंख्य हमलों में कोई भी इतना दुर्दांत, क्रूर और निर्मम नहीं था, जैसा नादिरशाही हमला था।

ईरान में अयातुल्लाह ख़ोमैनी शिया था। उसके द्वारा स्थापित ख़ूंख़्वार "हिज़बुल्ला" शिया संगठन और आंदोलन था। ईरान में कट्‌टरपंथी इस्लामिक हुक़ूमत की स्थापना करने वाला ख़ोमैनी सलमान रूश्दी के ख़िलाफ़ सिर क़लम का फ़तवा जारी करके सुर्ख़ियों में आया था। प्रसंगवश आप यह भी पता कर सकते हैं ईरान और लेबनॉन का नम्बर "ह्यूमन राइट्स इंडेक्स" में दुनिया में किस पायदान पर है? ये शिया मुल्क़ हैं, साहेबान। द सो कॉल्ड लिबरल फ्रैक्शन ऑफ़ इस्लाम!

और आगे बात करें तो भारत-विभाजन का प्रणेता मोहम्मद अली जिन्ना ख़ुद शिया था!

पाकिस्तान की मरहूम वज़ीरे-आज़म बेनज़ीर भुट्‌टो शिया थीं। अगर आपको लगता है कि ज़िया उल हक़ और अयूब ख़ान की तुलना में बेनज़ीर भुट्‌टो ज़्यादा लिबरल थीं तो मैं आपको बता दूं कि कश्मीर में सीमापार आतंकवाद की जन्मदात्री मोहतरमा बेनज़ीर ही थीं और कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन के लिए बेनज़ीर का बयान था, हम जगमोहन के इतने टुकड़े करेंगे कि वे "जग जग मो मो हन हन" हो जाएंगे। ऑक्सफ़र्ड और हार्वर्ड में पढ़ी-लिखी एक लिबरल शिया महिला की यह भाषा है, ख़्वातीनो-हज़रात!

भारत की बात करें तो साहेबान आपके प्रिय ओवैसी बंधु शिया मुस्लिम ही हैं

भारतीय मुस्लिमों में बड़ा प्रतिशत सुन्नियों का है, जो कि कोई 80 से 85 फ़ीसदी हैं। शिया इनकी तुलना में 15 से 20 फ़ीसदी ही हैं। अमूमन, तीन से चार करोड़। यानी आज भारत की आबादी में तीन से चार करोड़ शिया मुस्लिमों की सहभागिता है।

जब मुझसे यह आग्रह किया जाता है कि मैं कट्‌टरपंथी वहाबी सम्प्रदाय के प्रति अपनी "दुर्भावना" को समस्त इस्लाम पर सुपरइम्पोज़ ना करूं, तो उस आग्रह को ससम्मान स्वीकारते हुए

मैं यह भी प्रश्न पूछना चाहूंगा कि-

ख़िलाफ़त आंदोलन, बंग-भंग और भारत विभाजन की मांग के समय शिया समुदाय की प्रतिक्रिया इन मुद्दों पर क्या थी?

कश्मीर समस्या पर शिया समुदाय के विचार क्या हैं?

इस्लाम में सुधारों और मानवाधिकार की रक्षा की सख्त दरक़ार को लेकर शिया कम्युनिटी में कितनी बेचैनी है?

सीमापार आतंकवाद पर शियाओं का क्या स्टैंड है?

ग़ज़वा-ए-हिंद के नापाक मनसूबे पर उनकी क्या राय है?

थ्य यही है कि भारत विभाजन पर शिया समुदाय का स्टैंड वहाबी-सुन्नी-मैजोरिटी के साथ था। तब उनके भीतर का उदारवाद कहां चला गया था? और तथ्य यह भी है कि उपरोक्त तमाम ज्वलंत मसलों पर शिया समुदाय की कोई भी मुखर और सक्रिय सहभागिता मीडिया और पब्लिक स्फ़ीयर के किसी भी स्वरूप में आपको दिखाई नहीं देती है!

समस्या यही है ना कि हज़ार धड़े और मत-वैभिन्न्य हों इस्लाम के भीतर, जब चुनावी राजनीति की बात आती है तो वे एकजुट होकर टैक्टिकल वोटिंग करते हैं और उनका एजेंडा कभी कंस्ट्रक्टिव नहीं होता है। और नागरिक सुधारों के प्रति उनकी सक्रियता लगभग नगण्य और शोचनीय है!

जनसांख्यिकी के बल पर भारतीय राजनीति और उसके एजेंडे को अपहृत कर लेना एक लोकतांत्रिक पाप है!

इसका सीधा-सा उदाहरण इसी एक प्रश्न में निहित है कि अगर मैं पूछूं कि आज देश में भाजपा-विरोधी महागठबंधन का न्यूनतम साझा कार्यक्रम क्या है? तो आप क्या जवाब देंगे सिवाय इसके कि मुस्लिम वोटबैंक अक्षुण्ण रहे?

तो जब देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां, जिनका कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम नहीं है, जिनके भीतर कोई समानताएं नहीं हैं, कोई एकराय नहीं है, अगर सत्रह फ़ीसदी वोटबैंक को अक्षुण्ण रखने के अवसरवादी मक़सद से एकजुट होंगी तो अचरज नहीं करना चाहिए कि अस्सी फ़ीसदी बहुसंख्यक वोटबैंक के ध्रुवीकरण के लिए भारतीय जनता पार्टी कोई "हिंदू कार्ड" खेल दे! इसके लिए आप उसे दोष नहीं दे सकते। यह राजनीति है। राजनीति ऐसे ही संचालित होती है। और व्यापक जनसमुदाय के भी कुछ अंदरूनी भय और कुछ ज़ाहिर अभिमान होते हैं। अगर उन्हें ख़तरा महसूस हुआ तो प्रतिक्रियावादी आंदोलन, जिसे आप चाहें तो "गृहयुद्ध" भी कह सकते हैं, छिड़ते देर नहीं लगेगी!

वैसे भी समस्त कट्‌टर हिंदू राष्ट्रवाद एक प्रतिक्रियावादी मुहिम ही है, भारतीय परम्परा में उसका कोई ऐतिहासिक मूल पाया नहीं जाता है, चाहे जितना भीतर जाकर खोज लीजिए। तो फिर इनटॉलरेंस की विषबेल कहां पर है, बंधुओ?

Share it